कौशल किशोर
नई दिल्ली: स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता युसूफ मेहर अली बेहतरीन व्यंग्यकार थे। उनका नारा बहुत प्रसिद्ध हुआ। “साइमन! वापस जाओ” और “अंग्रेजों! भारत छोड़ो” जैसे नारे गढ़ने के लिए उनको याद करना चाहिए। औपनिवेशिक काल में उनके लोकप्रियता की तुलना प्रेम गीत गाने वाले ब्रिटिश कवि लॉर्ड बायरन से करने वालों में केंद्र सरकार के सूचना सलाहकार रहे पत्रकार जी.एस. भार्गव भी थे। इन दोनों ही विभूतियों ने कम समय में ज्यादा काम करके शीघ्र विदा होना पसंद किया था। उनके करीबी दोस्त मीनू मसानी लिखते हैं, ‘युसूफ गर्मजोशी से भरे, सौम्य और समर्पित व्यक्ति थे।
उनके साथ देशभक्ति एक धर्म बन गई और राष्ट्रवाद एक पंथ।’ अली की लिखी लीडर्स ऑफ इंडिया और राजनीतिक व्यंग्य ए ट्रिप टू पाकिस्तान चर्चित किताबें साबित हुई। यह पाकिस्तान प्रसंग विभाजन से पहले दिसंबर 1943 में छपी और साढ़े चार रुपये कीमत थी। शीघ्र ही यह सबसे चर्चित किताबों में शामिल हो गई थी। आकर्षक व्यंग्यात्मक लहजा के साथ ही उपमाओं का तड़का और इसकी हल्की शैली कमाल का डिश तैयार करती है। इसकी वजह से आजादी से पहले राजनीतिक लेखन में खूब समृद्धि आती है।
इसका शीर्षक अपने आप में ही एक व्यंग्य है। विभाजन से पहले ही पाकिस्तान देख लेने के दर्शन पर केंद्रित है। अंग्रेजों ने इस पाकिस्तान को भी दो हिस्सों में बांट दिया। मानचित्र पर एक भाग पश्चिम से उठा कर सुदूर पूर्व में रख दिया। इसे बांग्लादेश के रूप में 1971 में मान्यता मिली। लाहौर का यतीमखाना देखने की अभिलाषा से उन्हें पाकिस्तान घूमने की सूझी। जैसे ही रेलगाड़ी से लाहौर उतरे पंजाब पुलिस एक ऐसा नोटिस थमाती है, जिसे कानूनी रूप से पालन करना संभव नहीं था। लेकिन गवर्नर का आदेश था और मुख्य सचिव की मोहर भी लगी हुई थी। उन्हें “पाकिस्तान के गवर्नर” ने अगले 12 घंटों के भीतर सीमाओं को छोड़ देने को कहा। चूंकि अगली उपलब्ध ट्रेन निर्धारित समय के भीतर पंजाब से नहीं निकलती थी, उन्हें मित्रों ने भ्रमण आगे जारी रखने को कहा।
अंत में छह महीने की सजा के साथ लाहौर सेंट्रल जेल भेजे गए, जहां भगत सिंह, राज गुरु और सुख देव 23 मार्च 1931 को फांसी पर झूले थे। यह दास्तान खुशवंत सिंह द्वारा लिखी द ट्रेन टू पाकिस्तान से 13 साल पहले की रचना है। उनकी वापसी पर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने उन्हें मुंबई का मेयर नामित किया था। हवाई हमलों की चेतावनी (एआरपी) से निपटने के लिए उन्होंने पीपुल्स वालंटियर ब्रिगेड शुरू करने से पहले व्यक्तिगत रूप से जनता की शिकायतों पर ध्यान देकर नगर निकाय के काम-काज में आ रही सुस्ती को दूर किया।
उनका जन्म 23 सितंबर 1903 को मुंबई में हुआ था। लेकिन उन्होंने बंगाल विभाजन के युग में वंदे मातरम गीत सुनते हुए पहले नौ साल कोलकाता में बिताए थे। उनके पिता जफर मेहर अली मर्चेंट एक समृद्ध व्यवसायी रहे। उनके दादा 19वीं सदी में पहला कपड़ा मिल शुरू करने वाले लोगों में गिने जाते। मुंबई बार में नामांकन से पहले अर्थशास्त्र, इतिहास और कानून का अध्ययन उन्होंने किया था। साइमन विरोधी प्रदर्शन और पिटाई के लिए पुलिस के खिलाफ केस चलाने के कारण हाई कोर्ट के आदेश पर उनको अनुमति नहीं मिली। वहीं सावरकर दूसरे ऐसे योग्य वकील रहे, जिन्हें राजनीतिक कारणों से कोर्ट में प्रैक्टिस करने से मना किया गया था।
उनके जीवन के बायरन मोमेंट और लाजपत राय के बीच अपने ही किस्म का एक संबंध है। लाहौर में 30 अक्टूबर 1928 को साइमन कमीशन के विरुद्ध किए प्रदर्शन में लालाजी भी वही नारे लगा रहे थे। भारत में संवैधानिक सुधारों के लिए बने इस आयोग के सातों सदस्य ब्रिटिश थे। फिरंगियों की लाठियां खाने के 18 दिन बाद उनकी मृत्यु हुई थी। पर 19 साल बाद ब्रिटिश ताबूत में कील ठोंकने का काम करती है। पहले प्रधान मंत्री नेहरू सहित कई अन्य कांग्रेसी नेता को इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान चोटें आई। जॉन साइमन की अध्यक्षता वाला आयोग सभी शक्तियों से संपन्न था।
लेबर सांसद क्लेमेंट एटली भी इस वैधानिक आयोग के सदस्य थे। बाद में 1945 से 1951 तक ब्रिटेन के प्रधान मंत्री भी रहे थे। 3 फरवरी को जब यह दल बंदरगाह पर उतरा तो बंबई यूथ लीग के 400 छात्रों ने अपने नेता युसूफ मेहर अली के नेतृत्व में काले झंडे खूब लहराए। नारा लगाते हुए विरोध प्रदर्शन किया था, जिसमें उन्हें बुरी तरह पीटा गया था। यरवदा सेंट्रल जेल में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान साथ ही कैद में रहे साद अली कहते रहे कि उस समय उन्हें इतनी बुरी तरह पीटा गया कि वे कभी ठीक नहीं हो सके। उन्हें एक ड्रम में बंद कर लंबी दूरी तक घुमाया भी गया था।
यतीमखाना सही मायनों में लोक सेवक मंडल के लिए प्रयोग किया जाने वाला कूट शब्द था। इस बात की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा, “लाला लाजपत राय इस संस्था के संस्थापक और आधार स्तंभ थे और उनकी मृत्यु के बाद से यह अनाथ हो गई है। शायद इसीलिए इसे यह नाम दिया गया है।” अली जल्दी ही वहां पहुंच गए। सबसे पहले जिस व्यक्ति से उन्होंने विचार-विमर्श किया, वह थे इसके और उत्तर प्रदेश की विधान सभा के भी अध्यक्ष राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन। उन्होंने उल्लेख किया है कि उनकी काया और ऊर्जा में एक पीढ़ी फर्क दिख रहा था।
पूर्व उप राष्ट्रपति कृष्ण कांत जी के पिता लाला अचिंत्य राम से मिलने पर इस बुद्धिजीवी के चेहरे की गंभीरता का जिक्र करते हैं। लाला जगन्नाथ को मिलनसार पाया और मोहन लाल अछूतों को छू लेने में इस कदर व्यस्त पाए गए कि उनके पास अन्य गतिविधियों के लिए शायद ही कोई समय था। राजनीति के तिलक स्कूल के प्रिंसिपल छबील दास के लिए विद्वान व मिलनसार जैसे विशेषण प्रयोग कर इनकी व्याख्या भी करते हैं। उन्हें व्याख्यान कक्ष में शेर की तरह दहाड़ते पर घर में भीगी बिल्ली बताते हैं। हर जगह चर्चित संपादक फिरोज चंद को समूचे पाकिस्तान का मशहूर आलसी करार देने का काम अली के अलावा कोई और नहीं कर सकता है। उन्होंने लाजपत राय हॉल और द्वारका दास लाइब्रेरी देखने से पहले डा. गोपीचंद के अध्ययन कक्ष में बैठकर सभी से बातचीत किया था।
यतीमखाना का ये विवरण इस साल लाजपत भवन की पहली यात्रा के दौरान दिमाग में घूम रहा था, जब नई दिल्ली स्थित सर्वेंट्स ऑफ द पीपल सोसाइटी के मुख्यालय गया था। उस दिन इसके सबसे सीनियर आजीवन सदस्य सत्य पाल जी की शोक सभा थी, जो साउथ एशियन फ्रेटरनिटी के सह-संस्थापक और इन दिनों अध्यक्ष भी थे। इसकी शुरुआत नब्बे के दशक में हुई थी। इन्द्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी और डा. मनमोहन सिंह जैसे नेताओं और कुलदीप नैयर जैसे पत्रकार इसमें साथ मिल कर काम करते थे। साउथ एशियन यूनिवर्सिटी इसकी निशानी है। इन कार्यों का जिक्र युसूफ मेहर अली की भावनाओं से मेल खाती है। सत्य पाल जी का जीवन यह याद दिलाता कि प्लेटो एक ऐसे संत के बारे में जिक्र करता, जिसकी छवि डाकुओं वाली गढ़ी गई हो।
अली भारत के विभाजन का विरोध करते रहे। सामाजिक सद्भाव के प्रबल समर्थक भी साबित होते हैं। उन्हें जिस सामूहिक पलायन का डर था उसके बारे में लिखते हैं, “भविष्य में शायद कोई टॉल्स्टॉय भावी पीढ़ी के लिए किसी शानदार गद्य अथवा ज्वलंत कविता में इस त्रासदी को याद करेगा।” किशोर कुमार की कॉमेडी फिल्म ‘हाफ टिकट’ और अपने हिंदी में श्रीलाल शुक्ल की क्लासिकल ‘राग दरबारी’ जैसी कृतियां गुणवत्ता के मामले में उनके इस साहित्य के करीब हैं। इसलिए यह आधुनिक भारतीय साहित्य में सदैव शीर्ष राजनीतिक व्यंग्य रचनाओं में गिनी जाती रहेगी।
समाजवादी आंदोलन इस दौर में मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई है। एसी दशा में समाजवाद युसूफ मेहर अली जैसे हस्तियों का बेसब्री से इंतजार कर रहा। जय प्रकाश नारायण, लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, रामनंदन, मधु लिमये, मीनू मसानी, मधु दंडवते और 1942 अगस्त क्लब के अन्य सदस्यों के सहयोग से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना किया था।
2 जुलाई 1950 को 47वां जन्मदिन आने से पहले एक और शक्तिशाली संदेश देकर विदा हुए। कैनवास से ऊंचे इस कद के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए युसूफ मेहर अली सेंटर शुरु किया गया है। साठ के दशक से इसका नेतृत्व कर रहे डाक्टर जी.जी. पारिख साल के अंत में सौ साल पूरे करने जा रहे हैं। भारत छोड़ो आंदोलन के इस नायक को केंद्र सरकार शीर्ष नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित कर उल्लेखनीय उपलब्धि प्राप्त करेगी।