Upgrade
पहल टाइम्स
  • होम
  • दिल्ली
  • राज्य
  • राष्ट्रीय
  • विश्व
  • धर्म
  • व्यापार
  • खेल
  • मनोरंजन
  • गैजेट्स
  • जुर्म
  • लाइफस्टाइल
    • स्वास्थ्य
    • फैशन
    • यात्रा
  • विशेष
    • साक्षात्कार
  • ईमैगजीन
  • होम
  • दिल्ली
  • राज्य
  • राष्ट्रीय
  • विश्व
  • धर्म
  • व्यापार
  • खेल
  • मनोरंजन
  • गैजेट्स
  • जुर्म
  • लाइफस्टाइल
    • स्वास्थ्य
    • फैशन
    • यात्रा
  • विशेष
    • साक्षात्कार
  • ईमैगजीन
No Result
View All Result
पहल टाइम्स
No Result
View All Result
  • होम
  • दिल्ली
  • राज्य
  • राष्ट्रीय
  • विश्व
  • धर्म
  • व्यापार
  • खेल
  • मनोरंजन
  • गैजेट्स
  • जुर्म
  • लाइफस्टाइल
  • विशेष
  • ईमैगजीन
Home राष्ट्रीय

चिपको आंदोलन के 50 साल: ज़िंदगी बदल जाने की कहानी, उत्तराखंड के ग्रामीणों की ज़ुबानी

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
December 11, 2022
in राष्ट्रीय, विशेष
A A
चिपको आंदोलन
30
SHARES
987
VIEWS
Share on FacebookShare on Whatsapp

Varsha Singh


जुलाई 1970 में अलकनंदा घाटी में विनाशकारी बाढ़ आई। अचानक, भारी बारिश से अलकनंदा और उसकी सहायक नदियों के जलस्तर में भयानक वृद्धि हुई। इससे उत्तराखंड राज्य के चमोली ज़िले में सड़कों, पुलों और खेतों में भीषण बाढ़ आ गई। बारिश से शुरू हुए भूस्खलन के कारण पहाड़ियों में कई छोटे गांव बर्बाद हो गए।

इन्हें भी पढ़े

brahmaputra river

ब्रह्मपुत्र नदी पर 77 बिलियन डॉलर का हाइड्रो प्रोजेक्ट तैयार, क्या है भारत का प्लान?

October 13, 2025
Supreme court

राहुल के ‘वोट चोरी’ के आरोपों पर SIT गठित करने की मांग से सुप्रीम कोर्ट का इनकार

October 13, 2025
RSS

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और घोष : घोष केवल संगीत और वादन नहीं, यह साधना है!

October 12, 2025
clinic

भारत के मरीज अस्पतालों से क्या चाहते हैं? रिपोर्ट में खुलासा

October 12, 2025
Load More

प्रभावित गांवों के लोगों के मन में एक ही सवाल था: बाढ़ क्यों आई? जवाब की तलाश ने उन्हें चिपको आंदोलन शुरू करने के लिए प्रेरित किया। चिपको आंदोलन को वन संरक्षण और पर्यावरण एक्टिविज़्म के इतिहास में, आज भारत में सबसे ज़रूरी, अहिंसक और सामुदायिक मूवमेंट के रूप में याद किया जाता है।

क्या आपको पता है?

चिपको आंदोलन की शुरुआत 18वीं शताब्दी के राजस्थान में हुई थी। लेकिन यह 1970 के दशक की शुरुआत में रैणी की घटनाओं के बाद प्रसिद्ध हुआ।

पहले चिपको आंदोलन का नेतृत्व करने वाले पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता 88 वर्षीय चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं, “बाढ़ के कारणों को समझने के लिए, हम कई जगहों पर गए और हमने पाया कि जहां भी जंगल काटे गए, बाढ़ का प्रभाव गंभीर था।” भट्ट को 2013 में गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

चमोली के ग्रामीणों ने निष्कर्ष निकाला कि भविष्य में बाढ़ और भूस्खलन से खुद को बचाने के लिए उन्हें जंगलों की रक्षा करने की ज़रूरत है।

यह जानकारी रैणी में 1973 में शुरू हुए इस आंदोलन का अहम हिस्सा था। गांव की महिलाएं पेड़ों को गले लगाकर, उनसे ‘चिपककर’ लकड़हारों और जंगलों के बीच एक दीवार बन कर खड़ी हो गईं। वे पेड़ों को काटने आए ठेकेदारों की आरी-कुल्हाड़ी का पहला वार झेलने के लिए तैयार थे।

साल 2023 में रैणी में हुए चिपको आंदोलन के 50 साल पूरे हो रहे हैं। लेकिन जब द् थर्ड पोल के रिपोर्टर ने रैणी का दौरा किया, तो यह स्पष्ट हो गया कि पर्यावरण एक्टिविज़्म की इतनी मज़बूत विरासत वाली यह जगह अब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से संबंधित आपदाओं से ग्रस्त है। जलवायु परिवर्तन लोगों के जीवन के लिए एक ऐसा खतरा है जो पेड़ों की कटाई से होने वाले खतरों से कहीं अधिक बड़ा और जटिल है। धीरे-धीरे रैणी रहने लायक नहीं रह गई है और लोग अपना घर छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं।

जलवायु आपदाओं से तबाह रैणी
1970 के बाद से चमोली में कई आपदाएं आ चुकी हैं। हाल के इतिहास में सबसे ज्यादा चर्चा में रहने वाली बाढ़ फरवरी 2021 में आई थी, जो एक ग्लेशियर के बड़े हिस्से के टूटने से शुरू हुई थी। ऋषि गंगा नदी की इस बाढ़ से 200 से अधिक लोग मारे गए।

रैणी में ग्रामीणों का कहना है कि वे आपदाओं के चलते डर के साये में जी रहे हैं। आपदाएं अब लगातार आ रही हैं और तीव्र होती जा रही हैं। द् थर्ड पोल ने देहरादून और रैणी के बीच नौ घंटे की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान सड़क के दोनों तरफ भूस्खलन से मलबे दिखते हैं जो ग्रामीणों के डर वाली बात की याद दिलाते हैं।

यह गांव कभी भूटिया समुदाय की कई पीढ़ियों का घर हुआ करता था। भूटिया समुदाय उन लोगों का एक समूह था जो 9वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास तिब्बत से दक्षिण की ओर चले गए थे और भारत-तिब्बत सीमा के साथ पर्वत श्रृंखलाओं में बस गए थे। अब इनमें केवल बुजुर्ग निवासी हैं।

चंद्र सिंह कहते हैं, “चिपको आंदोलन की वजह से हिमालय के लाखों पेड़ों को कटने से बचाया गया। प्राकृतिक आपदाओं के कारण आज हम अपने बच्चों के लिए नई जगह तलाशने को मजबूर हैं। लेकिन मैं अपना घर नहीं छोड़ना चाहता। वृक्षों की यह छाया और कहां से मिलेगी?”

78 वर्षीय सिंह गौरा देवी के पुत्र हैं। चिपको आंदोलन का नेतृत्व करने वाली गौरा देवी ने उन महिलाओं के समूह का नेतृत्व किया था, जिन्होंने सबसे पहले जंगलों की रक्षा की। सिंह कहते हैं, “हमारे जंगलों में जो सब्जियां थीं, वे हमारे खेतों में नहीं मिल सकतीं। जंगलों में अब जानवरों को भोजन नहीं मिलता तो वे हमारे खेतों में आ जाते हैं। इसके कारण हमारे बच्चे, खेतों को बंजर छोड़कर शहर में काम करने चले गए।”

चिपको आंदोलन को देखने वाली और उसमें शामिल रहने वाली गांव की महिलाएं द् थर्ड पोल को बताती हैं कि आज उन्हें केवल नाराज़गी और निराशा महसूस होती है।

सत्तर के दशक की सफलताएं अब धुंधली हो चुकी हैं
शुरुआत में चिपको आंदोलन का नेतृत्व पुरुषों ने किया था। द् थर्ड पोल को भट्ट बताते हैं कि महिलाएं बैठकों में सबसे पीछे बैठती थीं और कभी-कभी ‘चिपको’ शब्द पर हंसती थीं। लेकिन 26 मार्च, 1974 को रैणी से सभी पुरुष चमोली कस्बे में गए थे तब महिलाओं ने ही कमान थामी थी।

पचहत्तर वर्षीय बाती देवी याद करती हैं कि सुबह करीब 9 बजे एक युवा लड़की ने वन विभाग के कर्मचारियों के साथ कुछ श्रमिकों को औजारों के साथ जंगल की ओर जाते देखा। वह गौरा देवी के पास दौड़ी, जिन्होंने तुरंत महिलाओं को लामबंद किया। लगभग 30 महिलाओं और युवा लड़कियों ने अपना काम छोड़ दिया और जंगलों की ओर जाने वाली संकरी सड़कों पर दौड़ पड़ीं।

बाती देवी कहती हैं, “हमने पेड़ों को कसकर पकड़ लिया और उनसे चिपक गए… हमने उनसे [लकड़हारों] पेड़ों से पहले अपनी कुल्हाड़ियों को हमारे ऊपर चलाने के लिए कहा। उन्हें वापस जाना पड़ा। वन विभाग ने हमें डांटा भी था।” भट्ट कहते हैं कि वनों की कटाई और बाढ़ के बीच संबंध को लेकर ग्रामीणों की आशंका की पुष्टि दिल्ली विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर वीरेंद्र कुमार की अध्यक्षता वाली एक समिति ने की है।

भट्ट कहते हैं कि चिपको आंदोलन के कारण ही 1927 के वन अधिनियम में संशोधन किया गया और वन संरक्षण अधिनियम 1980 को अपनाया गया। 1981 में, उत्तर प्रदेश सरकार (उत्तराखंड, तब उत्तर प्रदेश का हिस्सा था) ने समुद्र तल से 1,000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर उगने वाले पेड़ों को काटने पर 10 साल का प्रतिबंध लगाया था, जिसे बाद में 10 साल के लिए इस प्रतिबंध को और बढ़ा दिया गया था। दिसंबर 1996 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया, जो आज भी जारी है।

रैणी में रहना मुश्किल हो चुका है
फरवरी 2021 में आई बाढ़ ने रैणी में भारी नुकसान किया। वहां के निवासी द् थर्ड पोल को बताते हैं कि यह अब रहने के लिए सुरक्षित जगह नहीं है। उनके घरों में दरारें आ गई हैं और गांव जिस ढलान पर बना है वह अस्थिर हो गया है। नीचे की ओर, ऋषि गंगा नदी, भूमि का क्षरण कर रही है।

द् थर्ड पोल ने जिन लोगों से बात की है, वे सभी कहते हैं कि उनको दूसरी जगह भेज दिया जाए। यही 2021 आपदा के बाद की एक आधिकारिक रिपोर्ट की सिफारिश भी थी।

गौरा देवी की बहू जूठी देवी इस बात पर ज़ोर देती हैं कि पुनर्वास एक आसान समाधान नहीं है। गांव लोगों की पहचान के केंद्र में है और वे इसे छोड़ देने के लिए इच्छुक नहीं हैं। वे 1970 के दशक में बचाए गए जंगलों से दूर जाने से भी निराश हैं।

जूठी देवी बताती हैं कि इस क्षेत्र के हर गांव का अपना जंगल है और लोग केवल अपने निर्धारित जंगलों से ही संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं। उन्हें ऐसे स्थानों पर स्थानांतरित किया जा सकता है, जहां सभी वनों को पहले ही आवंटित किया जा चुका है। वह कहती हैं, “अगर सरकार हमारा पुनर्वास करती है, तो हम अपने जंगलों में नहीं जा पाएंगे और अन्य गांव हमें अपने जंगलों में नहीं जाने देंगे।”

ग्रामीणों ने द् थर्ड पोल को बताया कि इस सबके बावजूद अपने पोते-पोतियों को एक सुरक्षित भविष्य देने की आवश्यकता के कारण, वे एक नए स्थान पर जाने के लिए तैयार हैं।

रैणी गांव में जंगल ग्रामीण जीवन के केंद्र में हैं
बाती देवी कहती हैं कि रैणी के आसपास के जंगल, संसाधनों के स्रोत से कहीं अधिक महत्व के रहे हैं। वह कहती हैं, “हमने अपने जंगलों, अपनी पृथ्वी और अपनी आजीविका को बचाने के लिए [चिपको] आंदोलन शुरू किया। यह हमारा मायका है। हमने जंगल में अपने दुखों को साझा किया। जब तक जंगल हमारा था, तब तक सब ठीक था। जब वन विभाग ने जंगल की रखवाली शुरू की, तो चीजें बदल गईं।”

वनों को लेकर वर्षों से जारी प्रतिबंध

परंपरागत रूप से, रैणी के ग्रामीणों को जंगल में अपनी जरूरत की हर चीज मिल जाती थी; सब्जी, मसाले या दवाई खरीदने के लिए बाजार जाना, कभी भी दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं था। लेकिन, विशेष रूप से 1980 के बाद, वन विभाग द्वारा लागू किए गए बढ़ते प्रतिबंधों का मतलब है कि अब वे आवश्यक सामान खरीदने के लिए नियमित रूप से स्थानीय बाजार जाते हैं।

महिलाएं द् थर्ड पोल को बताती हैं कि जब भी वे जंगलों में जाती थीं, तो वे सूखी लकड़ियां (जिससे जंगल की आग का खतरा कम हो जाता था) हटा देती थीं। साथ ही नए पेड़ों की देखभाल भी करती थीं। इससे उन्हें अपने स्थानीय परिवेश के प्रति उत्तरदायित्व का बोध होता था।

बाती देवी कहती हैं, “हम नहीं जानते थे कि बाहरी लोगों से बचाए गए पेड़ों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होगा। जब हमें जंगल से सूखी लकड़ी की आवश्यकता होती है, तो हमें वन विभाग से रसीद लेनी पड़ती है।”

रैणी में बची ज़मीन को आजीविका का साधन ना बना पाने की वजह से पुरुषों ने दिल्ली और देहरादून जैसे शहरों का रुख करना शुरू कर दिया है। उनकी बेटियां और बहुएं उनके साथ या बच्चों के लिए शिक्षा की तलाश में जोशीमठ-तपोवन जैसे आस-पास के इलाकों में चली गई हैं।

हाल की आपदाओं से उनके हौसले पस्त हो गए हैं। रैणी के बचे निवासी, युवाओं के नक्शेकदम पर चलने की तैयारी कर रहे हैं। वे उन जंगलों को पीछे छोड़ रहे हैं जिनकी रक्षा के लिए वे और उनके वंशज कभी लड़े थे।


साभार : द् थर्ड पोल

इन्हें भी पढ़ें

  • All
  • विशेष
  • लाइफस्टाइल
  • खेल

राज्यपालों की नियुक्ति होनी है

July 8, 2022

विजयदशमी समापन पर हुआ भंडारे का आयोजन

October 6, 2022
arrest

मुद्दा : जेल में भी जिंदगी से जद्दोजहद

April 24, 2023
पहल टाइम्स

पहल टाइम्स का संचालन पहल मीडिया ग्रुप्स के द्वारा किया जा रहा है. पहल टाइम्स का प्रयास समाज के लिए उपयोगी खबरों के प्रसार का रहा है. पहल गुप्स के समूह संपादक शूरबीर सिंह नेगी है.

Learn more

पहल टाइम्स कार्यालय

प्रधान संपादकः- शूरवीर सिंह नेगी

9-सी, मोहम्मदपुर, आरके पुरम नई दिल्ली

फोन नं-  +91 11 46678331

मोबाइल- + 91 9910877052

ईमेल- pahaltimes@gmail.com

Categories

  • Uncategorized
  • खाना खजाना
  • खेल
  • गैजेट्स
  • जुर्म
  • दिल्ली
  • धर्म
  • फैशन
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • राजनीति
  • राज्य
  • राष्ट्रीय
  • लाइफस्टाइल
  • विशेष
  • विश्व
  • व्यापार
  • साक्षात्कार
  • सामाजिक कार्य
  • स्वास्थ्य

Recent Posts

  • ब्रह्मपुत्र नदी पर 77 बिलियन डॉलर का हाइड्रो प्रोजेक्ट तैयार, क्या है भारत का प्लान?
  • राहुल के ‘वोट चोरी’ के आरोपों पर SIT गठित करने की मांग से सुप्रीम कोर्ट का इनकार
  • सुबह की ये 4 आदतें लिवर को बनाएगी हेल्दी, आज से ही कर दें शुरू

© 2021 पहल टाइम्स - देश-दुनिया की संपूर्ण खबरें सिर्फ यहां.

  • होम
  • दिल्ली
  • राज्य
  • राष्ट्रीय
  • विश्व
  • धर्म
  • व्यापार
  • खेल
  • मनोरंजन
  • गैजेट्स
  • जुर्म
  • लाइफस्टाइल
    • स्वास्थ्य
    • फैशन
    • यात्रा
  • विशेष
    • साक्षात्कार
  • ईमैगजीन

© 2021 पहल टाइम्स - देश-दुनिया की संपूर्ण खबरें सिर्फ यहां.