पल्लवी प्रकाश झा और कौशल किशोर
पंजाब : गुरदासपुर और पंजाब के तमाम दूसरे जिलों पर 1988 की तरह बाढ़ का भीषण प्रकोप सुर्खियों में रहा है। लगभग 37 सालों के बाद बूढ़े बुजुर्ग उस बुरे सपने की भयानक स्मृति दोहराने में लगे थे। बाढ़ की सूची में पंजाब के बाद पश्चिमी हिमालय में स्थित हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड का स्थान है। प्रधान मंत्री मोदी पंजाब, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे बाढ़ प्रभावित राज्यों का दौरा कर 4,300 करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा करते हैं। इनके अलावा दूसरे राज्यों से बाढ़ और विनाश की खबरें आई हैं।
चुनाव के इस साल में बाढ़ की जद में रहने वाले बिहार के लोग सूखे का सामना कर रहे हैं। मधुबनी, दरभंगा और सीतामढ़ी समेत सूबे के 10 से अधिक जिले सूखे की चपेट में हैं। विधान सभा चुनाव में यह कोई गंभीर मुद्दा नहीं है। देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े पैमाने पर विनाशकारी बाढ़ का मुद्दा संसद के बीते मानसून सत्र में भी उठा था, जैसे यह कई फैशन हो।
राज्यों और केंद्र की आपदा प्रबंधन टीम जान माल की रक्षा के लिए कड़ी मेहनत करती है। सभी जल प्लावित क्षेत्रों में राहत शिविरों का जीवन ही वास्तविकता बनी। जल के कुदरती मार्ग में अट्टालिकाएं खड़ी करने में कंक्रीट का बेतहाशा उपयोग, फुटपाथ और अवरुद्ध जल निकासी प्रणालियों के साथ बेतरतीब शहरी फैलाव, नगर नियोजन में संकट हैं। यह इन दिनों एक रस्म की तरह सार्वजनिक चर्चा का हिस्सा बन गया है। विनाशकारी बाढ़ की इस पुनरावृत्ति से विभिन्न स्तरों पर नियोजन मानदंडों और मास्टर प्लान के कार्यान्वयन में विफलता साफ है। यह रचनात्मक आलोचना की कमी का परिणाम है।
1992 में 74वें संविधान संशोधन के तहत अनुच्छेद 243 (ZD) में जिला नियोजन समिति और अनुच्छेद 243 (ZE) के तहत महानगर नियोजन समिति जैसे नियोजन निकायों की स्थापना का विधान करता है। यह 12वीं अनुसूची और अनुच्छेद 243 (W) के तहत नगर निकायों को नगर नियोजन सहित शहरी नियोजन जैसे कार्य करने और विधान सभा द्वारा निर्दिष्ट नगर नियोजन योजनाओं, स्थानीय क्षेत्रीय योजनाओं और विकास योजनाओं को लागू करने के लिए अधिकार भी देती है।
इस तरह नियोजन संस्थाओं और कार्यों के लिए संवैधानिक मर्यादा का विधान है। हालांकि नगर नियोजन संवर्ग के निर्माण और सेवा संरचना में पेशेवर योजनाकारों की भर्ती के लिए संवैधानिक विवशता नहीं है। इसे राज्य के कानूनों और सेवा नियमों या प्रशासनिक आदेशों के माध्यम से वैधानिक आधार पर लागू किया जाना चाहिए।
वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग ने राज्यों को पूंजी निवेश हेतु विशेष सहायता योजना शुरू किया। इसके लिए 2022-23 में 6,000 करोड़ रुपये और 2023-24 में 15,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था। इस योजना का संचालन आवास एवं शहरी मामलों का मंत्रालय करता है। करोड़ों रुपये के व्यय वाले कई प्रमुख सरकारी कार्यक्रम चल रहे हैं। अमृत जीआईएस-आधारित मास्टर प्लान, स्थानीय क्षेत्र योजनाएँ (एलएपी), नगर नियोजन योजनाएँ (टीपीएस), और रिवर सिटी अलायंस की शहरी नदी प्रबंधन परियोजनाएँ (आरसीए – यूआरएमपी) इनमें प्रमुख हैं। शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी), राज्य के विभिन्न विभागों और केंद्रीय एजेंसियों को हर स्तर पर बेहतर तालमेल की माँग करते हैं।
भारत के तेज़ी से शहरीकृत हो रहे परिदृश्य में आज सफलता के लिए आधुनिक जीआईएस उपकरणों के साथ ही दक्षता से लैस पेशेवर योजनाकारों भी मांग उठती है। नगर नियोजन में पदों को भरने के लिए हाल में अधिसूचित की गई भर्ती में गंभीर कमियां सामने आई थी। यह इस पेशे को ही नहीं, बल्कि शहरी विकास के लक्ष्यों को भी कमजोर करता है।
टाउन प्लानर का पदानुक्रम: पद सृजन कई स्तरों पर फैला है। हैरत कि बात है मुख्य नगर नियोजक, नगर नियोजक, सहयोगी नगर नियोजक और कार्यकारी नगर नियोजक कागज़ों पर लंबे समय से बने हुए हैं। झारखंड जैसे राज्य से लेकर कई आला दर्जे के राज्यों में भर्ती केवल सहायक नगर नियोजकों तक सीमित है। तमाम वरिष्ठ पद रिक्त हैं। शहरी स्थानीय निकाय नेतृत्व से वंचित प्रतीत होती। अपने देश में इस तरह दीर्घकालिक नियोजन परियोजनाएँ आवश्यक निगरानी और वाजिब विशेषज्ञता के बिना ही चल रही है।
नियोजन क्षेत्र में संकीर्ण पात्रता मानदंड: पात्रता शर्तों में नगर नियोजन, वास्तुकला, सिविल इंजीनियरिंग में स्नातकों के साथ ही नियोजन में स्नातकोत्तर की डिग्री को मान्यता दी जानी चाहिए। भूगोल, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और सांख्यिकी जैसे संबद्ध विषयों के नगर नियोजक संस्थान द्वारा मान्यता प्राप्त पेशेवरों को भी शामिल करना चाहिए। इनमें नियोजन विशेषज्ञता वाले वास्तुकला स्नातकों और जीआईएस तथा सुदूर संवेदन विशेषज्ञता वाले स्नातकों का महत्व खारिज नहीं किया जा सकता है। आज तेज़ी से विकसित होती तकनीक और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) से संचालित शहरी विकास के आधुनिक युग में जीआईएस कौशल वैकल्पिक नहीं, बल्कि अनिवार्य हो गया है। भर्ती प्रक्रिया में लोगों की संख्या सीमित कर विविधता को नज़रअंदाज़ करना मुनासिब नहीं है। आधुनिक नियोजन में इस आवश्यकता को पूरा करना चाहिए।
संविदा नियुक्ति में पारदर्शिता का अभाव: योजनाकारों के संविदा पद पर नियुक्ति के लिए कई मान्यता प्राप्त सरकारी पोर्टलों पर विज्ञापन दिए जाते हैं। इनमें से अधिकांश में पारदर्शिता का अभाव साफ जाहिर है। कई अनुत्तरित प्रश्न खड़े होते हैं। उम्मीदवारों का साक्षात्कार और चयन कैसे किया जाता है? सार्वजनिक रूप से उपलब्ध चयन आँकड़ों के अभाव में ऐसी प्रक्रिया की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर खतरा बना रहेगा।
संविदात्मक नगर नियोजन की स्थिति: एक और महत्वपूर्ण प्रश्न है कि वर्षों से राज्य और केंद्र सरकार की परियोजनाओं में संविदा पद पर भूमिका निभाने वाले अनुभवी संविदा योजनाकार को पार्श्व प्रवेश तंत्र के माध्यम से स्थायी पदों पर क्यों नहीं नियुक्त किया जाता है? अमृत मास्टर प्लान, एलएपी, टीपीएस, पीएमएवाई-यू, एनएमसीजी कार्यक्रमों और शहरी नदी प्रबंधन योजनाओं जैसे सरकारी कार्यक्रमों पर परिश्रम करने वाले अनुभवी योजनाकारों का वंचित रहना ठीक नहीं है। अन्य सेवाओं के वरिष्ठ नौकरशाहों को अक्सर उनके कार्यक्षेत्र के अनुभव के आधार पर ही मंत्रालयों में पार्श्व भर्ती की जाती रही है। यही सिद्धांत शहरी योजनाकारों पर भी लागू होना चाहिए।
ऐसे समय में जब शहरी की सीमाएँ गाँवों और आदिवासी क्षेत्रों की ओर रुख कर वन क्षेत्रों में फैलने लगी हैं, महानगर बाढ़ और बेतरतीब विकास का सामना करने को विवश होते हैं। इससे जल निकाय और जैव विविधता को भी खतरा पैदा हो गया है इसलिए यह विशेष रूप से हानिकारक है। आज इससे सामाजिक व पारिस्थितिक संतुलन दोनों को खतरा है।
चयन प्रक्रिया वास्तविकता से कोसों दूर: 2020 में जारी सहायक नगर नियोजक के विज्ञापन समेत कई भर्तियों में कार्य अनुभव के महत्व को नज़रअंदाज़ करना सामने आया था। परिणामस्वरूप एक नए स्नातक को उस योजनाकार के बराबर या उससे भी ऊपर का दर्जा दिया गया जिसने सरकार के महत्वपूर्ण परियोजनाओं को पूरा करने में वर्षों बिताए हों। अनुभव और मूल्यांकन के बीच का यह समीकरण अंततः उन योजनाओं को कमज़ोर करता है जो विशिष्ट विशेषज्ञता पर ही निर्भर करती हैं। परिणामों को गंभीर जोखिम में डालने वाले क्षेत्र हैं जीआईएस-आधारित नियोजन, नदी पुनरुद्धार, शहरी आवास और एकीकृत परिवहन, आदि। इस प्रकार चयन प्रक्रिया वास्तविकता से कोसों दूर प्रतीत होती है।
उच्च शिक्षा के मूल्य को कम आंकना: वास्तव में नगर नियोजन ऐसा पेशा है जो शैक्षणिक कठोरता और व्यावहारिक अनुभव दोनों की ही मांग करता है। यदि मूल्यांकन मानदंडों के लिए अंक और महत्व नगर नियोजन योग्यता और क्षेत्र में अनुभव के अनुरूप नहीं हो तो नियोजन में उच्च शिक्षा में समय, धन और प्रयास लगाना ही व्यर्थ है। यदि उन्नत अध्ययन और वर्षों के अनुभव को नज़रअंदाज़ या कम आंकना मुनासिब नहीं है। भर्ती नियम में युवा पेशेवरों को इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए जोखिम उठाने की आवश्यकता है।
शहरी नियोजन केवल प्रशासनिक कार्य नहीं है। यह टिकाऊ, समतामूलक और लचीले शहरों की नींव है। भारत का महत्वाकांक्षी शहरी विकास एजेंडा अपने ही दोषपूर्ण प्रणालियों के बोझ तले लड़खड़ा रहा है। यह जब तक योग्यता, विशेषज्ञता और अनुभव को बराबर पुरस्कृत नहीं करती समस्या बनी रहेगी। पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए भर्ती नीतियों में सुधार किया जाना चाहिए। नगर नियोजकों की ओर उंगली घुमा कर इन ज्वलंत मुद्दों से मुंह फेरने वालों को ही उचित समाधान शीघ्र सुनिश्चित करना चाहिए।







