प्रकाश मेहरा
एग्जीक्यूटिव एडिटर
नई दिल्ली। तिब्बती बौद्ध धर्म में दलाई लामा को ‘जीवित बुद्ध’ माना जाता है, जो करुणा के बोधिसत्व अवलोकितेश्वर का अवतार हैं। यह परंपरा करीब 700 वर्ष पुरानी है, जो 14वीं सदी में गेदुन द्रब के साथ शुरू हुई थी। दलाई लामा न केवल तिब्बती बौद्ध धर्म के सर्वोच्च आध्यात्मिक नेता हैं, बल्कि तिब्बती संस्कृति और स्वायत्तता के प्रतीक भी हैं। वर्तमान 14वें दलाई लामा, तेनजिन ग्यात्सो, 1935 में पैदा हुए और 2 वर्ष की आयु में 13वें दलाई लामा के पुनर्जन्म के रूप में पहचाने गए। 1959 में चीनी शासन के खिलाफ असफल विद्रोह के बाद वे भारत में निर्वासित हैं।
उत्तराधिकार की परंपरा !
तिब्बती बौद्ध धर्म में दलाई लामा का चयन पुनर्जन्म की मान्यता पर आधारित है। जब एक दलाई लामा का निधन होता है, तो वरिष्ठ भिक्षु और धार्मिक नेता संकेतों (जैसे स्वप्न, झीलों में दर्शन, और अन्य आध्यात्मिक संकेत) के आधार पर उनके पुनर्जन्म की खोज करते हैं। यह प्रक्रिया गादेन फोडरंग ट्रस्ट (2015 में दलाई लामा द्वारा स्थापित) और तिब्बती धार्मिक परंपराओं के तहत होती है। परंपरागत रूप से, पंचेन लामा इस चयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन 1995 में 6 वर्षीय गेदुन चोएक्यि न्यिमा (तिब्बतियों द्वारा चुने गए पंचेन लामा) के कथित अपहरण के बाद चीन ने अपने चुने हुए पंचेन लामा को नियुक्त किया, जिसे तिब्बती समुदाय मान्यता नहीं देता।
दलाई लामा के उत्तराधिकार के मुद्दे
चीन ने तिब्बत पर 1951 में कब्जा किया और तब से वह तिब्बती बौद्ध धर्म और इसकी परंपराओं पर नियंत्रण की कोशिश कर रहा है। दलाई लामा के उत्तराधिकार के मुद्दे पर चीन का रुख निम्नलिखित कारणों से विवादास्पद है स्वर्ण कलश प्रणाली चीन का दावा है कि दलाई लामा का चयन 18वीं सदी की ‘स्वर्ण कलश’ प्रणाली के तहत होना चाहिए, जिसे किंग राजवंश ने शुरू किया था। इसमें संभावित पुनर्जन्मों के नाम एक स्वर्ण कलश में डाले जाते हैं, और एक नाम लॉटरी के जरिए चुना जाता है।
चीन का कहना है कि “यह प्रक्रिया उसकी मंजूरी के बिना अधूरी है। हालाँकि, तिब्बती समुदाय और विशेषज्ञ इसे राजनीतिक हस्तक्षेप मानते हैं, क्योंकि यह प्रणाली मूल रूप से किंग शासकों द्वारा तिब्बती धार्मिक प्रक्रियाओं पर नियंत्रण के लिए शुरू की गई थी।”
चीन-समर्थित दलाई लामा की नियुक्ति
चीन तिब्बत में अपनी पकड़ मजबूत करने और तिब्बती स्वायत्तता आंदोलन को कमजोर करने के लिए दलाई लामा के चयन को नियंत्रित करना चाहता है। एक चीन-समर्थित दलाई लामा की नियुक्ति से तिब्बती बौद्ध धर्म और संस्कृति पर उसका प्रभुत्व बढ़ सकता है, साथ ही तिब्बत के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण रुक सकता है।
1995 में चीन द्वारा अपने चुने हुए पंचेन लामा को थोपने का उदाहरण तिब्बती समुदाय के लिए एक चेतावनी है। तिब्बतियों को डर है कि चीन दलाई लामा के उत्तराधिकारी के साथ भी ऐसा ही करेगा।
क्या है दलाई लामा का रुख ?
चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने कहा कि दलाई लामा के पुनर्जन्म को चीनी कानूनों और 2007 में बनाए गए नियमों के तहत होना चाहिए, जिसमें विदेशी हस्तक्षेप पर प्रतिबंध है। यह दावा तिब्बती परंपराओं को नजरअंदाज करता है और इसे राजनीतिक हथियार के रूप में देखा जाता है।
14वें दलाई लामा ने स्पष्ट किया है कि उनके उत्तराधिकारी का चयन गादेन फोडरंग ट्रस्ट द्वारा तिब्बती बौद्ध परंपराओं के अनुसार होगा, जिसमें किसी बाहरी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि उनका पुनर्जन्म चीन के बाहर, संभवतः भारत, नेपाल, या भूटान जैसे बौद्ध प्रभावी देशों में हो सकता है। उनकी पुस्तक वॉयस फॉर द वॉइसलेस (मार्च 2025) में उन्होंने जोर दिया कि उनका pुनर्जन्म ‘स्वतंत्र दुनिया’ में होगा, ताकि तिब्बती बौद्ध धर्म का मिशन और तिब्बती लोगों की आकांक्षाएँ बनी रहें।
दलाई लामा ने यह भी संकेत दिया है कि “उत्तराधिकारी का चयन उनके जीवनकाल में ही हो सकता है, जिसे ‘उद्भव’ (emanation) कहा जाता है, ताकि चीन के हस्तक्षेप को रोका जा सके। उन्होंने यह भी कहा कि “उनका उत्तराधिकारी कोई बच्ची भी हो सकती है।”
मंजूरी और स्वर्ण कलश प्रणाली
दलाई लामा ने 6 जुलाई को अपने 90वें जन्मदिन से पहले धर्मशाला में एक गोपनीय बैठक में अपने उत्तराधिकारी के चयन पर चर्चा की। उन्होंने स्पष्ट किया कि गादेन फोडरंग ट्रस्ट ही इस प्रक्रिया को संचालित करेगा। चीन ने तुरंत इस बयान को खारिज करते हुए कहा कि दलाई लामा का चयन उसकी मंजूरी और स्वर्ण कलश प्रणाली के तहत होना चाहिए।
भारत ने दलाई लामा का समर्थन करते हुए कहा कि उत्तराधिकारी का फैसला केवल दलाई लामा और उनकी संस्था के पास है। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा, “इसमें कोई और दखल नहीं दे सकता।”
अमेरिका ने 2020 के तिब्बती नीति और समर्थन अधिनियम के तहत कहा कि “दलाई लामा के चयन में चीनी हस्तक्षेप धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा, जिसके लिए प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।”
भारत के सामने राजनयिक चुनौती !
भारत के लिए चुनौतीभारत के लिए यह मुद्दा संवेदनशील है। एक ओर, भारत ने 1959 से दलाई लामा और तिब्बती शरणार्थियों को शरण दी है और उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन करता है। दूसरी ओर, भारत-enchaicn-चीन संबंधों को सामान्य करने की कोशिश कर रहा है। यदि दलाई लामा का उत्तराधिकारी भारत में चुना जाता है और चीन अपना अलग दलाई लामा घोषित करता है, तो भारत के सामने राजनयिक चुनौती होगी। तिब्बती समुदाय को डर है कि चीन के दबाव में भारत चुप्पी साध सकता है, जिससे असमंजस की स्थिति पैदा हो सकती है।
वैश्विक कूटनीति और तिब्बती स्वायत्तता
दलाई लामा के उत्तराधिकार का मुद्दा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक भी है। तिब्बती बौद्ध धर्म की स्वायत्तता और तिब्बती पहचान को बनाए रखने के लिए दलाई लामा और उनके समर्थक चीन के हस्तक्षेप का विरोध कर रहे हैं। दूसरी ओर, चीन इसे तिब्बत पर अपनी पकड़ मजबूत करने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तिब्बती मुद्दे को दबाने के अवसर के रूप में देखता है। यह विवाद आने वाले वर्षों में वैश्विक कूटनीति और तिब्बती स्वायत्तता के लिए महत्वपूर्ण होगा।