प्रकाश मेहरा
एग्जीक्यूटिव एडिटर
नई दिल्ली: 25 जून 1975 को भारत के इतिहास में एक काले अध्याय की शुरुआत हुई, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने देश में आपातकाल (Emergency) की घोषणा की। यह आपातकाल 21 महीने तक, यानी 21 मार्च 1977 तक लागू रहा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत, तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने “आंतरिक अशांति” का हवाला देकर इसकी घोषणा की। यह स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे विवादास्पद और दमनकारी काल माना जाता है, जिसने लोकतंत्र, नागरिक स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी पर गहरा आघात किया।
इंदिरा गांधी की सरकार के लिए चुनौती !
आपातकाल की घोषणा के पीछे कई राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी कारण थे, जो उस समय की परिस्थितियों में उभरे। कुछ प्रमुख कारण थे। इंदिरा गांधी का न्यायपालिका से टकराव 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया, जिसमें कहा गया कि संसद, दो-तिहाई बहुमत के बावजूद, संविधान के मूलभूत अधिकारों को खत्म या सीमित नहीं कर सकती। यह फैसला इंदिरा गांधी की सरकार के लिए चुनौती बना।
1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने रायबरेली सीट से भारी जीत हासिल की थी, लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें इंदिरा पर चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप लगाया गया। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया और उन पर 6 साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी। यह फैसला उनके लिए बड़ा झटका था।
जयप्रकाश नारायण का आंदोलन
1970 के दशक में देश में आर्थिक संकट, बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश बढ़ रहा था। जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने बिहार में एक बड़ा छात्र आंदोलन शुरू किया, जो जल्द ही पूरे देश में फैल गया। जेपी ने “संपूर्ण क्रांति” का नारा दिया और इंदिरा गांधी से इस्तीफे की मांग की।
जेपी ने सेना, पुलिस और सरकारी कर्मचारियों से सरकार के गलत आदेशों का पालन न करने की अपील की, जिसे इंदिरा ने “अराजकता” करार दिया।
राजनीतिक अस्थिरता
इंदिरा गांधी की सरकार ने 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण और 1970 में राजघरानों के प्रिवी पर्स (विशेष भत्ते) को खत्म किया, जिससे उनकी छवि गरीब समर्थक के रूप में बनी। हालांकि, इन फैसलों ने कई प्रभावशाली समूहों, जैसे राजपरिवार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS), को उनके खिलाफ कर दिया।
विपक्षी दलों, जैसे जनसंघ, समाजवादी पार्टी और अन्य, ने इंदिरा सरकार के खिलाफ एकजुट होना शुरू कर दिया। इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी का सरकार के फैसलों में बढ़ता प्रभाव भी आपातकाल का एक कारण माना जाता है। संजय ने कई विवादास्पद नीतियां, जैसे जबरन नसबंदी अभियान, को लागू करने में अहम भूमिका निभाई।
कब हुई आपातकाल की घोषणा
25 जून 1975 की रात को, इंदिरा गांधी ने बिना कैबिनेट की औपचारिक बैठक के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकाल की सिफारिश की। राष्ट्रपति ने मध्यरात्रि में इस पर हस्ताक्षर कर दिए, और देश में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह, 26 जून 1975 को रेडियो पर इंदिरा गांधी ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा: “राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।”
आपातकाल की घोषणा के साथ ही मेंटेनेंस ऑफ इंटर्नल सिक्योरिटी एक्ट (MISA) और डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स (DIR) के तहत सरकार को व्यापक अधिकार मिल गए।
आपातकाल के दौरान क्या हुआ ?
आपातकाल के 21 महीनों में भारत ने अभूतपूर्व दमन और नागरिक स्वतंत्रता के हनन का सामना किया। प्रमुख घटनाक्रम निम्नलिखित थे मौलिक अधिकारों का निलंबन संविधान के तहत नागरिकों के मौलिक अधिकार, जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की आजादी और जीवन का अधिकार, निलंबित कर दिए गए। MISA के तहत बिना मुकदमा चलाए लोगों को जेल में डाला जा सकता था।
विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी
आपातकाल की घोषणा के तुरंत बाद, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू हो गईं। जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीस, मोरारजी देसाई जैसे प्रमुख नेता जेल में डाल दिए गए। अनुमान के मुताबिक, 1 लाख से अधिक लोग बिना किसी सुनवाई के जेल में बंद किए गए।
मीडिया पर सख्त सेंसरशिप लागू की गई। हर अखबार में सेंसर अधिकारी तैनात किए गए, और सरकार विरोधी खबरें छापने पर पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया। कई समाचार पत्रों ने विरोध में अपने संपादकीय पृष्ठ खाली छोड़ दिए।

पत्रकारिता की स्वतंत्रता को कुचला गया: प्रकाश मेहरा
पत्रकार प्रकाश मेहरा कहते हैं कि “आपातकाल में प्रेस पर सेंसरशिप ने न केवल पत्रकारिता की स्वतंत्रता को कुचला, बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कमजोर कर सरकार की मनमानी को बढ़ावा दिया। इस दौरान 200 से अधिक पत्रकारों को जेल में डाला गया, और कई अखबारों को सरकारी दबाव में काम करना पड़ा। यह दौर पत्रकारिता के लिए एक सबक रहा कि स्वतंत्र प्रेस लोकतंत्र की रक्षा के लिए कितना महत्वपूर्ण है।”
देशभर में जबरन नसबंदी अभियान !
संजय गांधी के नेतृत्व में देशभर में जबरन नसबंदी अभियान चलाया गया, जिसका उद्देश्य जनसंख्या नियंत्रण था। पुरुषों को उनकी इच्छा के खिलाफ नसबंदी के लिए मजबूर किया गया, जिससे व्यापक जनाक्रोश पैदा हुआ। इस अभियान ने विशेष रूप से ग्रामीण और गरीब समुदायों को प्रभावित किया। रुखसाना सुल्ताना जैसे संजय गांधी के सहयोगियों को इस अभियान के लिए कुख्याति मिली।
आपातकाल के दौरान 42वां संवैधानिक संशोधन पारित किया गया, जिसने संसद की शक्तियों को बढ़ाया और न्यायपालिका की शक्तियों को सीमित किया। इसे “मिनी संविधान” भी कहा गया।
इस संशोधन ने आपातकाल को और लंबा खींचने की कोशिश की, लेकिन यह जनता के बीच और विवादास्पद साबित हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) सहित 24 संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अकाली दल जैसे अन्य संगठनों ने भी आपातकाल का विरोध किया। अमृतसर में 9 जुलाई 1975 को अकाली दल ने “लोकतंत्र की रक्षा का अभियान” शुरू किया।
आपातकाल का अंत !
1977 में बढ़ते जनाक्रोश और अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण इंदिरा गांधी ने 18 जनवरी 1977 को लोकसभा भंग करने और आम चुनाव कराने की घोषणा की। सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया।
16-20 मार्च 1977 को हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी ने भारी बहुमत से जीत हासिल की, और मोरारजी देसाई देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी दोनों अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों से हार गए। कांग्रेस की सीटें 350 से घटकर 153 रह गईं। 23 मार्च 1977 को आपातकाल आधिकारिक रूप से समाप्त हो गया।
आपातकाल के परिणाम और प्रभाव
आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र की कमजोरियों को उजागर किया, लेकिन साथ ही जनता की ताकत को भी सामने लाया। 1977 के चुनाव में जनता ने दमनकारी सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया। इसने संवैधानिक प्रावधानों, खासकर अनुच्छेद 352, के दुरुपयोग पर सवाल उठाए।
आपातकाल ने प्रेस की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के महत्व को रेखांकित किया। इसके बाद प्रेस और जनता दोनों अधिक सजग हो गए। नसबंदी अभियान ने विशेष रूप से ग्रामीण भारत में गहरे घाव छोड़े। यह कांग्रेस की हार का एक प्रमुख कारण बना।
राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव
जनता पार्टी की जीत ने भारत में गैर-कांग्रेसी सरकारों का रास्ता खोला। यह पहली बार था जब केंद्र में 30 साल बाद गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। आपातकाल के बाद बनी सरकार ने शाह आयोग का गठन किया, जिसने आपातकाल के दौरान हुए दुरुपयोगों की जांच की। 2024 में, नरेंद्र मोदी सरकार ने 25 जून को “संविधान हत्या दिवस” के रूप में मनाने की घोषणा की, ताकि आपातकाल के दौरान संवैधानिक मूल्यों के दमन को याद किया जाए।
आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र पर एक “स्याह दाग” माना जाता है। यह अवधि नागरिक स्वतंत्रता के निलंबन, प्रेस पर सेंसरशिप, और जबरन नसबंदी जैसे दमनकारी कदमों के लिए याद की जाती है। आज भी, जब सरकारें असहमति को दबाने या आपातकालीन शक्तियों का उपयोग करने की बात करती हैं, तो 1975 का आपातकाल एक चेतावनी के रूप में सामने आता है।
25 जून 1975 को लागू हुआ आपातकाल भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक काला अध्याय है। यह सत्ता के दुरुपयोग, नागरिक स्वतंत्रता के हनन, और संवैधानिक मूल्यों की अवहेलना का प्रतीक है। हालांकि, इसने जनता की ताकत को भी दिखाया, जिसने 1977 के चुनाव में दमनकारी सरकार को उखाड़ फेंका। आपातकाल की यादें आज भी भारतीयों को सतर्क रहने और लोकतंत्र की रक्षा करने की प्रेरणा देती हैं।







