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इतिहास बोध: वर्तमान को अतीत में जीना

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
June 1, 2022
in विशेष
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हरिशंकर व्यास

आठ अरब मनुष्यों का इतिहास बोध मोटा-मोटी वहीं है जो मानव प्रकृति की विवेचना से निकलता है। जैसे लोग वैसा बोध! भेड़-बकरी की प्रवृत्ति वाले लोगों के लिए पृथ्वी और इतिहास का होना या न होना बेमतलब है। मगर हां, भेड़ बाड़ों की कमान संभाले गड़ेरिए उर्फ कथित श्रेष्ठिजनों के लिए अलग-अलग चारदिवारियों में मनुष्यों को बांटने और उससे उन पर स्वामित्व में पृथ्वी बतौर कर्मभूमि है। ऐसे ही धनपशु प्रवृत्ति के मोटे सुअरों के लिए वह संसाधनों की खदान है।ज्सत्यवादी, चिंतक देवर्षि लोग भले इतिहास में झांक कर आज और कल का चिंतन करें, अपने इतिहास बोध में भविष्य के रोडमैप बनाएं लेकिन ऐसा कर सकना न आम आदमी के बस की बात है और न लोगों के समूहों के नियंताओं, चारदिवारियों के बस में है।

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प्रलय का मुहाना-21: पृथ्वी के इतिहास में मनुष्य जन्म है। उस नाते जन्मदायी पृथ्वी पर मानव इतिहास में क्या बोध है? क्या मनुष्य अपने इतिहास में पृथ्वी की चिंता करता हुआ है? कतई नहीं। वजह यह त्रासद सत्य कि मानव सभ्यता का आरंभ विनाशकाले विपरीत बुद्धि की प्रवृत्ति में हुआ। आरंभिक दार्शनिकों, चिंतकों ने भय, असुरक्षा, भूख की चिंताओं में प्रकृति पर सोचा और पृथ्वी टेकेन फॉर गारंटेड। वह कल्पनाओं का प्लेटफॉर्म बनी। वह देवलोक के वरदान की एक माया। चांद-तारों के आकाश के किसी देवलोक का एक निर्माण और उसी से मनुष्य का जन्म। दिमाग की कल्पनाओं ने पृथ्वी की बजाय परलोक, स्वर्ग की कल्पना कर, उनके भगवान को अपना संरक्षक बनाया। जन्मदाता माना। पृथ्वी के लिए श्रेष्ठ नहीं बनना, पुण्य नहीं सोचना, अपने को अर्पण नहीं करना, बल्कि पृथ्वी तो पाप की जगह। परीक्षा की जगह। सोचें, मानव के आइडिया में कैसे धर्म, कैसी जीवन पद्धति बनी जो पृथ्वी तो पापी, मृत्युलोक और मनुष्य की मंजिल व मुक्ति तभी जब उसे कल्पनाओं का स्वर्ग लोक मिले।
इसलिए आठ अरब मनुष्यों का इतिहास बोध मोटा-मोटी वहीं है जो मानव प्रकृति की विवेचना से निकलता है। जैसे लोग वैसा बोध! भेड़-बकरी की प्रवृत्ति वाले लोगों के लिए पृथ्वी और इतिहास का होना या न होना बेमतलब है। मगर हां, भेड़ बाड़ों की कमान संभाले गड़ेरिए उर्फ कथित श्रेष्ठिजनों के लिए अलग-अलग चारदिवारियों में मनुष्यों को बांटने और उससे उन पर स्वामित्व में पृथ्वी बतौर कर्मभूमि है। ऐसे ही धनपशु प्रवृत्ति के मोटे सुअरों के लिए वह संसाधनों की खदान है।
यों इतिहास बोध का मामला रोचक व गंभीर है। कवि अज्ञेय की एक लाजवाब काव्य टिप्पणी है- इन्हें अतीत भी दिखता है, और भवितव्य भी। इस में ये इतने खुश रहते हैं, कि इन्हें यह भी नहीं दिखता! कि उन्हें सब कुछ दिखता है पर, वर्तमान नहीं दिखता!, दांते के लिए यह स्थिति, एक विशेष नरक था, पर ये इसे अपना इतिहास-बोध कहते हैं!

अतीत दोहराता हुआ
क्या गजब बात है। भारत को उसके वर्तमान में परखें! क्या अतीत दोहराता हुआ नहीं है। उससे नरक बनता हुआ नहीं है? अतीत की पुनरावृत्ति नहीं है? हिसाब से भारत के लोग 1947 से आजाद हैं। पर क्या अतीत से आजाद हैं? हिसाब से अंग्रेजों के वक्त ही, विभाजन के बाद तो अनिवार्य तौर पर ग्यारह सौ साल पुराने हिंदू-मुस्लिम रिश्तों के जख्म भर जाने थे। लेकिन मनुष्य मेमोरी का कोई क्या करें। घाव भले भर जाए, उसके निशान विवेक को खाए होते हैं। इसलिए भारत के 140 करोड़ लोगों का दिमाग न केवल अतीत में बंधा हुआ है, बल्कि उसी से राष्ट्रीय जीवन नियंत्रित है। हिंदू सत्ता आश्रित है, गुलाम है। उससे वह इतिहास का बदला लेने का मुगालता पाले हुए है। जबकि मुसलमान विजेता के अहंकार में वर्तमान बिगाड़े हुए है। हिंदू दिमाग सैकेड़ों सालों की गुलामी के अनुभव से ऐसे गुंथा है, जिसके कारण उसमें दासता के मौजूदा सिस्टम को समझने का विवेक भी नहीं है। उसने अंग्रेजों से आजादी पाई पर दासता के सिस्टम, उस सत्ता से नहीं पाई, जिससे सदियों से वह गुलाम बना आया है। हिंदू दिमाग में यह विवेक, इतिहास का यह सबक पैठता नहीं है कि हाकिम गोरा हो या काला, जब तक मनुष्य को माई-बाप सत्ता का, पालतू-पिंजरे से मुक्त जीवन प्राप्त नहीं होता तब तक वह परतंत्र है। जिंदगी भय, भूख, झूठ की आदिम प्रवृत्ति की जंगली अवस्थाओं में ही गुजरती है। तभी हिंदू का अतीत और वर्तमान कांटीन्यू है। दुनिया में किसी और नस्ल-कौम का यह मामला नहीं है जो परंपरा और इतिहास बोध दोनों में हिंदू अतीत की कल्पनाओं और ताने-बानों में जी रहा है। लोकतंत्र में अवतार तलाशता है और सत्ता को मंदिर बनाकर उसकी भक्ति, दासता में जीवन जीता है। अतीत की आदत ही वर्तमान का स्वभाव है।
पृथ्वी की बाकी मनुष्य प्रजातियों में भी कोई उम्दा दिमागी स्थिति नहीं है। रूस, यूक्रेन, इस्लामी देश, चीन आदि देशों की नस्लों, जातियों, आइडेंटिटी के समूहों की इतिहास मेमोरी भी अतीत के शव-श्मशानों में भटके हुए है। मुसलमान मानते हैं कि हमारे आखिरी पैगंबर थे और उन्होंने जो कहा वह आखिरी सत्य है तो हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक पूरी पृथ्वी को दारूल इस्लाम न बना डालें। मानव समूहों की ऐसी हर जिद्द लॉजिक, तर्क, भविष्यदृष्टि से नहीं है। ये सब अतीत की कहानियों, अनुभवों, घावों के निशान और इतिहास की मनमानी व्याख्या और इतिहास के बेवकूफी भरे बोध से है।

सबब और परिणाम
मनुष्य इतिहास और उसका सत्य क्या है, यह पिछली कड़ी में था। मोटा-मोटी मनुष्य प्रकृति की अभिव्यक्ति  इतिहास है। सवाल है इसके अनुभव से मनुष्य ने क्या सीखा? उसका सबब और परिणाम क्या? क्या इतिहास बोध मनुष्य में विवेक पैदा करता है? क्या परंपराओं में आधुनिकता की जरूरत बनवाता है?  वह देव मानुष, होमो डायस के सृजन की ओर बढऩे को प्रेरित होता है?
जवाब मनुष्य इतिहास की टाइमलाइन है। मनुष्यों का स्वभाव स्थायी है? उससे इतिहास अनिवार्य तौर पर वहीं बनता जाना है जो बनता आया है।
पिछले ढाई सौ वर्षों में औद्योगिक क्रांति के बाद की इतिहास घटनाओं पर गौर करें। लड़ाइयों, महायुद्धों, महामारियों, भूकंपों, तूफानों, बाढ़, वित्तीय संकटों, महाशक्तियों के पतन-उत्थान, आर्थिक मंदी, देशों के बनने-बिगडऩे की जितनी भी घटनाओं की टाइमलाइन बनी हुई है उन पर सोचें तो अपने आप जाहिर होगा कि मानव सभ्यता के अधिकांश प्राणी या तो यांत्रिक बेसुधी में हैं या अतीत से चले आ रहे इस इलहाम को छोड़ नहीं सकते कि हमारी कहानी नहीं मानी तो आपदा-विपदा आती रहेगी। हमारी सुनो यह कलियुग है इसलिए जो होता आया है वह सब होता रहेगा! इस तरह की यांत्रिक-नियतिगत बहुसंख्यक मानसिक अवस्था से इतर थोड़े-बहुत जो स्वतंत्रचेता मनुष्य हैं वे जरूर अलग तरह से सोचते हैं। पर वे भी अंतत: इतिहास के बोध के बावजूद इस लाचारगी में हैं कि करें तो क्या करें!
सोचें, मनुष्य की इस मनोदशा पर। देश भले बढ़ते हुए जल स्तर में डूबने की कगार पर है, रोते हुए है लेकिन बावजूद इसके इतिहास और उसके बोध की आइडेंटिटी के हवाले लोग और नेता राष्ट्रबोध की मूर्खता में जी रहे हैं। अतीत की परंपरा की जीवन शैली या गोबर और गौमूत्र को पकड़ा हुआ है! तभी पूरी मानवता और पृथ्वी के भविष्य के सिलसिले में सवाल है कि 195 देशों का अलग-अलग इतिहास बोध क्या आत्मघाती और खतरनाक नहीं है? चिंता भविष्य की होनी चाहिए या अतीत के अपने अहम, अपनी कहानियों में वर्तमान जीना चाहिए?

डूबेंगे, राष्ट्रबोध के साथ!
वर्तमान मतलब द्वीपीय देशों का डूबते हुए होना। हवा का प्रदूषित होना। जलवायु का गर्म होना है। मानव स्वभाव का उग्र होते जाना। मनुष्यता के अब तक के मानसिक विकास को जांगल युग की और ले जाना। ऐसा वर्तमान अनिवार्य तौर पर पृथ्वी व मनुष्य दोनों के भविष्य को प्रलयकारी बनाने वाला है।
विज्ञान बता रहा है कि असंभव है जो पृथ्वी वापिस दीर्घायु हो जाए।
तब मनुष्य व उनकी चारदिवारियों के देशों में क्या खतरे की घंटी नहीं बननी चाहिए? मगर सब वैश्विक बोध के बजाय राष्ट्रबोध में जी रहे हैं। कहानियों-कल्पनाओं के बोध की रूढ़ी में जिंदगी का व्यवहार बनाए हुए हैं। मनुष्यों के यांत्रिक जीवन में इतिहास और अतीत से ग्रीसिंग हो रही है। निश्चित ही मनुष्य अतीत और इतिहास की पैदाइश है। परंपरा और संस्कारों में पीढिय़ां जीती आई हैं। पारंपरिक जीवन पद्धति, संस्कार, संस्कृति सबका चारदिवारियों में छोटे-मोटे अर्थ हैं लेकिन जब मामला पृथ्वी और मानव अस्तित्व का है तो मानव धर्म का तकाजा है कि अतीत की बनवाई जीवन शैली को छोड़े। वर्तमान को भविष्य दृष्टि में बनाए।

दरअसल मनुष्य स्वभाव क्योंकि वंशानुगत डीएनए में बंधा हुआ है, अनुभवों के सेलेक्शन की मनोदशा में पका है तो स्वभाविक है जो इतिहास की चेतनता या अचेतनता दोनों ही स्थितियों में वह अतीत से चली आ रही लकीर का फकीर है। इतिहास की जंजीरें मनुष्य को किंगडम ऑफ एनिमेलिया की और खींचती हुई होती हैं। लड़इयों और नीच व्यवहार की पशुताएं उकेरती हुई होती हैं। आठ अरब लोगों के आम व्यवहार में अतीत, अनुभव और परंपरा का रोल कंट्रोलर जैसा है। सत्यवादी, चिंतक देवर्षि लोग भले इतिहास में झांक कर आज और कल का चिंतन करें, अपने इतिहास बोध में भविष्य का रोडमैप बनाएं लेकिन ऐसा कर सकना न आम आदमी के बस की बात है और न लोगों के समूहों के नियंताओं, चारदिवारियों के बस में है। क्योंकि पूरी मानवता और पृथ्वी की चिंता करना या चिंता बनाना तो फिर राष्ट्रीय सीमाओं, राष्ट्रबोध, सत्ता और स्वामित्व से मनुष्यता के मुक्त बनाना भी है। अतीत की बेडिय़ों से मानव समाज की ऐसी मुक्ति कल्पना से परे बात है। पांच हजार साल से चले आ रहे सभ्यताओं के विचार, आइडिया प्रलय के मुहाने पर भी बहने वाले नहीं हैं।

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