कौशल किशोर
नई दिल्ली: आज भारत छोड़ो आंदोलन के 82 साल पूरे हो रहे हैं। उस विशाल जनांदोलन में भाग लेने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को फिर से याद करने की जरूरत है। अपने देश में पहला वाकया था, जब अरुणा आसफ अली जैसी देशभक्त मुंबई में तिरंगा फहराती हैं और पुलिस आंसू गैस का प्रयोग करती है। डा. जी.जी. पारिख जैसे देशभक्तों की नजर में इस दिन की मान्यता 15 अगस्त से अधिक है। भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने वाले शेष बचे क्रांतिकारियों में डॉ. पारिख प्रमुख हैं। उनके साथ इस अगस्त के आरंभ से विचारों का आदान-प्रदान चल रहा है। हमारी चर्चा के केन्द्र में परिपक्व अवस्था में मनोभ्रंश से निपटने के उपाय जैसे विषय हैं। उन्होंने बरसात का वह दिन याद किया, जब फैशन स्ट्रीट के बगल में स्थित गोवालिया टैंक मैदान (अगस्त क्रांति मैदान) में आंसू गैस छोड़ने पर अपने चेहरे को रूमाल से ढक लिया था। स्वतंत्रता सेनानियों के इस वर्ग के कारण सन 1942 के अगस्त से जुड़े कई मुहावरे गढ़े गए। आधुनिक इतिहास का यह एक महत्वपूर्ण दिन है।
पिछले साल मुंबई प्रेस क्लब ने उन्हें रेड इंक पुरस्कार समारोह में आमंत्रित किया था। वहां उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों के अनुभवों को साझा करते हुए बेहतरीन व्याख्यान भी दिया। एक शाम स्वयं को परिस्थितियों का ही उत्पाद बताने वाली वही बात दोहरा रहे थे। कुछ हद तक इसे विस्तार देने का जतन करते हैं। दरअसल भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल में बंद रहे स्वतंत्रता सेनानियों का आजादी के बाद की राजनीति पर असर है। आज सार्वजनिक हस्तियों में सबसे दुर्लभ रत्न यही हैं। सौ साल के यशस्वी डॉक्टर उनमें से एक हैं। आज उनकी याददाश्त अपेक्षा से कहीं अच्छी है।
पिछले कई दशकों से सामाजिक मुद्दों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अटल मानी जाती है। डॉ. पारिख याद करते हैं, कैसे स्वतंत्र भारत में नेतृत्व ने महात्मा गांधी के साथ विश्वासघात किया। उन्होंने कहा था “हमें बताया जाता रहा कि स्वतंत्रता के बाद शासक जनता के सेवक होंगे। लेकिन उन्होंने अंग्रेजों की नकल करना शुरू कर दिया और यही पहला विश्वासघात था। ऐसा नहीं है कि हम नेहरू विरोधी हो गए, लेकिन हमें बुरा लगा कि गांधी को इतनी जल्दी भुला दिया गया।”
डॉ. गुणवंतराय गणपतलाल पारिख को जीजी के नाम से ज्यादा जाना जाता है। उनका जन्म 30 दिसंबर 1924 को वढवान में भोगावो नदी के तट पर हुआ था। यह साबरमती की एक सहायक नदी है। उनका जन्मस्थल गुजरात के सुरेन्द्र नगर जिला मुख्यालय से 3 किलोमीटर दूर स्थित है। उन्होंने 1950 में जी.एस. मेडिकल कॉलेज, परेल (मुंबई) से चिकित्सा विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की और डॉ. बिधान चंद्र रॉय की परंपरा को जारी रखते हुए प्रैक्टिस शुरू किया। प्रत्येक कार्य दिवस पर उन्होंने मरीजों से मिलने का कर्तव्य अनुष्ठान की तरह जारी रखा है। पिछले 75 वर्षों से जारी यह अभ्यास उन्हें चिकित्सा विज्ञान के सबसे पुराने चिकित्सक के तौर पर स्थापित करता है।
डॉक्टर की डिग्री हासिल करने से पहले ही जीजी अखिल भारतीय छात्र कांग्रेस (एआईएससी) के संस्थापक सदस्य थे। इसे आज एनएसयूआई (भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ) के रूप में जाना जाने लगा है। इसमें 1943 से 1947 के बीच पूरी तरह सक्रिय रहे। भारत छोड़ो के दिनों में जब अधिकांश कांग्रेस नेता जेल में बंद हुए तो बॉम्बे प्रदेश कांग्रेस कमेटी (बीपीसीसी) कोमा में चली गई थी। ऐसी स्थिति में एआईएससी ने एक परिपक्व राजनीतिक दल की तरह काम किया था। वे 1947 में छात्र कांग्रेस की बॉम्बे इकाई के अध्यक्ष हुआ करते थे। इसके बाद उन्होंने ट्रेड यूनियन आंदोलन और उपभोक्ता मामले की सहकारी समितियों को बढ़ावा देने में अपना योगदान देते हैं।
जीजी याद करते हैं, कैसे वह 9 अगस्त 1942 को अपने छात्रावास के सुरक्षित क्षेत्र में जाने से पहले प्रार्थना समाज से होकर भागने में सफल हुए थे। स्वयंसेवी छात्रों के समूह के साथ धरना देने की एक अन्य घटना के दौरान उन्हें चर्चगेट स्टेशन पर गिरफ्तार किया गया था। उन्हें वर्ली अस्थायी जेल (डब्ल्यूटीपी) में भेज दिया गया था। विरोध प्रदर्शन की सबसे अच्छी सीख उनकी किशोरावस्था के अंतिम दौर में दस महीने लंबे कारावास में मिली थी। 23 अक्टूबर 1975 को आपातकाल के दौरान जॉर्ज फर्नांडिस के साथ उन्हें फिर से गिरफ्तार किया गया। इस तरह भारत छोड़ो आंदोलन और आपातकाल जैसे दोनों ही तानाशाही कृत्यों में शिकार होने वाले दुर्लभ व्यक्ति हैं। पिछले साल जीजी चौपाटी बीच और अगस्त क्रांति मैदान के बीच भारत छोड़ो मार्च के वार्षिकोत्सव के दौरान खबरों में भी रहे थे।
डॉ. पारिख 42 के क्रांतिकारी क्लब के ही अन्य सदस्यों के साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। उन्होंने कभी राजनीतिक शक्तियाँ हासिल करने की कोशिश नहीं की। अपना पूरा ध्यान उन मूल्यों और रचनात्मक कार्यों पर केंद्रित रखा, जिन्हें गांधीजी पिछली सदी में बढ़ावा देने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। उनका मानना है, वास्तविक सामाजिक सुधार राजनीतिक शक्ति के माध्यम से हासिल नहीं किया जा सकता है। यह तो केवल नैतिक अधिकार के माध्यम से ही संभव है। इसका अधिकार महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग के पास था। वह उस नैतिक अधिकार का उल्लेख करते हैं, जो लोगों के बीच कड़ी मेहनत के बिना उत्पन्न नहीं होता। उनका अपना लंबा जीवन गांधीवादी जीवनशैली का प्रतीक साबित होता है।
यूसुफ मेहर अली उनकी प्रेरणा के शीर्ष स्रोत हैं। पिछली सदी के शक्तिशाली नारे गढ़ कर उन्होंने इतिहास रचा। साइमन! वापस जाओ और अंग्रेजों, भारत छोड़ो। वह मुंबई में छात्रों के बीच खूब लोकप्रिय नेता हुआ करते थे। यूसुफ मेहर अली सेंटर के संस्थापकों में से जीजी प्रमुख हैं। इसे 1961 में अनौपचारिक रूप से शुरू किया गया था। बाद में 1966 में भारत के उपराष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन द्वारा औपचारिक उद्घाटन के साथ विधिवत शुरु किया गया था। यूसुफ मेहर अली, आचार्य नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया, जे.पी., कर्पूरी ठाकुर और उषा मेहता जैसे समाजवादियो का उनके व्यक्तित्व पर भी प्रभाव है। सामाजिक सद्भाव से जुड़े कुछ सवालों पर उनके विचार और कार्य गणेश शंकर विद्यार्थी का बलिदान याद दिलाती है।
जीवन और कार्यों में अपने नाम के अर्थ को परिभाषित करना उनके तमाम गुणों में से एक है। जीजी का मतलब होता है, गुणवंतराय गणपतलाल जानना चाहिए। उनके नाम के तीन पदों को क्रमशः गुणवानों में अग्रणी, समूह के नेता का पुत्र और परीक्षक के रूप में परिभाषित किया जाता है। इस सतायु स्वतंत्रता सेनानी का जीवन भी प्रेरणादायक व अनुकरणीय है।