पहल स्पेशल नई दिल्ली: हरियाणा राज्य और जम्मू कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश ने फैसला सुना दिया। जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन ताकतवर साबित हुआ,तो हरियाणा में भाजपा ने तमाम अनुमानों को झुठलाकर लगातार तीसरी जीत दर्ज की है। आखिर क्या हैं हार-जीत के मायने पेश है एक्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा की खास रिपोर्ट :-
लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर नरेंद्र मोदी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के रिकॉर्ड की बराबरी की थी, तो अब हरियाणा में सत्ता की हैट्रिक से उनकी पार्टी भाजपा ने नया इतिहास ही रच दिया है। दरअसल, तीसरी बार जनादेश लेने गए राजनीतिक दल और नेता को हरियाणा के मतदाता हाशिये पर ही भेजते रहे। भजनलाल के नेतृत्व में कांग्रेस को मतदाताओं ने 1987 में पांच सीटों पर समेट दिया था, तो 2014 में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में कांग्रेस 15 सीटों पर सिमट गई थी।
अतीत के इस आईने में देखने पर हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत की अहमियत समझी जा सकती है। जाहिर है, अतीत में सरकारें जन आकांक्षाओं पर खरा न उतर पाने तथा सत्ता विरोधी भावना के चलते ही लगातार तीसरा जनादेश पाने में विफल रही होंगी। इस विधानसभा चुनाव में भी सत्ता विरोधी भावना की चर्चा कम नहीं थी। राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर चुनावी पंडित तक बता रहे थे कि हरियाणा में सत्ता विरोधी भावना इतनी प्रबल है कि जनता स्वयं भाजपा के विरुद्ध चुनाव लड़ रही है और तश्तरी में रखकर कांग्रेस को सत्ता देने को तत्पर है।
सुनियोजित चुनाव रणनीति और प्रबंधन से निष्प्रभावी !
पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल से लेकर मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी तक अनुकूल जन भावना का जवाबी दावा करते रहे, पर उसे चुनावी राजनीतिक बयानबाजी ‘से ज्यादा महत्व नहीं दिया गया। दस साल के शासन के बाद सत्ता विरोधी भावना अस्वाभाविक भी नहीं है, लेकिन उसे सुनियोजित चुनाव रणनीति और प्रबंधन से निष्प्रभावी किया जा सकता है- यह भाजपा ने साबित कर दिया। इसी साल मार्च में भाजपा ने जब लगभग साढ़े नौ साल पुराने मुख्यमंत्री मनोहर लाल की जगह नायब सिंह सैनी को हरियाणा की कमान सौंपी, तो ज्यादातर लोगों ने उसे सत्ता विरोधी भावना को शांत करने की कवायद के रूप में देखा।
संभव है, यह सोच भी सत्ता परिवर्तन के मूल में रही हो, मगर वह मनोहर लाल के प्रधानमंत्री मोदी के मन से उतर जाने का संकेत तो हरगिज नहीं था, क्योंकि उन्हीं की पसंद के रूप में नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया गया और फिर खुद उन्हें करनाल से लोकसभा चुनाव लड़ाकर केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री भी बनाया।
अप्रैल-जून में हुए लोकसभा चुनाव में हरियाणा से भाजपा की सीटें दस से घटकर पांच रह जाना दूसरा संकेत था सत्ता विरोधी भावना का। उसी के बाद ज्यादातर राजनीतिक पंडितों ने मान लिया कि अक्तूबर के विधानसभा चुनाव में भाजपा की विदाई और कांग्रेस की सत्ता में वापसी तय है, लेकिन लोकतंत्र में अंतिम निर्णय मतदाता ही करते हैं- और उनका निर्णय 8 अक्तूबर की मतगणना से अब सबके सामने है। अब जबकि जनता जनार्दन का जनादेश आ गया है, यह समझना जरूरी है कि आखिर हारी हुई लग रही बाजी भाजपा कैसे जीत गई और जीती हुई नजर आ रही बाजी कांग्रेस क्यों हार गई?
किसान, जवान एवं पहलवान की बहुप्रचारित नाराजगी !
यह पहेली तब और भी अबूझ बन जाती है, जब कांग्रेस के पास पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरीखा जनाधार वाला नेता और किसान, जवान एवं पहलवान की बहुप्रचारित नाराजगी के मुद्दे भी थे। दस साल के शासन के विरुद्ध स्वाभाविक सत्ता विरोधी भावना तथा किसान आंदोलन, अग्निवीर योजना और महिला पहलवानों के धरना-प्रदर्शन से अपने अनुकूल बने माहौल में भी जीती हुई लग रही बाजी हार जाने के सदमे से उबर पाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा। ऐसा पहली बार नहीं है, जब चुनावी ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल औंधे मुंह गिरे हैं। ऐसे चुनावी पंडितों को अपनी कार्यप्रणाली पर गंभीर आत्म-विश्लेषण करना चाहिए, जो मतदाता का मन पढ़ने के बजाय हवा का रुख भांपकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
यह तो सच है कि चार महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा अपनी दस में से पांच सीटें हार गई, पर मतदान प्रतिशत और विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त के मामले में वह फिर भी कांग्रेस से आगे रही। फिर किस आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लिया गया कि हरियाणा में बदलाव की बयार है और कांग्रेस की आंधी चल रही है? दरअसल, लोकसभा चुनाव में शून्य से पांच पर पहुंचकर कांग्रेस खुद हवा में उड़ने लगी, जबकि भाजपा अपने पैरों तले से खिसकती जमीन को फिर मजबूत करने में जुट गई। यह काम कई मोर्चों पर किया गया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी कमान संभाली !
गंभीरता को भांपकर भाजपा के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी कमान संभाली और कार्यकर्ताओं को संदेश दिया कि अब भी स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं है। विधानसभा चुनाव जीतने के लिए हमें अपने मत प्रतिशत को यथासंभव बढ़ाते हुए विरोधी मतों में विभाजन की रणनीति बनानी है। कहना नहीं होगा कि कांग्रेस द्वारा आम आदमी पार्टी से गठबंधन से इनकार तथा इनेलो-बसपा तथा जजपा-आसपा गठबंधन इसमें मददगार साबित हुआ। कांग्रेस मत विभाजन के इस स्वाभाविक खतरे को क्यों नहीं समझ पाई? टिकट वितरण पर असंतोष, दोनों बड़े दलों में सामने आया, पर भाजपा उसे मतदान से बहुत पहले बेहतर ढंग से शांत करने में सफल रही, जबकि कई मजबूत बागी कांग्रेस के रास्ते में रोड़ा बन गए।
इनमें से कुछ को बड़े नेताओं की शह मिलने की बात भी बताई जाती है। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद कहा गया था कि गलत टिकट वितरण के चलते कांग्रेस हरियाणा में सरकार बनाने से चूक गई। तब भाजपा को 40 और कांग्रेस को 31 सीटें मिली थीं। । बेशक, मुकाबला कड़ा था और नवगठित जननायक जनता पार्टी ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में निर्णायक भूमिका निभाई थी। बाद में वही जजपा, भाजपा के साथ सरकार में भागीदार भी बनी। उसकी कीमत जजपा को इस चुनाव में अपने सफाये के रूप में चुकानी पड़ी है।
कांग्रेस का चुनावी गणित जाट और दलित समुदाय के व्यापक !
‘इंडिया’ ब्लॉक की एकता की तस्वीर पेश करने की राहुल गांधी की इच्छा का सम्मान तो दूर, हरियाणा के कांग्रेसी तो पार्टी की एकजुटता भी नहीं दर्शा पाए। जाहिर है, कांग्रेस का चुनावी गणित जाट और दलित समुदाय के व्यापक समर्थन की आस पर टिका था, च लेकिन नाराजगी के चलते कुमारी शैलजा कई दिनों हर तक चुनाव प्रचार से ही नदारद रहीं। लोकसभा चुनाव के बाद एक बड़ी नेता किरण चौधरी कांग्रेस को में अलविदा कहकर भाजपा में चली गई। हरियाणा की कर हैट्रिक का असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। लोकसभा चुनाव में सीटें घटने से लगे सदमे से भारतीय जनता पार्टी उबरेगी, जबकि पस्त कांग्रेस पर ‘इंडिया’ ब्लॉक में दबाव बढ़ेगा, जिसका असर महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली के आगामी विधानसभा चुनावों में भी नजर आ सकता है।