कौशल किशोर
आज तिलक की पुण्यतिथि है और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म दिवस भी। स्वराज का अध्याय पढ़ाने वाले बाल गंगाधर तिलक के लिए देशवासियों ने लोकमान्य विशेषण को उचित माना है। राजनीति के सेक्युलर स्कूल द्वारा तिलक स्कूल को खारिज करने के लिए उन पर साम्प्रदायिकता का आरोप लगाया जाता रहा है। दो वर्ष पूर्व तिलक स्कूल के शताब्दी समारोह का विमर्श इन्हीं पन्नों पर गृह मंत्री अमित शाह ने शुरु किया था। स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, यह नारा उद्धरित कर तिलक की महत्ता से परिचित कराने का काम करते हैं। इसकी वजह से बीस साल पहले 27 जुलाई को 6 मौलाना आजाद रोड पर हुई तिलक स्कूल की मौत पर अपने ही कथन की समीक्षा का प्रश्न खड़ा होता है। 1 अगस्त 1920 को उनके अवसान की खबर सुनकर लाहौर में अश्रुधारा बहाने वाले महाशय की उक्तियों के बिना लोकमान्य और राजर्षि की चर्चा आगे ही नहीं बढ़ती।
भारतीय राष्ट्रवाद के इन दो महानायकों के बीच सेतु साबित हुए लाला लाजपत राय ने उस दिन अपने आंसुओं को पोंछने पर कहा कि तिलक का अवसान मुमकिन नहीं है। क्या गृह मंत्री की बातों से ऐसा ही संदेश ध्वनित नहीं होता है? उस दिन लालाजी ने 2 कोर्ट स्ट्रीट लाहौर स्थित साढ़े छह एकड़ में फैले अपने घर का छोटा सा हिस्सा पत्नी और बच्चों के लिए रखकर तीन चौथाई तिलक स्कूल को दान कर दिया था। अगले साल डीएवी से मोहभंग होने पर उन्होंने सर्वेंट्स ऑफ द पीपल सोसायटी वहीं शुरु किया। इसे हिन्दी आंदोलन के नेता टंडन लोक सेवक मंडल कहते हैं। इन दोनों संस्थानों को उन्होंने एक ही सिक्का का दो पहलू माना था। दूध में मौजूद मक्खन की तरह लोक सेवकों में तिलक स्कूल के उपस्थिति के प्रमाण कम नहीं हैं। राजर्षि न केवल इसके पहले विद्यार्थी थे, बल्कि आजाद भारत में इसके बेहतरीन प्रवक्ता साबित होते हैं। पीछे मैंने कृष्ण कांत जी को आखिरी विद्यार्थी कहा था। इसकी वजह बीस साल पहले उपराष्ट्रपति निवास में हुए उनके दुखद अंत के बाद इस स्कूल से सक्रिय राजनीति की ओर रुख नहीं करने का मामला है। अमित शाह की बातों पर गौर करने से एक बार फिर राजनीति के उस स्कूल की ओर कदम बढ़ जाते। इस दिशा में उनके परपोते शैलेश तिलक और लोक सेवक मंडल के अध्यक्ष राज कुमार जैसे विद्वानों से मदद मिलती है।
इस पृष्ठभूमि के अभाव में आज लोकमान्य और राजर्षि की चर्चा बोधगम्य नहीं रहती है। जनवरी 1897 मे पुणे और बंबई (मुंबई) में प्लेग की महामारी फैली थी। कोरोना के कारण पैदा हुई स्थिति से उसकी तुलना भी आज संभव है। रैंड को प्लेग कमिश्नर नियुक्त किया गया। उसने बल का दुरुपयोग और लोगों पर अत्याचार ही किया। इसके विरोध में केसरी और मराठा में अग्रलेख लिखकर लोकमान्य ही आवाज बुलंद करते हैं। क्वीन विक्टोरिया के डायमंड जुबली के अवसर पर 22 जून को चापेकर बंधुओं द्वारा रैंड और उसके सुरक्षा अधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। तिलक की अभिव्यक्ति को हत्या से जोड़ा गया और डेढ़ साल की कैद हुई। छूटने पर देश भर में उनका सम्मान हुआ। राष्ट्रीय स्तर पर गोखले के बराबर मान्यता भी मिली। राजनीति के तिलक स्कूल को उनके प्रपौत्र शैलेश तिलक उसी दौर से सक्रिय मानते हैं। सांप्रदायिकता के आरोपों पर सुधीन्द्र कुलकर्णी के सटीक जवाब पर गौर करना चाहिए। जिन्ना और तिलक के बीच 1916 में हुए लखनऊ पैक्ट में अंग्रेजों से मुकाबले के लिए हिंदू मुस्लिम एकता की बात सामने आई। इसकी समझ आज प्रासंगिक है। फिर खिलाफत आंदोलन के दौरान हिंदू मुस्लिम एकता की बात होने लगी और महात्माजी की हिमालयन भूल से तुष्टिकरण की नींव भी पड़ी।
उत्तर प्रदेश की विधान सभा 1937 में बनती है। इसके पहले अध्यक्ष भारत रत्न पुरुषोत्तम दास टंडन हुए। महात्माजी उनको राजर्षि कहते हैं। उन्होंने 1930 में नो टैक्स कैंपेन छेड़ा तो समर्थन के लिए नेहरू भी पहुंच गए थे। उनकी दोस्ती में विस्तार के बाद ढलान आता गया। जब 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में नेहरु उनके खिलाफ आचार्य कृपलानी को खड़ा करते हैं। इसमें जीत दर्ज कर उन्होंने परचम लहरा दिया था। कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने देश विभाजन का प्रस्ताव पेश किया और इसको सम्मति देने को उन्होंने मुस्लिम लीग और फिरंगियों के सामने आत्म समर्पण माना। हिन्दू मुस्लिम सवाल पर नेहरू की नीतियों की अपेक्षा के.एम. मुंशी, सरदार पटेल और राजेन्द्र प्रसाद के करीब उन्हें पाते हैं। योगी आदित्य नाथ की सरकार अपने इस नायक के निशान आज जब खोजने चली तो इसे कुचलने में लगी सेक्युलर स्कूल की रणनीति छिपी नहीं रह गई।
1880 के दशक में डेक्कन शिक्षा संस्थान और केसरी व मराठा जैसे पत्रों के साथ राजनीति शुरु करने वाले तिलक की व्याख्या चालीस साल के बाद लालाजी बेहतर करते हैं। बीसवीं सदी में भारतीय राजनीति इस पीठ को लाल बाल पाल की त्रिमूर्ति मानती रही। राष्ट्रीय नवजागरण की नींव डालने में उन्होंने लालाजी और विपिन चंद्र पाल के साथ केंद्रीय भूमिका निभाई। स्वदेशी और स्वराज के सपनों को छिन्न भिन्न करने के लिए 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन की रणनीति अपनाई। त्रिमूर्ति ने जोरदार विरोध कर सरकार को विभाजन वापस लेने के लिए विवश कर दिया था। उसी दौर में मदन मोहन मालवीय, वीर सावरकर व अरविन्द घोष जैसे नेताओं के सामूहिक प्रयास के कारण व्यापक फलक पर भारतीय राष्ट्रवाद परिभाषित हुआ। इसे आजादी के बाद धार देने वालों में राजर्षि अद्वितीय हैं। वे आर्य समाज और राधा स्वामी संप्रदाय के करीब थे। लोक सेवकों को विचलित हुए बिना कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने का संदेश उनकी पहचान है। राजनीति का कोई भी स्कूल उनकी शिक्षाओं के अभाव में अधूरा ही रहता है।
स्वंत्रता संग्राम एवं राष्ट्र निर्माण में योगदान देने वाले इन दोनों नेताओं को आजादी के अमृत महोत्सव में याद करना संविधान के अनुच्छेद 51 की भावनाओं के अनुरुप है। आजाद भारत में यदि सेक्युलर स्कूल की रणनीति सफल नहीं हो पाती तो इन्हें याद करते हुए आज तकलीफ नहीं होती। जेहादियों के चंगुल से देश को बचाने के लिए तिलक स्कूल की कक्षाएं आज प्रासंगिक हो गई है। संस्कृति के संरक्षण और विकास के बीच सामंजस्य स्थापित कर बढ़ने की योजना वहां प्रस्फुटित होती है। राजनीति और लोक सेवा के क्षेत्र में अवसर तलाशने वालों के लिए उनकी शिक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रवाद और समाजवाद के संगम की राजनीति राजर्षि और फिरोज चंद के साथ का प्रतीक साबित हुई तो पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री व गुजरात के दूसरे मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता के उत्कर्ष का कारण भी बनी थी। राजनीति का यह विद्यापीठ यदि मूर्त रुप ले तो पुरुषोत्तम दास टंडन चेयर से युक्त हो।
पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह उपराष्ट्रपति निवास से आंखों देखा हाल बयां करते हैं। 104 साल के बूढ़ी माता की गोद में धरे कृष्ण कांत जी की मृत काया की कल्पना से पीड़ा होती है। भारत पाक युद्ध के तेरहवें दिन 1965 में बलवंत राय मेहता और युद्ध के बाद 1966 में शास्त्री के अवसान के अलावा स्वतंत्र भारत में तिलक स्कूल से जुड़ा यह तीसरा दुखांत भी हृदय विदारक ही रहा है। सरकार को इस तथ्य को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना चाहिए। गोपाल कृष्ण गोखले व लालाजी जैसे राजनेता ने सामाजिक राजनीतिक जीवन में समर्पित लोगों की कमी पूरा करने का महायज्ञ शुरु किया था। इसे आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बड़े फलक पर पहुंचा दिया। भारतीय संस्कृति और समाज के बीच सामंजस्य के साथ शांति व समृद्धि के पथ पर बढ़ने हेतु आपसी सहयोग भी सुनिश्चित करना चाहिए। लोकमान्य और राजर्षि की स्मृतियों और शिक्षाओं के सहारे इस महायज्ञ की सिद्धि असंभव नहीं है।