नई दिल्ली। देश की सर्वोच्च अदालत ने देशभर में लंबित पड़े 8.82 लाख से ज्यादा ‘निष्पादन याचिकाओं’ (अदालती आदेशों को लागू करवाने के लिए दायर याचिकाएं) पर सख्त नाराजगी जताई है। अदालत ने कहा कि ये स्थिति बेहद निराशाजनक और चिंताजनक है।
क्या हैं निष्पादन याचिकाएं?
जब किसी नागरिक विवाद में अदालत कोई फैसला दे देती है और हारने वाला पक्ष उस आदेश को मानने से इनकार कर देता है, तब विजेता पक्ष अदालत में निष्पादन याचिका दायर करता है ताकि आदेश लागू हो सके। यानी यह प्रक्रिया अदालत के आदेश को जमीन पर उतारने की होती है।
सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस पंकज मित्तल की पीठ ने कहा, ‘अदालत का आदेश अगर वर्षों तक लागू ही न हो सके, तो फिर ऐसे आदेश का कोई मतलब नहीं रह जाता। यह न्याय का मजाक बन जाएगा।’ अदालत ने बताया कि कुल 8,82,578 निष्पादन याचिका लंबित हैं। मार्च 2024 से अब तक लगभग 3.38 लाख मामलों का निपटारा हुआ, लेकिन बाकी अब भी अटके हुए हैं। कोर्ट ने सभी हाईकोर्टों से कहा कि वे जिला अदालतों को स्पष्ट दिशा-निर्देश दें ताकि पुराने मामलों को जल्द निपटाया जा सके।
कर्नाटक हाईकोर्ट पर नाराजगी
कर्नाटक हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को जरूरी आंकड़े नहीं भेजे। इस पर कोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि रजिस्ट्रार जनरल दो हफ्तों में जवाब दें कि जानकारी क्यों नहीं दी गई। 6 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सभी हाईकोर्ट सर्कुलर जारी करें। निष्पादन याचिका छह महीने में निपटाई जाएं। अगर कोई देरी होती है तो संबंधित जज जिम्मेदार माने जाएंगे। कोर्ट ने मामला 10 अप्रैल 2026 को दोबारा सुनने का समय तय किया है। तब तक सभी हाईकोर्ट को लंबित और निपटाए गए मामलों के पूरे आंकड़े देने होंगे।
क्या है पूरा मामला?
तमिलनाडु के अय्यावू उदयार ने 1980 में जमीन खरीदने का समझौता किया था। 1986 में केस दाखिल हुआ। 2004 में आदेश के बाद भी जमीन का कब्जा नहीं मिला। 2008 में कब्जे का आदेश हुआ, पर अमल फिर भी नहीं हुआ। आखिरकार मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। अदालत ने कहा कि निचली अदालत और हाईकोर्ट ने इस मामले में गंभीर गलती की।
अदालत का साफ संदेश
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्याय में देरी न्याय से इनकार के बराबर है। आदेशों को वर्षों तक लागू न कर पाना व्यवस्था पर ही सवाल उठाता है। अदालत चाहती है कि हाईकोर्ट और जिला अदालतें इस ढर्रे को तुरंत बदलें।