वर्तमान सरकार की विदेश नीति संबंधी स्वायत्त दृष्टि क्या है? यह अपेक्षा जयशंकर से है कि ऐसे प्रश्नों पर वे पूरी व्याख्या के साथ उपस्थित हों। वरना, जहां-तहां की गई छिटपुट टिप्पणियां भारत के बारे में भ्रम को ही गहरा करेंगी।
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पिछले हफ्ते एक संवाद में भाग लेते हुए कहा कि यूरोप की समस्याएं पूरी दुनिया की समस्या नहीं है। इसलिए यूरोप को अपनी समस्या को दुनिया की समस्या समझने की मानसिकता से ऊपर उठना चाहिए। बाद में सोशल मीडिया पर जवाहर लाल नेहरू का 1948 में संयुक्त राष्ट्र में दिया एक भाषण प्रचारित हुआ, जिसमें पंडित नेहरू ने ठीक यही वाक्य कहे थे। उसके बाद से इस संयोग पर चर्चा चल रही है कि क्या घूम-फिर कर नरेंद्र मोदी सरकार बिना साफ शब्दों में स्वीकार किए नेहरू दौर की विदेश नीति को अपना रही है। गौरतलब है कि जयशंकर के इस बयान की प्रशंसा में चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने एक पूरा लेख प्रकाशित किया। इसमें भी यही कहा गया कि भारत शुरू से ही कूटनीतिक स्वायत्तता की नीति पर चलता रहा है। चीन का अभी पश्चिमी देशों से टकराव है। इसलिए पश्चिम के खिलाफ कही गई कोई भी बात उसे रास आती है। लेकिन असल मुद्दा यह है कि क्या भारत आज सचमुच गुटनिरपेक्षता की किसी दृष्टि के साथ विश्व मंच पर उपस्थित है?
मोदी सरकार के संदर्भ में यह सवाल अधिक ध्यान खींचता है, क्योंकि अभी हाल तक माना जाता था कि ये सरकार भारत को अमेरिका और पश्चिम के खेमे में ले गई है। लेकिन यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से खास कर विदेश मंत्री जयशंकर की कई टिप्पणियां इस धारणा के विपरीत जाती दिखी हैं। तो सवाल यह उठेगा कि अगर भारत अपनी स्वायत्त दृष्टि के साथ विश्व मंच पर खड़ा है, तो वो दृष्टि क्या है? नेहरू की गुटनिरपेक्षता में स्वाभाविक रूप से उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ नव-स्वतंत्र देशों की एकता का नजरिया था। उसमें खुद की भारत खामियों और कमियों को खुल कर स्वीकार करने की दृष्टि थी। इस नजरिए से मोदी सरकार सहमत है, इसे मानने के लिए फिलहाल कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है। तो वर्तमान सरकार की स्वायत्त दृष्टि क्या है? क्या यह विशुद्ध स्वार्थ से संचालित है? यह अपेक्षा जयशंकर से है कि इन प्रश्नों पर वे पूरी व्याख्या के साथ उपस्थित हों। वरना, जहां-तहां की गई छिटपुट टिप्पणियां भारत के बारे में भ्रम को ही गहरा करेंगी।