कौशल किशोर
नई दिल्ली: नए संसद भवन में नई लोक सभा पहले दिन से ही विपक्ष के नेता से सुसज्जित होने लगा। इसका अभाव एक दशक तक देश ने झेला है। गांधीवादी सफेद खादी की धज में सजे राहुल गांधी नेहरू गांधी परिवार की परंपरा को याद दिलाते हैं। फोटो शूट के पहले शालीन सत्र के बाद धुआंधार पारी की शुरुआत करते प्रतीत हुए। उनके मुरीद अहलादित हैं। सामने वाले को मूर्छित मान कर खूब प्रसन्न भी। हालांकि उनके इस वक्तव्य के तेरह टुकड़ों को संसदीय कार्यवाही से निकाल दिया गया है। उन्होंने लोक सभा अध्यक्ष को खत लिख कर इसका प्रतिकार किया। इस पर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इन टुकड़ों को साझा करने की चुनौती भी उनके सामने पेश है।
लेकिन अगले ही दिन राहुल सामान्य परिधान और विवादास्पद मुद्दों की श्रृंखला के साथ अपने मूल स्वरूप में लौट आए। उन्होंने जेल में बंद अपने एक सहयोगी का नाम लिए बगैर जिक्र भी किया। आज राहुल गांधी लोक पाल और सीबीआई निदेशक ही नहीं बल्कि चुनाव आयुक्त, सूचना आयुक्त और सतर्कता आयुक्त जैसे अहम पदों पर नियुक्ति करने वाले पैनल के सदस्य हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिल गया है। ऐसा लगता है कि सत्ता से सिर्फ एक कदम की दूरी पर हैं। अगले पांच वर्ष तक एक डग बढ़ना आसान नहीं है।
सत्ता को 2013 से ही जहर बताने वाले राहुल गांधी पिछले साल कश्मीर पहुंच कर सूफी हो गए थे। केन्द्र सरकार की लेखापरीक्षा व व्यय समिति में शामिल होकर उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए हैं। सरकार के औपचारिक शिष्टाचार में उन्हें 7वां स्थान प्राप्त हो गया है। साथ ही उन्हें नई संसद में कर्मचारियों और सुविधाओं से युक्त एक सुसज्जित कार्यालय भी मिला है। विपक्ष के नेता के रूप में उन्हें बहस शुरू करने और प्रधानमंत्री के भाषण का जवाब देने का विशेषाधिकार भी प्राप्त हो गया है। उनके पिता और माता दोनों ही देश के शीर्ष सार्वजनिक कार्यालय को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से चलाने से पहले इसी पद पर आसीन थे।
पप्पू की पुरानी छवि को धोने के लिए उन्होंने देश के विभिन्न क्षेत्रों की लंबी यात्रा का मार्ग चुना। दक्षिण से उत्तर की ओर लंबी पदयात्रा ने उन्हें दार्शनिक या सूफी की नई छवि बनाने में मदद की। लंबी दाढ़ी के साथ कश्मीर घाटी पहुंचने पर ऐसा हुआ था। पिछले दो वर्षों में दो यात्राओं की श्रृंखला ने उन्हें मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने और संसद में पार्टी की ताकत बढ़ाने में मदद की है। चुनाव के बाद भी आज वह पूरी तरह से चुनावी मोड में हैं। ऐसा लगता है कि जब तक वे सत्ता में नहीं हैं, तब तक इसे जारी रखेंगे।
विपक्ष के नेता पेपर लीक के खिलाफ सड़कों पर उतरे छात्रों और कानूनी गारंटी के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करते किसानों के साथ खड़े होते हैं। अनियंत्रित महंगाई और बेरोजगारी के अलावा उन्होंने जाति जनगणना की मांग के साथ दलितों का मुद्दा भी उठाया। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर उनके औपचारिक जवाब में महिलाएं और आदिवासी भी शामिल थे। यह साफ हो गया कि कांग्रेस नेता ने बिना किसी उद्देश्य के यह गैलरी पेश की। इस तरह उन्होंने देश के सामने मौजूद गंभीर चुनौतियों को महत्वहीन बनाने का ही काम किया है।
उनके पहले संबोधन का असर जनता और मीडिया में साफ तौर पर देखा जा सकता है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव और विभिन्न दलों के अन्य सांसदों को मजबूती से खड़े होकर अपनी चिंताओं को उठाने के लिए मजबूर किया। उनके भाषण से असंसदीय संदर्भ लोक सभा की कार्यवाही के रिकॉर्ड से हटा दिए गए। लेकिन अभी भी यह संसद टीवी और कई अन्य मीडिया चैनल के रिकार्ड में मौजूद है।
उन्होंने भगवान शिव के अहिंसक त्रिशूल को परिभाषित किया। गुरु नानक देव जी, ईसा मसीह, आदि की अभय मुद्रा का उल्लेख कर कांग्रेस के चुनाव चिह्न हाथ से इनकी तुलना करते हैं। उन्होंने कहा, “शिवजी कहते हैं कि डरो मत और दूसरों को डराओ मत, अभय मुद्रा दिखाते हैं। अहिंसा की बात करते हैं और अपना त्रिशूल जमीन में गाड़ देते हैं। जो लोग खुद को हिंदू कहते हैं, वे 24 घंटे हिंसा, नफरत और झूठ की बात करते रहते हैं।” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदुओं की ओर से इसका जवाब दिया। फिर राहुल गांधी ने कहा, “आप हिंदू हो ही नहीं। हिंदू धर्म में साफ लिखा है कि आपको सत्य का साथ देना चाहिए और उससे पीछे नहीं हटना चाहिए। सत्य से डरना नहीं चाहिए और अहिंसा हमारा प्रतीक है।” अहिंसक त्रिशूल और निर्भयता के इस विचार को 1909 में दशहरा के दिन लंदन स्थित इंडिया हाउस में रामायण व महाभारत के संदर्भ में सावरकर और गांधी द्वारा शुरू की गई बहस का विस्तार माना जा सकता है। इसी दोहन की प्रक्रिया में अयोध्या मक्खन की तरह उभरता है।
उसी वर्ष लंदन से लौटते समय यात्रा के दौरान महात्मा गांधी ब्रिटिश संसद को वेश्या के रूप में परिभाषित करते हैं। उन्होंने सत्याग्रह ब्रिगेड की महिला पार्टी को खुश करने के लिए अपनी पुस्तक हिंद स्वराज के संशोधित संस्करण में इसे संपादित किया था। लेकिन वेश्यालय के उनके संदर्भ को जानने के लिए इसके पीछे की कहानी समझने की जरूरत है। ब्रिटिश कानून निर्माताओं ने बैरिस्टर एमके गांधी और उनकी जीवनी लेखक जोसेफ डोक के साथ कैसा व्यवहार किया? इस सवाल का जवाब भी इस पड़ताल में है। बीसवीं सदी में महात्मा गांधी ने एक औसत हिंदू को कायर और एक औसत मुसलमान को गुंडा बताया था। इस पर राहुल का गांधी के साथ विरोधाभास साफ है।
अपने इन निष्कर्षों के पक्ष में राहुल कोई भी कारण और स्पष्टीकरण नहीं दे पाते हैं।
भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह संसद में दोनों हाथ जोड़ कर सुरक्षा की मांग करते हैं। अब नेहरू गांधी परिवार का प्रभाव बढ़ने लगा है। राहुल सदन का नेतृत्व कर रहे हैं और बाकी लोग जाल में फंस गए हैं। 18वीं लोकसभा के पहले सत्र के खत्म होने से पहले कानून निर्माताओं ने यह सुनिश्चित कर दिया कि सदन में अब संवाद संभव नहीं है। भारतीय राष्ट्र के संस्थापकों की गौरवशाली परंपरा शोर और कोलाहल के बीच एकालापों की अन्तहीन श्रृंखला में सिमट गई। इंटरनेट मीडिया की खुराक के लिए संसद में आज संवाद के अलावा सब कुछ संभव है।
भाजपा के टिकट पर पहली बार सांसद बनी बांसुरी स्वराज ने संसद में राहुल गांधी के खिलाफ शिकायत दर्ज किया है। विपक्ष के नेता ने स्पीकर को पत्र लिखकर उनके पहले औपचारिक भाषण के हटाए गए हिस्सों पर आपत्ति जताई। इन हिस्सों को अपने सामान्य प्रेस कॉन्फ्रेंस में रिकॉर्ड नहीं किया ताकि कोई अदालत में मामला दर्ज न कर सके। पिछली बार उन्हें सदन के बाहर की गई आपत्तिजनक टिप्पणियों के कारण काफी दिक्कत हुई थी। इस रणनीति के साथ राहुल प्रतीकों के साथ खेल रहे हैं। ऐसा जारी रख कर क्या व्यापक जमीन हासिल कर सकते हैं? यह सवाल अब देश के सामने है।
पहली बार सांसद बने दो अन्य लोग भी ध्यान में रखने योग्य हैं। खालिस्तानी अलगाववादी अमृतपाल सिंह और कश्मीरी अलगाववादी इंजीनियर राशिद चुनाव जीते हैं। अलगाववाद के दोनों पर्याय जेल से ही चुनाव लड़े हैं। शेख अब्दुल राशिद ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला को बारामुल्ला में हराया है। पंजाब में सबसे बड़ी जीत अलगाववाद की इस राजनीति को आवाज दे रही है, जिसकी रिपोर्ट खडूर साहिब सीट से आई थी। यहां से अमृतपाल सिंह की जीत मिली। दुख की बात है कि अलगाववाद की राजनीति के इस नए संस्करण पर ज्यादातर कानून निर्माताओं ने चुप्पी साधना मुनासिब माना है।
प्रतिपक्ष के नेता ने पेपर लीक और शिक्षा के संकट का समाधान खोजने के लिए सरकार का सहयोग करने की बात कही। क्या किसी ने भी उनकी बात पर विश्वास किया? ग्रामीण आबादी का आर्थिक विकास, स्वास्थ्य सेवा व मौद्रिक नीति में वैश्विक संस्थानों की दखल एवं वैश्विक, राष्ट्रीय व स्थानीय चुनौतियों के सामने सरकार की जवाबदेही जैसे मुद्दे बहस से बाहर रह गए हैं। जनहित के इन मुद्दों पर अन्य सभी सांसदों ने उनका अनुसरण ही किया है।
संसद के आठ से दस प्रतिशत सदस्य सार्थक और विवेकपूर्ण बातें करने के लिए जाने जाते हैं। लेकिन ऐसी अधिकांश आवाजें काफी हद तक उपेक्षित और अनसुनी ही रहती है। आज ये लोग विधिनिर्माताओं के क्लब के मूकदर्शक बनकर रह गए हैं। ऐसी स्थिति में सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों को साथ बैठकर दरिद्रता दूर करने के लिए संसदीय संवाद की गौरवशाली परंपरा को बहाल करना चाहिए। इस विषय में प्रयास करते हुए नेशनल हेराल्ड के संपादक चेलापति राव का दुखांत याद रखना चाहिए।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार हैं)