प्रकाश मेहरा
एग्जीक्यूटिव एडिटर
नई दिल्ली। भारत की मार्च महीने की खुदरा मुद्रास्फीति लगभग छह साल के निम्नतम स्तर 3.34 फीसदी पर आ गई। इससे यह लगभग निश्चित हो गया है कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) मौद्रिक नीति समिति अगली कुछ बैठकों में अपने बैंकों की ऋण दर में आगे और भी कटौती करेगा। फरवरी और अप्रैल में रेपो दर में पहले ही दो बार 25 आधार अंकों की कटौती की जा चुकी है। इससे यह दर 6.5 फीसदी से घटकर छह फीसदी हो गई है, जोकि वैश्विक व्यापार में छाई अनिश्चितताओं के बीच विकास पर जोर देने का संकेत है क्योंकि गैर-प्रमुख (नॉन-कोर) मुद्रास्फीति को लेकर आरबीआई की चिंताएं कम हो रही है। पिछले चार महीनों में सब्जियों की कीमतें अक्टूबर 2024 के उच्चतम स्तर से काफी नीचे आ गई हैं। अक्टूबर 2024 में खाद्य मुद्रास्फीति 10.87 फीसदी के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी, जो नवंबर 2013 के बाद से अधिकतम थी।
नौकरियों, आय एवं उपभोग में बढ़ोतरी !
मार्च में खाद्य मुद्रास्फीति घटकर 2.69 फीसदी रह गई, जिसमें सब्जियों (-7.04 फीसदी), अंडों (-3.16 फीसदी) और दालों (-2.73 फीसदी) की कीमतों में आई कमी शामिल है। रेपो दर में कटौती का असर बैंक ऋणों पर ब्याज दरों में कमी के रूप में दिखने लगा है। सामान्य दिनों में, इससे व्यवसायों में ज्यादा पूंजी का प्रवाह होगा और नौकरियों, आय एवं उपभोग में बढ़ोतरी होगी। लेकिन यह कदम ऐसे वक्त में आया है जब निवेशकों का विश्वास डगमगा रहा है: अमेरिका-जनित टैरिफ संबंधी अनिश्चितता निर्यातकों को, निकट भविष्य में मांग में कमी आने की चिंता के बीच, नए बाजारों की तलाश करने के लिए मजबूर कर रही है क्योंकि अमेरिका वित्तीय वर्ष 2022 से भारत की व्यापारिक वस्तुओं का सबसे बड़ा खरीदार रहा है। मुद्रास्फीति में कमी से घरेलू उपभोग और देश के सुस्त औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी हो सकती है।
खाद्य मुद्रास्फीति का आर्थिक प्रभाव !
हमारे अर्थशास्त्र विशेषज्ञ के तौर पर प्रकाश मेहरा कहते हैं कि “खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए सरकार को आयात नीतियों को एकरूप बनाना, फसल पूर्वानुमान के लिए उपग्रह और GIS तकनीक का उपयोग करना, और आयात शुल्क को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है”
अर्थशास्त्र विशेषज्ञ मानते हैं कि “खाद्य मुद्रास्फीति की अस्थिरता से CPI और WPI में असंतुलन आ सकता है, जिससे नीतिगत निर्णय प्रभावित हो सकते हैं। CPI में खाद्य वस्तुओं का वजन लगभग 46% है, जबकि WPI में यह 24% है, जो दर्शाता है कि खाद्य मुद्रास्फीति उपभोक्ता व्यय पर अधिक प्रभाव डालती है।”
खाद्य पदार्थों की कीमतों में आई भारी गिरावट !
लेकिन नीति-निर्माताओं को खाद्य पदार्थों की कीमतों में आई भारी गिरावट के बारे में ज्यादा चिंतित होना चाहिए, क्योंकि इसका मतलब यह है कि किसानों की आय कम होगी, जिसका सीधा असर ग्रामीण उपभोग से जुड़ी मांग पर पड़ेगा। पिछले दिसंबर में, सरकार ने आंध्र प्रदेश के कुरनूल में आठ टन टमाटर खरीदा था, क्योंकि स्थानीय बाजार में कीमतें गिरकर एक रुपये प्रति किलोग्राम हो गई थीं। इस साल फरवरी में महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में टमाटर की कीमतों में 80 फीसदी की गिरावट की वजह से किसानों को अपनी उपज को फेंकना पड़ा या फिर उसे पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल करना पड़ा। खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय द्वारा 2022 में किए गए एक अध्ययन में देश में फसल के बाद प्रतिवर्ष 1.52 ट्रिलियन रुपये का नुकसान होने का अनुमान लगाया गया है, जोकि फसल और क्षेत्र के आधार पर 6 फीसदी से लेकर 15 फीसदी के बीच है।
व्यापक कमी और किसानों का बाजार तक पहुंच न होना !
इसकी वजह शीत भंडारण सुविधाओं एवं शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं के लिए तापमान नियंत्रित परिवहन की व्यापक कमी और किसानों का बाजार तक पहुंच न होना है। कुल 86 फीसदी भारतीय किसान दो हेक्टेयर से भी कम ज़मीन से अपना जीवनयापन करते हैं। नाबार्ड के 2021-22 के सर्वेक्षण में औसत मासिक कृषि घरेलू आय 13,661 रुपये आंकी गई है। अपेक्षाकृत ज्यादा व्यापक एनएसएसओ 2019 सर्वेक्षण का अनुमान है कि यह आय 10,218 रुपये है।
ये आंकड़े चीन, मैक्सिको और ब्राजील जैसी अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समान वर्षों के आंकड़ों के मुकाबले कम हैं। जहां कोविड-19 महामारी वाले सालों से ग्रामीण उपभोग बढ़ रही है, वहीं वित्तीय वर्ष 2024 में ग्रामीण क्षेत्रों में मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय 4,122 रुपये था। शहरी क्षेत्रों में यह व्यय 6,996 रुपये था, जोकि एक महत्वपूर्ण अंतर को दर्शाता है। इस अंतर को एक अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए, खासकर एक ऐसे वक्त में जब निर्यात में बढ़ोतरी सुस्त रहने की आशंका है।