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Home राष्ट्रीय

क्या सीधे जनता नहीं चुन सकती मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री?

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
May 21, 2023
in राष्ट्रीय, विशेष
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नई दिल्ली : कर्नाटक में कौन बनेगा मुख्यमंत्री को लेकर जिस तरह से पार्टी आलाकमान की भूमिका को सर्वोपरि रखा गया उससे एक बार फिर ये संवैधानिक सवाल खड़ा होता है कि अगर पार्टी की लीडरशिप ही मुख्यमंत्री तय करेगी तो फिर विधायकों का क्या रोल रह जाता है? क्या वो सिर्फ औपचारिकता पूरी करने भर के लिए होते हैं?

संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री संसदीय दल या विधायक दल का नेता होता है। इसका चयन क्रमश: सांसद और विधायक ही करते हैं। लेकिन बीते कुछ दशकों में यह सिर्फ औपचारिकता भर रह गयी है। मुख्यमंत्री हो या प्रधानमंत्री इसका चयन पार्टी का हाईकमान करता है और बाद में विधायक या सांसद उस पर अपनी मोहर लगा देते हैं।

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लोक सभा और विधान सभा चुनाव के बाद सरकार के गठन में ऐसी संविधानेतर समस्याएं आती रहती हैं। इसका कारण सरकार के संसदीय स्वरूप (कैबिनेट प्रणाली) में अंतर्निहित गंभीर खामियां हैं। वास्तव में यह बार-बार लोकतंत्र का मखौल उड़ाता रहा है। अनुच्छेद 74 (1) और 75 (1) में प्रधानमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद की नियुक्ति का प्रावधान है। यह आदेश देता है कि वह संसद के दोनों सदनों (लोकसभा या राज्यसभा) में से किसी का भी सदस्य हो सकता है, लेकिन लोकसभा में बहुमत रखने वाले संसदीय दल का चुना हुआ नेता होना चाहिए। सभी 28 राज्य भी बहुत मामूली फेर बदल के साथ, विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों के तहत एक ही प्रणाली का पालन करते हैं।

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कर्नाटक में मुख्यमंत्री चुनने के लिए जो हुआ है वह संसदीय प्रणाली की विफलता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार सांसदों या विधायकों के हाथ में न रहकर उस पार्टी की लीडरशिप के हाथ में चला गया है जो चुनाव जीतती है। यह संसदीय प्रणाली का सीधा उल्लंघन है। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव सीधे जनता द्वारा हो तो ऐसी समस्या कभी नहीं आयेगी।

वर्तमान संसदीय व्यवस्था में किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत न होने की स्थिति में भ्रष्टाचार के लिए उर्वर जमीन साबित हुई है। क्षति इतनी अधिक है कि इसकी पूर्ण सीमा को कभी भी मापा नहीं जा सकता है। 1989 से 2014 तक, 25 वर्षों के लिए, भारत ने भारी उथल पुथल का सामना किया। इन 25 वर्षों के दौरान हमने पांच की बजाय आठ लोकसभा देखी। लोकसभा का औसत जीवन केवल तीन वर्ष था। अगर हम 1989 से 1999 तक देखें, तो दस साल के अंतराल में हमने पांच लोकसभा देखी। एक लोक सभा का औसत जीवन केवल दो वर्ष था। यही स्थिति कमोवेश राज्य विधानसभाओं की रही है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश इत्यादि इस व्यवस्थागत असफलता के उदाहरण रहे हैं।

इसका कारण यह है कि “संसदीय सरकार” या कैबिनेट फार्म ऑफ गवर्नेंस में बहुत गंभीर खामी है और करीब 72 साल का अनुभव मीठा से ज्यादा कड़वा रहा है। दूसरा, यह लोकतंत्र के मूल उद्देश्य और भावना को पराजित करता है, क्योंकि यह “प्रत्यक्ष लोकतंत्र” नहीं है, जहां “हम, भारत के लोग” शासन करने के लिए अपनी पसंद के व्यक्ति को चुन सकते हैं।

तीसरा, यह एक “अप्रत्यक्ष लोकतंत्र” है जहां सांसदों/विधायकों के पास “वास्तविक शासक” को चुनने, बदलने, गद्दी पर बिठाने या गद्दी से उतारने की पूरी शक्ति होती है। लेकिन व्यावहारिक रूप से अब वो भी अप्रांसगिक ही हो गये हैं। संसदीय दल के नेता का चुनाव अब पार्टी करती है और विधायक सांसद सिर्फ वोट देकर उसे चुनने की औपचारिकता करते हैं। इसलिए अब यह भी नहीं कहा जा सकता कि जनता विधायक चुनती है और चुने हुए विधायक मुख्यमंत्री।

अतीत में हम ये कह सकते थे कि सांसदों/विधायकों के पास इतनी शक्ति थी वो अपना संसदीय नेता चुन सकते थे। उसे हम भले ही कुलीनतंत्र कह दें लेकिन सीमित अर्थों में ही सही जनता की भावनाओं का ध्यान रखा जा सकता था। लेकिन अब तो सीधे पार्टी ही मुख्यमंत्री नियुक्त कर रही है जिसमें विधायकों की सहमति लेना या न लेना, उसके मन पर निर्भर करता है। इसके कारण अब संसदीय प्रणाली गुटबाजी की जगह बन गयी है।

इस प्रणाली में राज्यपाल के पास केंद्र सरकार या अपनी पार्टी के निर्देश पर हेरफेर करने की भरपूर क्षमता होती है। यह सिस्टम अस्थिर सरकार प्रदान करता है, खासकर जब यह गठबंधन हो। अस्थिरता लंबी अवधि की योजना, वृद्धि, विकास को बाधित करती है।

यह भ्रष्टाचार और अनैतिकता को बढ़ावा देता है। यह सांसदों/विधायकों के सौदेबाजी और खरीद-फरोख्त के लिए पर्याप्त अवसर देता है जो आगे और बड़े भ्रष्टाचार की ओर ले जाता है। यह प्रणाली भ्रष्टाचार का स्रोत है। किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में सरकार बनने से पहले ही भ्रष्टाचार शुरू हो जाता है। तब हर निर्दलीय सांसद/विधायक अपने समर्थन के बदले केक का ज्यादा से ज्यादा और बड़ा टुकड़ा लेना चाहता है।

सांसदों/विधायकों को चुन लेने के बाद, सरकार के गठन में “हम, भारत के लोगों” का कोई नियंत्रण या भूमिका नहीं रह जाती है। हमें ऐसा प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री मिलता है जिसे बहुसंख्यक पसंद नहीं कर सकते हैं, या हम ऐसे प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री से वंचित हो सकते हैं जिन्हें बहुसंख्यक पसंद करते हैं।

लोकसभा या राज्य विधानसभा के भंग होने के कारण मध्यावधि चुनाव के माध्यम से यह अक्सर सरकारी खजाने और अन्य संसाधनों पर परिहार्य भारी बोझ डालता है। गठबंधन सरकारों में मंत्रियों के चयन/नियुक्ति में समझौता किया जाता है। पीएम/सीएम को उन सभी को समायोजित करना होता है जिन्होंने अपना समर्थन दिया है, भले ही वे उपलब्ध प्रतिभाओं में से सबसे अच्छी प्रतिभा न हों।

इनमें से अधिकांश गठबंधन सरकारें “सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम” पर चलती हैं। जब निर्धारित और स्वीकृत एजेंडा ही “सामान्य न्यूनतम” है तो वे “अधिकतम” कैसे प्राप्त कर सकते हैं। यही कारण है कि इनमें से अधिकांश सरकारें “नीतिगत पक्षाघात” से पीड़ित रहती हैं। “लोकतंत्र के संसदीय स्वरूप” की वर्तमान प्रणाली में कार्यपालिका और विधायिका एक-दूसरे पर अतिक्रमण करती दिखती हैं। यह सच्चे लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। लोकतंत्र के सभी तीन “स्तंभ”, अर्थात कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को यथासंभव एक दूसरे से स्वतंत्र होना चाहिए।

ऐसे में संसदीय दल या विधायक दल द्वारा नेता चुने जाने की बजाय जनता द्वारा सीधे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का चुनाव हो तो दोनों समस्याओं का समाधान हो सकता है। पहले तो लोक सभा या विधानसभा में “बहुमत” का चक्कर समाप्त हो जायेगा। दूसरे, मुख्यमंत्री कौन बनेगा इसका प्रश्न पैदा ही नहीं होगा। वरना लगभग हर चुनाव के बाद यह झगड़ा चलता रहेगा कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा? हालांकि भारत की संसदीय प्रणाली में ऐसा करने के लिए सिर्फ कानूनी ही नहीं बल्कि व्यावहारिक समस्याएं भी सामने आयेंगी। लेकिन जब हम देख रहे हैं कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति भी जनता द्वारा चुने हुए विधायक नहीं कर सकते, बल्कि पार्टियां करने लगी हैं तो फिर क्यों न जनता सीधे ही अपना मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री चुने?

 

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