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Home राजनीति

जानें 44 साल पहले कैसे और क्यों बनी थी BJP?

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
April 6, 2024
in राजनीति, राष्ट्रीय
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नई दिल्ली। 1977 की जनता पार्टी सरकार के पतन के कई कारणों में जनसंघ घटक के लोगों से जुड़ा दोहरी सदस्यता का विवाद शामिल था. 1980 के चुनावों में जनता पार्टी लोकसभा की 32 सीटों पर सिमट कर रह गई. पार्टी की बुरी पराजय के साथ जनसंघ पर आक्रमण और तेज हो गए. बाबू जगजीवन राम ने 25 फरवरी 1980 को पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर को पत्र लिखकर हार की जिम्मेदारी जनसंघ पर डाली.

जनता पार्टी ने दोहरी सदस्यता के सवाल पर अंतिम फैसले के लिए 4 अप्रैल 1980 को बैठक बुलाई. अटल-आडवाणी समझ चुके थे कि बची-खुची जनता पार्टी से छुटकारे और जड़ों की ओर वापसी का समय आ चुका है. उन्होंने घोषणा की कि 5 और 6 अप्रैल को फिरोज शाह कोटला मैदान में नई पार्टी का सम्मेलन होगा.

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जनसंघ से जुड़े लोगों का धैर्य दे चुका था जवाब
जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की 4 अप्रैल 1980 की बैठक में मोरारजी और चन्द्रशेखर का समझौते की कोशिशों का प्रस्ताव 14 की तुलना में 17 वोटों से खारिज हो गया. फैसला हुआ कि जनसंघ के लोगों को जनता पार्टी में बने रहने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सदस्यता छोड़नी होगी. दिलचस्प है कि समझौते की कोशिशों के सबसे बड़े विरोधी जगजीवन राम अगले ही दिन वाई.वी. चव्हाण की अगुवाई वाली कांग्रेस (यू) में शामिल हो गए.

जनता पार्टी में रहते जनसंघ के लोगों की यह आम शिकायत थी कि उनके साथ दोयम दर्जे का सलूक किया जाता है. देश के विभिन्न हिस्सों की यात्रा में लाल कृष्ण आडवाणी और सुंदर सिंह भंडारी अपने कार्यकर्ताओं का मन टटोल चुके थे. सरकार में रहने के दौरान और चुनाव नतीजों के बाद भी जनता पार्टी के अन्य घटकों द्वारा संघ को लगातार निशाने पर लिए जाने से जनसंघ से जुड़े लोगों का धैर्य जवाब दे चुका था.

जनता पार्टी में जनसंघ थी अछूत!
अपनी आत्मकथा में आडवाणी ने लिखा, ‘हमे जनता पार्टी में हरिजनों (राजनीतिक अछूतों) की तरह दूर कर दिया गया. जनता पार्टी के पांच घटक थे- कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल,सोशलिस्ट पार्टी, सी.एफ.डी. और जनसंघ. राजनीतिक दृष्टि से कहें तो इसमें पहले चार द्विज थे, जबकि जनसंघ की स्थिति ‘हरिजन’ की थी. 1977 में उसे (जनसंघ) को स्वीकार करते समय हर्षोल्लास था पर समय बीतने के साथ परिवार में ‘हरिजन’ की उपस्थिति से समस्याएं पैदा होने लगीं. परिवार के सदस्यों (अन्य घटकों से जुड़े तमाम लोगों ने) परिवार में ‘हरिजन’ की उपस्थिति के कारण परिवार ( जनता पार्टी) से नाता तोड़ लिया. हालांकि उनके पास ‘ हरिजन लड़के ‘ के विरुद्ध कोई शिकायत नही थी. वास्तव में वे अकसर उसकी प्रशंसा करते थे लेकिन उसकी जाति को नही भुला पाते थे. उसके माता पिता (संघ) ही उसकी बाधा थे.’

दीनदयाल के साथ गांधी और जयप्रकाश
5 और 6 अप्रैल को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में पंद्रह सौ प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी की उम्मीद थी. विपरीत इसके 3863 प्रतिनिधि शामिल हुए. मंच पर दीनदयाल उपाध्याय के साथ गांधी और जयप्रकाश नारायण की भी तस्वीरें लगी थीं. मंच पर शांतिभूषण, राम जेठमलानी और सिकंदर बख्त ऐसे लोग भी मौजूद थे, जिनका संघ से संबंध नहीं था. प्रतिनिधियों में जानने की उत्सुकता थी कि क्या जनसंघ को फिर जीवित किया जाएगा?

अध्यक्षीय भाषण में अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे नकार दिया , ‘जनता पार्टी की नीतियों और उसके कार्यक्रमों में कोई खामी नहीं थी. असल में लोगों ने राजनेताओं के व्यवहार के खिलाफ वोट दिया. हम जनता पार्टी के अपने अनुभवों का लाभ उठायेंगे. हमें उसके साथ रहे संबंधों पर गर्व है. हम किसी तरह अपने अतीत से अलग नहीं होना चाहेंगे. अपनी नई पार्टी का निर्माण करते हुए हम भविष्य की ओर देखते हैं, पीछे नहीं. हम अपनी मूल विचारधारा और सिद्धांतों के आधार पर आगे बढ़ेंगे.’

कुछ लोगों ने पार्टी को पुराना नाम भारतीय जनसंघ देने का सुझाव दिया लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा प्रस्तावित नाम ‘भारतीय जनता पार्टी’ को विपुल समर्थन मिला. यही स्थिति पुराने चुनाव चिन्ह ‘दिये’ के साथ हुई और नया चिन्ह ‘ कमल ‘ चुना गया.

भाजपा को उदारवादी पार्टी बनाने की सोच
पार्टी के नेताओं का बिहार आंदोलन के वक्त जयप्रकाश नारायण से जुड़ाव हुआ था. बाजपेई और आडवाणी की सोच थी कि हिंदू राष्ट्रवाद और जयप्रकाश नारायण की गांधीवादी सोच में तालमेल बिठाकर भाजपा को एक उदारवादी पार्टी बनाना होगा. 1974 -80 की अवधि में ऐसे तमाम लोग जेपी के आंदोलन और फिर जनता पार्टी के दिनों में अटल-आडवाणी के जरिए जुड़े थे जिनका संघ से कभी संबंध नहीं रहा था.

पार्टी का नया नाम भाजपा, नया निशान कमल और पार्टी के मार्गदर्शक सिद्धांत एकात्म मानववाद के साथ गांधीवाद समाजवाद के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शन के पीछे ऐसे तमाम लोगों को जोड़े रखने की सोच शामिल थी.

कांग्रेस की फोटो कॉपी बन जाने का अंदेशा!
जनसंघ की पहचान कैडर आधारित थी. भाजपा को मास बेस पार्टी बनाने का लक्ष्य तय हुआ. एकात्म मानववाद के साथ गांधीवादी समाजवाद की स्थापना का संकल्प नए क्षेत्रों में विस्तार और समर्थन की उम्मीद में लिया गया. यद्यपि पार्टी के अनेक नेता इससे सहमत नहीं थे. राजमाता विजय राजे सिंधिया ने तो कार्यकारिणी की बैठक में एक लिखित नोट के जरिए अपनी आपत्ति दर्ज की थी.

उन्होंने इससे पार्टी को कांग्रेस की फोटो कॉपी बन जाने का अंदेशा जाहिर किया था. लंबे विचार विमर्श और पार्टी के आर्थिक दर्शन में ” भारतीय अंश ” पर बल दिए जाने के बाद उन्होंने अपना नोट वापस ले लिया था. बात अलग है कि 1984 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ दो सीटों पर सिमटने के बाद पार्टी ने अपनी मूल पहचान की ओर वापसी शुरू कर दी.

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