स्पेशल डेस्क/नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने न केवल भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव को चरम पर पहुंचा दिया, बल्कि वैश्विक कूटनीति के गलियारों में भी हलचल मचा दी। बैसरन घाटी में पर्यटकों पर हुए इस क्रूर हमले में 26 लोग मारे गए, जिनमें ज्यादातर हिंदू पर्यटक थे। हमले की जिम्मेदारी लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े आतंकी संगठन ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ (TRF) ने ली, जिसने भारत और पाकिस्तान के बीच पहले से ही तनावपूर्ण रिश्तों को और जटिल कर दिया। इस बीच, अमेरिका की भूमिका और ट्रंप सरकार के रुख़ पर सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि उनकी प्रतिक्रियाओं में विरोधाभास और असमंजस साफ दिखाई देता है। इस पर आधारित एग्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा की ये विशेष रिपोर्ट पहलगाम हमले के बाद उभरे भू-राजनीतिक परिदृश्य, अमेरिका की भूमिका और ट्रंप सरकार के रवैये की पड़ताल करती है।
एक सुनियोजित साजिश और हमला !
पहलगाम, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता और शांति के लिए जाना जाता है, 22 अप्रैल को खून से लाल हो गया। आतंकियों ने सेना और पुलिस की वर्दी पहनकर पर्यटकों पर हमला किया। हमलावरों ने नाम और धर्म पूछकर गैर-मुस्लिम पुरुषों को चुन-चुनकर मारा, जिससे इस हमले की सांप्रदायिक प्रकृति स्पष्ट हो गई। चार आतंकियों में से दो की पहचान स्थानीय आतंकी आदिल गुरी और आसिफ शेख के रूप में हुई, जबकि दो अन्य पाकिस्तानी नागरिक बताए गए। सूत्रों के अनुसार, हमलावर सैटेलाइट फोन का इस्तेमाल कर रहे थे, जो उनकी सीमा पार से संचालित होने की संभावना को और पुख्ता करता है।
हमले के बाद भारत ने त्वरित कार्रवाई करते हुए कई कठोर कदम उठाए। सिंधु जल संधि को निलंबित कर दिया गया, अटारी-वाघा सीमा पर व्यापार रोक दिया गया, और पाकिस्तानी नागरिकों के वीजा रद्द कर दिए गए। भारत ने पाकिस्तान पर हमले के लिए सीधे तौर पर आरोप लगाया, जबकि पाकिस्तान ने इन आरोपों को खारिज करते हुए इसे “झूठा ऑपरेशन” करार दिया।
अमेरिका का समर्थन या असमंजस ?
पहलगाम हमले के बाद अमेरिका ने भारत के साथ खड़े होने की बात कही। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हमले की निंदा करते हुए इसे “बहुत बुरा हमला” बताया और कहा कि भारत और पाकिस्तान इसे “किसी न किसी तरह” सुलझा लेंगे। उन्होंने यह भी कहा, “मैं भारत और पाकिस्तान दोनों के बहुत करीब हूं। कश्मीर में वे एक हजार साल से लड़ रहे हैं। उस सीमा पर 1,500 साल से तनाव है।”
ट्रंप की इस टिप्पणी ने कई सवाल खड़े किए। उनकी बातों में ऐतिहासिक तथ्यों की कमी और कश्मीर मुद्दे को “हजारों साल पुराना” बताने की हल्की-फुल्की टिप्पणी ने भारत और पाकिस्तान, दोनों में बहस छेड़ दी। सोशल मीडिया पर लोगों ने ट्रंप की समझ पर सवाल उठाए, यह कहते हुए कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश के नेता इतने संवेदनशील मुद्दे पर इतनी सतही टिप्पणी कैसे कर सकते हैं।
अमेरिका भारत की पूरी मदद ?
वहीं, अमेरिकी नेशनल इंटेलिजेंस की डायरेक्टर तुलसी गबार्ड ने हमले को “इस्लामिक आतंकी हमला” करार देते हुए भारत के साथ मजबूती से खड़े होने की बात कही। उन्होंने कहा कि इस हमले के जिम्मेदार लोगों को पकड़ने में अमेरिका भारत की पूरी मदद करेगा। दूसरी ओर, अमेरिकी विदेश विभाग ने कहा कि वह भारत और पाकिस्तान, दोनों सरकारों के संपर्क में है और दोनों से “जिम्मेदार समाधान” की दिशा में काम करने का अनुरोध करता है।
इन बयानों में एक अंतर्निहित विरोधाभास दिखता है। एक तरफ अमेरिका भारत को आतंकवाद के खिलाफ समर्थन देने की बात करता है, तो दूसरी तरफ ट्रंप का यह कहना कि दोनों देश इसे आपस में सुलझा लेंगे, एक तटस्थ रुख़ को दर्शाता है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि ट्रंप का यह रवैया उनके पहले कार्यकाल की तरह ही है, जब उन्होंने कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता की पेशकश की थी, जिसे भारत ने साफ तौर पर खारिज कर दिया था।
ट्रंप सरकार के रुख़ पर सवाल क्यों ?
ट्रंप सरकार के रवैये पर सवाल उठने की कई वजहें हैं ऐतिहासिक तथ्यों की गलती और सतही बयानबाजी: ट्रंप का यह कहना कि भारत और पाकिस्तान “हजारों साल से कश्मीर को लेकर लड़ रहे हैं” न केवल ऐतिहासिक रूप से गलत है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि उनकी दक्षिण एशिया की जटिल भू-राजनीति की समझ सीमित है। कश्मीर मुद्दा 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे से शुरू हुआ, और इसे “हजारों साल पुराना” बताना एक अतिशयोक्ति है।
आतंकवाद के प्रति दोहरा मापदंड !
ट्रंप ने हमले की निंदा तो की, लेकिन पाकिस्तान का नाम लेने से परहेज किया। कुछ भारतीय विश्लेषकों का मानना है कि यह अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति नरम रुख़ दर्शाता है। खासकर तब, जब पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) से TRF का नाम हटवाने में कामयाबी हासिल की, जिसे अमेरिका और चीन की मदद से किया गया माना जा रहा है। पहलगाम हमले के बाद अमेरिकी मीडिया, खासकर न्यूयॉर्क टाइम्स, ने हमलावरों को “उग्रवादी” और “बंदूकधारी” जैसे शब्दों से संबोधित किया, जिसकी अमेरिकी सीनेट की विदेश मामलों की समिति ने कड़ी आलोचना की। समिति ने साफ कहा कि यह “आतंकी हमला” था। यह घटना अमेरिका के आतंकवाद के प्रति दोहरे मापदंड को उजागर करती है।
घरेलू मुद्दों और मध्य पूर्व पर केंद्रित : प्रकाश मेहरा
विशेषज्ञों का मानना है कि “ट्रंप की प्राथमिकताएं अभी घरेलू मुद्दों और मध्य पूर्व पर केंद्रित हैं। दक्षिण एशिया, खासकर भारत-पाकिस्तान तनाव, उनकी प्राथमिकता सूची में ऊपर नहीं है।”
हमले के बाद पाकिस्तान ने UNSC से TRF का नाम हटवाकर और बाद में हमले की जिम्मेदारी से किनारा करके अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश की। TRF ने दावा किया कि उसका सिस्टम “हैक” हुआ था और जिम्मेदारी का दावा एक “अनधिकृत संदेश” था। इस घटना ने संदेह को और गहरा किया कि क्या यह पाकिस्तान की साजिश थी, और अमेरिका की चुप्पी ने इस पर सवाल उठाए।
ईरान और सऊदी अरब की मध्यस्थता !
पहलगाम हमले ने न केवल भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ाया, बल्कि क्षेत्रीय शक्तियों को भी सक्रिय कर दिया। सऊदी अरब के विदेश मंत्री फैसल बिन फरहान अल सऊद ने भारत और पाकिस्तान के अपने समकक्षों से बात की, जबकि ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराघची ने मध्यस्थता की पेशकश की। ईरान ने कहा कि वह भारत और पाकिस्तान को अपनी “सर्वोच्च प्राथमिकता” मानता है और दोनों के बीच बेहतर समझ के लिए अपने दूतावासों का उपयोग करने को तैयार है।
चीन ने भी पाकिस्तान के रुख़ का समर्थन करते हुए “निष्पक्ष जांच” की मांग की, जिसमें रूस और पश्चिमी देशों के विशेषज्ञों को शामिल करने की बात कही। यह दर्शाता है कि वैश्विक शक्तियां इस तनाव को अपने हितों के हिसाब से देख रही हैं।
कूटनीति से लेकर सैन्य कार्रवाई तक !
भारत ने हमले के बाद कठोर कूटनीतिक और रणनीतिक कदम उठाए। सिंधु जल संधि को निलंबित करना, अटारी बॉर्डर पर व्यापार रोकना, और पाकिस्तानी राजनयिकों को निष्कासित करना भारत के सख्त रुख़ को दर्शाता है। साथ ही, भारत ने सेना को सतर्क रहने और सैन्य कार्रवाई की संभावना को खुला रखने का निर्देश दिया।
कश्मीर में पर्यटन और सुरक्षा को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि “पर्यटन को अमरनाथ यात्रा की तर्ज पर सीमित और कड़ी सुरक्षा के साथ संचालित किया जाए।” दूसरी ओर, विपक्षी नेता जैसे महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्लाह ने सरकार की कश्मीर नीति और इंटेलिजेंस विफलता पर सवाल उठाए हैं।
ट्रंप सरकार के लिए क्या चुनौती !
ट्रंप सरकार के सामने एक जटिल स्थिति है। एक तरफ, भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी को मजबूत करना अमेरिका के हित में है, खासकर चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के लिए। दूसरी तरफ, पाकिस्तान के साथ संबंध बनाए रखना भी अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह अफगानिस्तान और मध्य एशिया में अपनी रणनीति के लिए पाकिस्तान पर निर्भर है।
ट्रंप का ढुलमुल रवैया इस संतुलन को बनाए रखने की कोशिश का हिस्सा हो सकता है, लेकिन यह भारत में नाराजगी का कारण बन रहा है। भारतीय विश्लेषक के तौर पर प्रकाश मेहरा का मानना है कि “ट्रंप का यह रुख़ भारत को स्वतंत्र रूप से कदम उठाने के लिए प्रेरित कर सकता है, जैसा कि 2019 की बालाकोट स्ट्राइक में देखा गया था।”
वैश्विक शक्तियों की कूटनीतिक प्राथमिकता !
पहलगाम हमला न केवल भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव का एक नया अध्याय है, बल्कि यह वैश्विक शक्तियों की कूटनीतिक प्राथमिकताओं को भी उजागर करता है। ट्रंप सरकार का रुख़, जो समर्थन और तटस्थता के बीच झूल रहा है, भारत में संदेह पैदा कर रहा है। क्या अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ भारत के साथ मजबूती से खड़ा होगा, या फिर वह पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों को प्राथमिकता देगा ? यह सवाल अभी अनुत्तरित है।
भारत के लिए यह समय अपनी रणनीति को और मजबूत करने का है। कूटनीतिक दबाव, सैन्य तत्परता और वैश्विक समर्थन जुटाने की जरूरत है। पहलगाम हमले ने एक बार फिर साबित किया है कि आतंकवाद एक वैश्विक चुनौती है, और इसका मुकाबला करने के लिए स्पष्ट और एकजुट रुख़ की जरूरत है।