विशेष डेस्क/पटना : बिहार की राजनीति पिछले 35 वर्षों (1990-2025) में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों के साथ नाटकीय रूप से बदली है। यह अवधि सामाजिक क्रांति, जातिगत समीकरण, गठबंधन की अस्थिरता और विकास की नई दिशाओं से चिह्नित रही है। आइए बिहार की राजनीति में हुए प्रमुख बदलावों की विस्तृत रिपोर्ट एग्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा से समझते हैं।
सामाजिक क्रांति और लालू प्रसाद यादव का उदय
1990 में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी, जो बिहार की राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ था। यह दौर सामाजिक क्रांति का दौर माना जाता है, जिसमें पिछड़े वर्ग (OBC), दलित, और अल्पसंख्यक समुदायों ने ब्राह्मण और अन्य उच्च जातियों के नेतृत्व को खारिज कर दिया।
मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा ने OBC और SC/ST समुदायों को राजनीतिक रूप से संगठित किया। लालू ने ‘माई-बाप’ (मुस्लिम-यादव-बहुजन-अगड़ा-गरीब) गठजोड़ बनाकर यादव (14.26%) और मुस्लिम (18%) वोट बैंक को मजबूत किया।
जंगलराज का आरोप
1990-2005 तक लालू और उनकी पत्नी राबड़ी देवी के शासन को ‘जंगलराज’ कहा गया, जिसमें अपराध, अपहरण, और पलायन चरम पर था। इस दौरान बिहार की GDP वृद्धि 2-3% से नीचे रही, और निवेशक राज्य से दूर रहे। लालू ने सामाजिक सशक्तिकरण पर जोर दिया, जिससे पिछड़े वर्गों को राजनीतिक आवाज मिली, लेकिन प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी छवि को प्रभावित किया।
नीतीश कुमार का सुशासन-गठबंधन की शुरुआत
2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में NDA (JDU-BJP) ने सत्ता हासिल की। नीतीश ने ‘सुशासन बाबू’ की छवि बनाई, जिसका आधार था बुनियादी ढांचे (सड़क, बिजली) और शिक्षा में सुधार। पहले 10 वर्षों में बिहार की GDP वृद्धि 10% से अधिक रही। नीतीश ने अति-पिछड़ा वर्ग (EBC) और महादलितों को साधने की रणनीति अपनाई। EBC की आबादी, जो 2023 के जाति सर्वेक्षण के अनुसार 36% है, उनकी राजनीति का आधार बनी।
नीतीश ने बार-बार गठबंधन बदले, जिसने उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाए। 2013 में BJP से अलग हुए, 2015 में RJD-कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाया, फिर 2017 में NDA में लौटे। 2022 में फिर महागठबंधन में गए और 2024 में NDA में वापस आए। नीतीश ने विकास कार्यों को बढ़ावा दिया, लेकिन उनकी गठबंधन बदलने की रणनीति ने राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ाया। उनकी लोकप्रियता 60% से घटकर 16-17% हो गई।
तेजस्वी यादव का उभार युवा जोश
2010 के बाद तेजस्वी यादव जैसे युवा नेताओं का उदय हुआ। तेजस्वी ने RJD को नई दिशा दी, खासकर 2020 विधानसभा चुनाव में, जहां RJD 75 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी। उनकी ‘माई-बाप’ रणनीति ने युवाओं और सामाजिक न्याय के मुद्दों को जोड़ा। 2024 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन (RJD, कांग्रेस, वाम दल) केवल 9 सीटें जीत सका, जिससे उनकी कमजोरियां उजागर हुईं। तेजस्वी ने युवा और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को उठाकर नई ऊर्जा दी, लेकिन लालू परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप (लैंड फॉर जॉब केस) उनकी छवि को प्रभावित करते हैं।
प्रशांत किशोर का प्रवेश नया विकल्प
2022 में प्रशांत किशोर ने जन सुराज पार्टी लॉन्च की, जो लालू और नीतीश की 35 साल पुरानी राजनीति से ऊब चुके मतदाताओं को नया विकल्प देने का दावा करती है। प्रशांत ने जातिगत समीकरणों को संतुलित करने की कोशिश की, जिसमें हर समाज को उनकी आबादी के अनुपात में भागीदारी देने का वादा किया। उनकी पार्टी 2025 में सभी 243 सीटों पर लेकिन कम से कम 40 पर महिला उम्मीदवार होंगी। प्रशांत ने दावा किया कि JDU 25 से अधिक सीटें नहीं जीतेगी, जो नीतीश की कमजोर स्थिति को दर्शाता है। जन सुराज ने बदलाव की बयार को हवा दी, लेकिन इसकी जमीनी सफलता 2025 के चुनाव में ही स्पष्ट होगी।
जाति आधारित राजनीति का निरंतर प्रभाव
बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से केंद्र में रही है। यादव, मुस्लिम, EBC, और महादलित समुदायों के वोट बैंक गठबंधनों को प्रभावित करते हैं। 2023 के जाति सर्वेक्षण ने EBC की ताकत को और उजागर किया। प्रशांत किशोर जैसे नए खिलाड़ी जाति के साथ-साथ विकास और सुशासन को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, पारंपरिक गठजोड़ अभी भी प्रभावी हैं।
नीतीश के शासन में सड़क, बिजली, और शिक्षा में सुधार हुआ। उदाहरण के लिए, 2019 में सभी जिलों में सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज खोले गए। बावजूद इसके, बिहार गरीबी, बेरोजगारी, और पलायन में सबसे आगे है। साक्षरता दर और प्रति व्यक्ति आय में भी यह पीछे है। 2005-2020 के बीच विधानसभा में महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी, लेकिन 2020 में केवल 11% महिलाएं ही जीत सकीं।
भविष्य की दिशा त्रिकोणीय मुकाबला !
2025 का चुनाव NDA (JDU-BJP-LJP-HAM), महागठबंधन (RJD-कांग्रेस-वाम दल), और जन सुराज के बीच त्रिकोणीय जंग का गवाह बनेगा। बदलाव, बेरोजगारी, शिक्षा, और सामाजिक न्याय प्रमुख मुद्दे होंगे। नीतीश की सेहत और नेतृत्व पर सवाल, तेजस्वी की युवा अपील, और प्रशांत का सुधारवादी दृष्टिकोण मतदाताओं को प्रभावित करेंगे। हालिया वोटर लिस्ट संशोधन को विपक्ष ने ‘अलोकतांत्रिक’ कहा, जिसने चुनावी माहौल को और गर्माया।
राजनीति पारंपरिक गठजोड़ों के सहारे
पिछले 35 वर्षों में बिहार की राजनीति सामाजिक सशक्तिकरण से शुरू होकर विकास और सुशासन की ओर बढ़ी, लेकिन जातिगत समीकरण और गठबंधन की अस्थिरता इसके मूल में रही। लालू ने सामाजिक क्रांति को गति दी, नीतीश ने विकास को प्राथमिकता दी, तेजस्वी ने युवा जोश जोड़ा, और प्रशांत किशोर बदलाव की नई उम्मीद लाए। फिर भी, बिहार गरीबी, बेरोजगारी, और पलायन जैसी चुनौतियों से जूझ रहा है। 2025 का विधानसभा चुनाव यह तय करेगा कि बिहार की राजनीति पारंपरिक गठजोड़ों के सहारे चलेगी या नई दिशा अपनाएगी।