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Home राष्ट्रीय

एमएसपी की गारंटी का क्या हुआ?

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
May 29, 2022
in राष्ट्रीय, विशेष
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अजीत द्विवेदी

किसानों को अपना आंदोलन खत्म किए हुए साढ़े पांच महीने हो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र सरकार के बनाए तीनों कृषि कानूनों को खत्म करने की घोषणा के साथ ही वादा किया था कि सरकार एक कमेटी बनाएगी, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को कानूनी गारंटी देने के मसले पर विचार करेगी। एक साल तक चले किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाले संयुक्त किसान मोर्चे और सरकारी प्रतिनिधियों को मिला कर एक कमेटी बनाई जानी थी। प्रधानमंत्री ने 19 नवंबर 2021 को एमएसपी और अन्य मामले पर विचार के लिए कमेटी बनाने की घोषणा की थी। फिर किसानों का आंदोलन खत्म कराने के लिए सरकार की ओर से नौ दिसंबर 2021 को दिए गए आश्वासन पत्र में भी इसे शामिल किया गया था। लेकिन साढ़े पांच महीने बीत जाने के बाद भी न कमेटी बनी है और न एमएसपी की कानूनी गारंटी सुनिश्चित की गई है। इस बीच रबी की एक फसल बिक भी गई।

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ऐसा लग रहा है कि सरकार का मकसद किसानों का आंदोलन खत्म कराना था क्योंकि जनवरी 2022 में उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की घोषणा होने वाली थी। सरकार नहीं चाहती थी कि चुनाव के दौरान किसान आंदोलन चलता रहे। सरकार को यह भी पता था कि एक बार किसान आंदोलन समाप्त करके उठ गए तो उसी मसले पर दोबारा आंदोलन करना मुश्किल होगा। इस तरह के आंदोलन काठ की हांडी की तरह होते हैं। हाल के उदाहरण देखें तो अन्ना हजारे से लेकर अरविंद केजरीवाल और रामदेव तक कोई भी दोबारा आंदोलन नहीं खड़ा कर पाया। सो, एक साल से धरने पर बैठे किसानों ने जैसे ही दिल्ली की घेराबंदी खत्म की और आंदोलन समाप्त करने का ऐलान किया वैसे ही सरकार का मकसद पूरा हो गया। यह सही है कि एक साल के आंदोलन में किसान भी थक गए थे लेकिन वे पूरी तरह से एक राजनीतिक दांव का शिकार हुए। तभी आंदोलन खत्म होने के साढ़े पांच महीने बाद भी किसान इस बात के लिए भटक रहे हैं कि एमएसपी की गारंटी देने का कानून कब और कैसे बनेगा।

इस बीच यह विमर्श गढऩे का प्रयास शुरू हो गया है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की जरूरत क्या है, जब किसान एमएसपी से ज्यादा कीमत पर अनाज बेच रहे हैं। इस प्रचार को किसानों को हलके में नहीं लेना चाहिए क्योंकि यह अनायास होने वाला प्रचार नहीं है, बल्कि सुनियोजित तरीके से प्रचारित किया जा रहा है कि मंडियों में किसानों को एमएसपी से ज्यादा गेहूं की कीमत मिल रही है। पंजाब और हरियाणा से कई ऐसी लंबी लंबी रिपोर्ट्स अखबारों में छपीं है, जिनमें बताया गया कि किसानों ने अपने आढ़तियों की मदद से एमएसपी से ज्यादा कीमत पर गेहूं बेचा। अव्वल तो किसानों को ज्यादातर जगहों पर एमएसपी से ज्यादा दाम नहीं मिले। जहां मिले वहां प्रति क्विंटल 2,015 रुपए की एमएसपी से पांच से 15 रुपए ज्यादा मिले। इसके अलावा हकीकत यह है कि रूस और यूक्रेन में चल रहे युद्ध की वजह से गेहूं का निर्यात प्रभावित हुआ है, जिसकी वजह से निजी कारोबारियों ने जम कर गेहूं की खरीद की और उसकी वजह से गेहूं की कुछ ज्यादा कीमत मिल गई। हर साल या हर फसल के लिए ऐसी स्थिति नहीं होने वाली है।

लेकिन इस आधार पर यह प्रचार किया जा रहा है कि एमएसपी की जरूरत ही क्या है, जब निजी कारोबारी उससे ज्यादा दाम देकर अनाज खरीद रहे हैं। असल में यह किसानों को मुसीबत में डालने वाला प्रचार है। किसानों को इस झांसे में नहीं आना चाहिए कि उनको खुले बाजार में एमएसपी से ज्यादा कीमत मिल जाएगी। यह असल में मंडियों का सिस्टम कमजोर करने और उसे खत्म करने की योजना का हिस्सा है। जब तक मंडियां हैं और एमएसपी का सिस्टम है तभी तक बाजार की ताकत के सामने किसानों की सुरक्षा सुनिश्चित हो पाएगी। इनके खत्म होते ही किसान निजी कारोबारियों के रहमोकरम पर होंगे। फिर निजी कारोबारी अपने हिसाब से अनाज की कीमत तय करेंगे और मनमाने तरीके से खरीद करेंगे। खरीद से पहले अनाज की क्वालिटी भी वे खुद तय करेंगे।

किसानों के आंदोलन और राजनीतिक दबाव में केंद्र सरकार ने आवश्यक वस्तु कानून को खत्म करने वाले कानून को निरस्त कर दिया। इसके बावजूद उसका खतरा किसानों के सामने मौजूद है। अगर निजी कारोबारियों ने बड़ी मात्रा में कोई अनाज खरीद कर उसका भंडार किया और उसी फसल को अगली सीजन से पहले अपने गोदाम में रखा अनाज बाजार में निकाल दिया तो क्या होगा? फिर तो अनाज की कीमत बुरी तरह से गिरेगी और किसान को सस्ती कीमत पर अनाज बेचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। उस समय मंडियों की व्यवस्था और न्यूनतम समर्थन मूल्य से ही उनका बचाव हो पाएगा। एमएसपी की जरूरत इस वजह से भी है कि देश के ज्यादातर राज्यों में मंडी और सरकारी खरीद का सिस्टम नहीं है। जैसे बिहार में मंडियों की व्यवस्था खत्म कर दी गई है और किसान निजी कारोबारियों की खरीद पर ही निर्भर हैं। ऐसी जगहों पर किसानों को अच्छी कीमत नहीं मिल पाती है। अगर एमएसपी की गारंटी का कानून बने और यह व्यवस्था हो कि मंडी में या मंडी से बाहर कहीं भी कोई भी कारोबारी एमएसपी से कम दाम पर अनाज नहीं खरीद पाएगा तभी किसानों का बचाव संभव है।

एक बार एमएसपी की गारंटी के कानून पर चर्चा के लिए कमेटी बने और उस पर विचार विमर्श शुरू हो तो इससे जुड़े दूसरे मुद्दे भी उठेंगे। एमएसपी की कानूनी गारंटी से जुड़े दो और मुद्दे खास हैं। एक तो एमएसपी तय करने का तरीका और दूसरा एमएसपी कानून के दायरे में आने वाली उपज की संख्या बढ़ाना। एमएसपी तय करने के मामले में बरसों से एमएस स्वामीनाथन फॉर्मूले की चर्चा होती है। उन्होंने एक फॉर्मूला बताया है, जिसमें उन्होंने खेती में लगने वाली लागत यानी खाद, बीज, सिंचाई आदि के साथ साथ किसान और उसके परिवार का मेहनताना और जमीन का किराया भी शामिल किया है। ए2 प्लस एफएल और सी2 फॉर्मूला सबसे व्यापक आधार है, जिस पर एमएसपी तय की जानी चाहिए। इसके अलावा अभी सरकार 23 फसलों की ही एमएसपी तय करती है। किसान इसे बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। यह भी ध्यान रखने की बात है कि प्रधानमंत्री ने किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था। उसकी समय सीमा निकल गई है। इस दौरान किसानों की आय की बजाय कृषि लागत में बढ़ोतरी हुई है। इन सभी मसलों पर सार्थक पहल तभी हो सकती है, जब सरकार अपने वादे के मुताबिक एमएसपी पर विचार करने वाली कमेटी बनाए, उसमें संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधियों को शामिल करके सकारात्मक चर्चा शुरू करे। यह भी जरूरी है कि सरकार सिर्फ कारोबारियों या उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखते हुए कृषि कानूनों पर चर्चा न करे।

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