कौशल किशोर
नई दिल्ली: मुजफ्फरपुर न्यायालय में अधिवक्ता सुधीर ओझा ने नेहरू-गांधी परिवार के तीनों ही सदस्यों के खिलाफ शिकायत दर्ज किया है। इसमें पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज कर कानूनी कार्यवाही करने की मांग की गई है। रांची स्थित एससी/एसटी थाने में अंजली लकड़ा की ओर से कांग्रेस के दोनों पूर्व अध्यक्षों के विरूद्ध अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) के अपमान का संज्ञान लेकर 1989 के कानून के तहत कार्रवाई को जरूरी माना गया है। भाजपा सांसदों ने भी सोनिया गांधी के खिलाफ एक नोटिस राज्य सभा के सभापति को भेजा है। विशेषाधिकार हनन का यह मामला संसद के बजट सत्र के पहले दिन से सुर्खियों में है।
जनवरी के अंत में संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित कर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस बजट सत्र का श्री गणेश किया था। करीब एक घंटे के इस अभिभाषण पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के लिए “बेचारी” (पूअर थिंग) शब्द का प्रयोग किया था। साथ ही अंत में मुश्किल से भाषण पढ़ते हुए बहुत थकी हुई थी जैसी टिपण्णी कर उनके बीमार होने का भाव प्रकट किया था। राष्ट्रपति भवन की ओर से उसी दिन इसका प्रतिकार भी किया गया।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत सत्तापक्ष के तमाम अन्य नेताओं ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त किया है। राष्ट्रपति पर ओछी टिपण्णी संसदीय लोकतंत्र की गरिमा के अनुकूल नहीं है। इस तरह से नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों द्वारा संसदीय राजनीति की गरिमा भूलने का नतीजा देश की सबसे पुरानी पार्टी की तबूत में आखिरी कील ठोकने का प्रयास होगा। निश्चय ही यह भारतीय लोकतंत्र के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है।
भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती है कि आज एक आदिवासी महिला “मेरी सरकार” कह कर देश की उपलब्धियों को गिनाती हैं। हालांकि ओडिशा के आदिवासी बहुल इलाके से आने वाली द्रौपदी मुर्मू स्वयं ही अपनी हिंदी के उच्चारण का दोष स्वीकार कर उदारता का परिचय देती हैं। गैरहिंदीभाषी क्षेत्र के लिहाज से इसे दोषपूर्ण नहीं मानना चाहिए। उनकी बात समझ में आ रही थी। इसके साथ ही उनका यह भाषण सुनते हुए मुझे पूर्व लोक सभा स्पीकर मीरा कुमार की याद आ रही थी।
इन दोनों ही लोक सेवकों ने वंचित वर्ग का प्रतिनिधित्व बड़े जतन से किया है। राहुल गांधी की तरह संविधान लहराने के बदले उन्होंने इसके निर्माताओं को सम्मान से याद किया। इसके लागू होने के बाद 75 वर्ष पूरा होना एक बड़ी उपलब्धि है। इसके साथ ही उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी बड़े सम्मान से याद किया। इन सभी तथ्यों को एक ही बात दोहराना कह कर कोई अपना ही उपहास करता है।
विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इस अभिभाषण को उबाऊ (बोरिंग) कह कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त किया। सोनिया गांधी की रक्षा में खड़ी होकर प्रियंका गांधी ने भी उन्हीं बातों को दोहराया है। चूंकि ये सभी टिपण्णियां संसद की कार्यवाही से बाहर की बात है, इसलिए कानूनी प्रक्रिया संभव है।उन्हें इस तरह की किसी भी ओछी टिपण्णी से बच कर आम जनता की सेवा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके बिना सत्ता हासिल करना मुमकिन नहीं है।
होम रुल लीग के नेताओं ने 1895 में संविधान की मांग किया था। अंग्रेजी हुकुमत ने 1919 में पहली बार संविधान लागू किया। इसके बाद से राष्ट्राध्यक्ष द्वारा केन्द्रीय विधानमंडल को संबोधित करने की परम्परा जारी है। सन 1950 में लागू हुए संविधान के अनुच्छेद 86 और 87 में इसका विधान किया गया। साल में तीन बार ऐसा करने का विधान दोहराव रोकने के लिए 1951 हुए पहले संशोधन के तहत साल के पहले संसद सत्र तक ही सीमित किया गया। सही मायनो में यह लोकतांत्रिक अलंकरण है।
बजट सत्र से शुरु होने वाली इस प्रक्रिया से क्या दोहराव खत्म करना मुमकिन है? इस सवाल की अनदेखी करने वाले अपना ही दृष्टिदोष उजागर कर रहे हैं। इस पर जवाब देते हुए प्रधान मंत्री व अन्य नेताओं ने अपनी जिम्मेदारी निभाई है। इसे देख कर देश अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से आगे भी चूकने वाला नहीं है।
राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार की प्रस्तुति होती है। सरकार की नीति बताने के अलावा भव्यता व औपचारिकता इसकी पहचान है। इस अवसर पर संसद सदस्यों से ऐसी किसी बात अथवा कार्य की आशा नहीं की जाती है, जिससे इसकी गरिमा भंग हो। सदन में विलंब से पहुंचना अथवा बीच में उठ कर चले जाने पर भी सभापति को ऐसे सदस्यों के प्रति कार्यवाही का अधिकार है। अभिभाषण पर शालीनता से प्रतिक्रिया व्यक्त करने और धन्यवाद का प्रविधान है।
राष्ट्रपति पर कोई व्यक्तिगत टिपण्णी करने का औचित्य ही नहीं है। एक अरसे से संसद के सदस्य रहे नेहरू-गांधी परिवार के लोग इस बात से वाकिफ नहीं होंगे, यह मानना मुमकिन नहीं है। सोनिया जी जोखिम उठाते हुए आदिवासी समुदाय से आने वाली राष्ट्रपति के प्रति अपनी भावना जाहिर कर रही हैं। राहुल और प्रियंका इसमें उनके साथ हैं। देश के आम लोग भी ये सब समझ रहे हैं। इसके बाद दिल्ली में हुए विधान सभा के चुनाव पर भी इसका पड़ा। कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली।
लोक सेवा और तपस्या के बदले पूर्वजों के बूते मैदान में डटे लोग इच्छापूर्ति नहीं होने पर कुंठित हो जाते हैं। सत्ताप्राप्ति की साधना सिद्ध नहीं होने की वेदना छिपा लेना कोई आसान काम नहीं है। अपनी कुंठा जाहिर करने में लगे लोग विधवा विलाप की राजनीति को औजार की तरह इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकते हैं। ऐसी प्रवृत्ति देशहित में नहीं है।
भारत सरकार का प्रतिनिधित्व आदिवासी व ओबीसी समुदाय के हाथों में होने से दुःखी लोग सामंतवादी मानसिकता के शिकार हैं। भारतीय गणतंत्र 75 साल बाद भी इस दोष को दूर नहीं कर सका है। इसके जारी रहने पर विकसित भारत का सपना साकार नहीं हो सकता है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की लोक सेवा जाहिर है। इसलिए आने वाले समय में नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों की मुश्किलें बढ़ सकती है। दूसरी ओर शक्ति सिंह गोहिल जैसे कांग्रेसी सांसद संसदीय राजनीति के अनुकूल आचरण से प्रेरित भी करते हैं।