स्पेशल स्टोरी/नई दिल्ली: भारत के लोकतंत्र में संवैधानिक संस्थाओं के बीच संतुलन और जवाबदेही हमेशा से एक संवेदनशील मुद्दा रहा है। हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की आलोचना करते हुए सवाल उठाया कि क्या न्यायपालिका ‘सुपर संसद’ की तरह काम कर रही है? उनके इस बयान ने न केवल कानूनी हलकों में, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर भी एक नई बहस को जन्म दिया है। धनखड़ के बयान के पीछे का संदर्भ, इसके निहितार्थ और भारत के लोकतंत्र पर इसका प्रभाव क्या हो सकता है, आइए इसकी गहराई में उतरकर एग्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा के इस विश्लेषण से समझते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर तीखी प्रतिक्रिया
17 अप्रैल 2025 को, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राज्यसभा के प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर तीखी प्रतिक्रिया दी, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित की गई थी। धनखड़ ने इसे असंवैधानिक बताते हुए कहा, “हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहां अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश दें। क्या न्यायाधीश अब कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम करेंगे और ‘सुपर संसद’ की तरह व्यवहार करेंगे, जहां उनकी कोई जवाबदेही न हो?”
उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 142 पर भी सवाल उठाया, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए कोई भी आदेश देने का अधिकार है। धनखड़ ने इसे “लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल” करार दिया, यह तर्क देते हुए कि यह शक्ति विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप का कारण बन रही है।
Article 142 has become a nuclear missile against Democratic forces available to judiciary 24×7.
We cannot have a situation where you direct the President of India and on what basis?
The only right you have under the Constitution is to interpret the Constitution under Article… pic.twitter.com/ctmd1L2KUW
— Vice-President of India (@VPIndia) April 17, 2025
इसके अलावा, धनखड़ ने दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के आवास से भारी मात्रा में नकदी बरामद होने की घटना का जिक्र करते हुए न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही पर भी सवाल उठाए। उन्होंने पूछा कि जब एक जज के खिलाफ कोई FIR तक दर्ज नहीं होती, तो क्या यह न्यायिक प्रणाली में विश्वास को कम नहीं करता?
‘सुपर संसद’ का आरोप क्या है इसका मतलब ?
‘सुपर संसद’ शब्द का इस्तेमाल तब होता है, जब कोई संस्था संसद की सर्वोच्चता को चुनौती देती हुई प्रतीत होती है। धनखड़ का यह आरोप सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों पर केंद्रित है, खासकर उन मामलों में जहां कोर्ट ने कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप किया। उदाहरण के लिए:
राष्ट्रपति और राज्यपालों को समयसीमा: सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा विधेयकों को रोकने के मामले में फैसला सुनाया कि राज्यपाल को तीन महीने में निर्णय लेना होगा, अन्यथा विधेयक को मंजूर माना जाएगा। कोर्ट ने राष्ट्रपति को भी ऐसी समयसीमा में बांधा। धनखड़ ने इसे संवैधानिक पदों की गरिमा पर हमला बताया।
वक्फ संशोधन कानून !
संसद द्वारा पारित वक्फ संशोधन कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। विपक्ष का आरोप है कि यह कानून संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, जबकि सरकार इसे वक्फ बोर्ड में सुधार का कदम बताती है। धनखड़ ने इस मामले में कोर्ट के हस्तक्षेप को विधायिका के अधिकारों पर अतिक्रमण के रूप में देखा।
Not for a moment will I ever say that we must not give premium to innocence. Democracy is nurtured, its core values blossom, and human rights are taken at a high pedestal when we believe in innocence till the guilt is established. Therefore, I must not be misunderstood as casting… pic.twitter.com/IziN2OYf57
— Vice-President of India (@VPIndia) April 17, 2025
अनुच्छेद 142 का उपयोग: धनखड़ ने अनुच्छेद 142 को “न्यूक्लियर मिसाइल” बताते हुए कहा कि यह कोर्ट को असीमित शक्ति देता है, जिसका दुरुपयोग विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप के लिए हो सकता है।
क्या हैं धनखड़ के सवालों के मायने ?
धनखड़ का बयान केवल एक आलोचना नहीं, बल्कि भारत के लोकतंत्र में शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) और संस्थागत संतुलन पर एक गहरी बहस का आह्वान है। इसके प्रमुख निहितार्थ निम्नलिखित हैं:
संस्थागत सीमाओं की बहस: धनखड़ का कहना है कि प्रत्येक संवैधानिक संस्था—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—को अपनी सीमाओं में रहकर काम करना चाहिए। उनका तर्क है कि न्यायपालिका का बार-बार विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप लोकतंत्र की मूल भावना को कमजोर करता है।
राष्ट्रपति की गरिमा: धनखड़ ने राष्ट्रपति के संवैधानिक पद की सर्वोच्चता पर जोर दिया। उनका कहना है कि राष्ट्रपति को समयसीमा में बांधना या निर्देश देना संवैधानिक ढांचे का उल्लंघन है।
न्यायपालिका की जवाबदेही: दिल्ली हाईकोर्ट के जज से जुड़े नकदी मामले का जिक्र करके धनखड़ ने न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही पर सवाल उठाया। यह एक गंभीर मुद्दा है, क्योंकि न्यायिक स्वतंत्रता के साथ-साथ जनता का विश्वास भी महत्वपूर्ण है।
राजनीतिक ध्रुवीकरण: धनखड़ के बयान ने राजनीतिक हलकों में तीखी प्रतिक्रियाएं उभारी हैं। वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने कोर्ट का बचाव करते हुए कहा कि अगर राज्यपाल और राष्ट्रपति विधेयकों पर निर्णय नहीं लेते, तो संसद और राज्य सरकारें अनिश्चितता में नहीं रह सकतीं। यह बहस अब कानूनी से ज्यादा राजनीतिक रंग ले रही है।
प्रतिनिधियों के अधिकारों का हनन ?
सुप्रीम कोर्ट और उसके समर्थकों का तर्क है कि न्यायपालिका का हस्तक्षेप संवैधानिकता और जनता के हितों की रक्षा के लिए आवश्यक है। कोर्ट का कहना है कि अनुच्छेद 142 उसे पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने की शक्ति देता है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु मामला: सुप्रीम कोर्ट ने तर्क दिया कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोकना जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के अधिकारों का हनन है।
वक्फ कानून: कोर्ट ने सरकार से सवाल किया कि वक्फ संशोधन कानून में कुछ प्रावधान, जैसे गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति, संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन तो नहीं करते।
संवैधानिक ढाल: सिब्बल और सिंघवी जैसे वकीलों का मानना है कि जब संवैधानिक मर्यादाएं खतरे में हों, तो न्यायपालिका ही अंतिम रक्षक है।
न्यूज़ एजेंसी ANI से बात करते हुए कपिल सिब्बल ने कहा कि “वे उनके बयान से दुखी और आश्चर्यचकित हैं। उन्होंने न्यायपालिका की विश्वसनीयता का बचाव करते हुए कहा कि आज देश में अगर किसी संस्था पर भरोसा है, तो वह न्यायपालिका है। जब सरकार के कुछ लोग न्यायपालिका के फैसलों से असहमत होते हैं, तो वे इसे अपनी सीमा लांघने का आरोप लगाने लगते हैं। सिब्बल ने पूछा कि क्या धनखड़ को पता है कि संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण न्याय देने के लिए अनुच्छेद 142 का अधिकार दिया है? उन्होंने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति केवल नाममात्र का प्रमुख होता है और मंत्रिमंडल की सलाह पर कार्य करता है, उनका कोई व्यक्तिगत अधिकार नहीं है। सिब्बल ने कहा कि धनखड़ को इन संवैधानिक सिद्धांतों को समझना चाहिए।”
#WATCH | Delhi | On Vice President Jagdeep Dhankhar's statement, Senior advocate and Rajya Sabha MP Kapil Sibal says, "I was saddened and surprised to see Jagdeep Dhakhar's statement. If any institution is trusted throughout the country in today's time, it is the judiciary. When… https://t.co/69pbTeMYEK pic.twitter.com/ccvhS2bqj9
— ANI (@ANI) April 18, 2025
जनता की नजर में धनखड़ के बयान !
सोशल मीडिया, खासकर X पर, धनखड़ के बयान को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं। कुछ यूजर्स ने धनखड़ का समर्थन करते हुए कहा कि न्यायपालिका को अपनी सीमाओं का ध्यान रखना चाहिए। एक यूजर ने लिखा, “न्यायिक सुधार जरूरी हैं। एक जज के घर करोड़ों का कैश मिलता है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती।” वहीं, कुछ अन्य ने कोर्ट का पक्ष लेते हुए कहा कि कार्यपालिका और विधायिका की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिए कोर्ट का हस्तक्षेप जरूरी है।
क्या न्यायपालिका अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रही ?
धनखड़ के सवालों ने भारत के लोकतंत्र में एक मौलिक बहस को जन्म दिया है: क्या न्यायपालिका अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रही है, या वह संविधान की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठा रही है? इस बहस के कुछ संभावित परिणाम हो सकते हैं संस्थागत सुधार: न्यायपालिका की जवाबदेही और पारदर्शिता को बढ़ाने के लिए सुधारों की मांग तेज हो सकती है। उदाहरण के लिए, जजों की संपत्ति घोषणा और जांच प्रक्रिया को और सख्त किया जा सकता है। सरकार अनुच्छेद 142 की शक्ति को सीमित करने या स्पष्ट करने के लिए संवैधानिक संशोधन पर विचार कर सकती है। यह मुद्दा सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच एक नए राजनीतिक टकराव का कारण बन सकता है, खासकर 2025 में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर।
क्या न्यायपालिका ‘सुपर संसद’ बन रही ?
जगदीप धनखड़ का बयान केवल एक आलोचना नहीं, बल्कि भारत के लोकतंत्र के भविष्य को आकार देने वाली एक गहरी बहस का प्रारंभ है। क्या न्यायपालिका ‘सुपर संसद’ बन रही है, या वह केवल अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभा रही है? यह सवाल न केवल कानूनी विद्वानों और राजनेताओं के लिए, बल्कि हर भारतीय नागरिक के लिए महत्वपूर्ण है। क्योंकि, लोकतंत्र की ताकत न केवल इसकी संस्थाओं में, बल्कि उनके बीच के संतुलन और आपसी सम्मान में निहित है।