कौशल किशोर
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तीर्थ और मंदिर से जुड़े मामले में निर्देश दिया है। मथुरा के 197 मंदिरों का दीवानी अदालतों में लंबित मुकदमा इसमें सामने आता है। इनमें सबसे पुराना 1923 से लंबित है। न्याय के बादले रिसीवर नियुक्ति की परिपाटी पर उच्च न्यायालय कड़ी आपत्ति जताती है। न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल जिलाधीश से स्थानीय स्तर पर विचाराधीन मुकदमों के सूची मांगते हैं। रिसीवर के नाम पर पुराने मंदिरों का प्रबंधक बनने की होड़ अधिवक्ताओं में लगी है। इनकी मुकदमा निपटाने के बदले लम्बित करने में ही दिलचस्पी रहती है। यह खेल मथुरा वृंदावन तक सीमित नहीं है। हरिद्वार ऋषिकेश से लेकर नासिक त्र्यंबकेश्वर तक सभी तीर्थों में यह आज घातक रोग का रुप धारण कर चुका है। यह हिन्दू धर्म के सनातन तत्त्वों के प्रति लोगों की उदासीनता का ही नतीजा है। औपनिवेशिक काल से जारी राजनीतिक षड्यंत्र में फंस कर भारतीय धर्म और संस्कृति इस कुमार्ग पर बढ़ गई।
रिसीवर के पद पर वेद शास्त्रों के विद्वानों को नियुक्त करने की राय न्यायालय दे रही है। पश्चिमी देशों की तरह धार्मिकता से नई पीढ़ी की दूरी भारत में भी दस्तक देती है। न्याय और धर्म का पीठ माने जाने वाले इन मंदिरों की इस स्थिति से सामूहिक असफलता की गाथा सामने है। भविष्य में हिंदुओं के पीठ का पतन न हो, इसकी सिद्धि के लिए कई महत्वपूर्ण बातें सुझाई गई है। पर इनकी स्थिति संविधान में वर्णित नीति निर्देशक तत्त्व जैसे बाध्यकारी नहीं है।
हाई कोर्ट अवमानना के जिस मुकदमे में यह फैसला देती है, वह पच्चीस सालों से लंबित है। हैरत की बात है कि रिसीवर नियुक्ति के अलावा इसमें वादकारी का बयान ही दर्ज किया गया है। आज कानूनी संस्थान का रुप ले चुके “सेफ्टी वाल्व” को भांप कर एक न्यायमूर्ति किसी शायर का नाम लेकर कहते हैं कि “हम से इंसाफ चाहते हो, तुम्हारी नादानी है / हम उस अदालत के हाकिम हैं, जो दीवानी है”। देर से मिलने वाले न्याय को अन्याय मानना चाहिए। कचहरी में सालों साल मुकदमा चलाने के लिए वकालत का पेशा चलाने वाले इस व्यवस्था की रीढ़ हैं। महात्मा गांधी जैसे वकीलों को अपवाद मान कर कह सकते हैं कि शायरी करने वाले सेशन जज अकबर इलाहाबादी ठीक कहते थे, “पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा / लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए”।
अंग्रजों द्वारा तिरुपति बालाजी और जगन्नाथ पुरी जैसे मंदिरों को प्राप्त होने वाले दान पर कब्जा करने के लिए कानून बनाया गया। इन मंदिरों में सरकारी दखलंदाजी आज बदस्तूर जारी है। इसकी खिलाफत करने वाले हिन्दू समाज में कम नहीं रहे। किसी मस्जिद और गिरजाघर की तरह हिंदुओं के धार्मिक पीठों की स्वायतता कायम करने की बात पर सरकार मौन है। हथियारों के उपयोग के लिए प्रशिक्षित सिख और नागा हिंदुस्तानी मजहब के ऐसे योद्धा रहे जिन्हें आज खालिस्तानियों और उग्रवादियों के रुप में पहचान मिली है। आतंकवादियों की दूसरी फौज को तबलीगी जमात व मदरसों में पनाह मिलती है। जाने माने पत्रकार सुरेन्द्र किशोर हिन्दू मठ मंदिर के इस धन से आतंकवाद जैसी समस्या से देश बचाने के लिए स्थानीय स्तर पर फौजी दस्ता तैयार करने का सुझाव देते हैं। इसमें अग्निपथ पर अग्रसर होने वाले अग्निवीर भी सहयोगी हो सकते हैं। इस तरह मठ मंदिर देश को गाजा पट्टी बनने से रोकने में मददगार साबित होंगे।
संविधान में वर्णित धार्मिक स्वतंत्रता का सवाल विमर्श के केन्द्र में है। मण्डल कमीशन और दलितों के आरक्षण को समर्थन देने के बदले विरोध की नीति के कारण ही सवर्ण जातियों की राजनीति हाशिए की ओर बढ़ती चली गई। ऐसी ही भूल आज पिछड़ों के आरक्षण से क्रीमीलेयर को बाहर करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर दोहराती दिखती है। क्या जातियों की तरह धर्म के नाम पर भी ऐसा होगा? मन्दिर और मस्जिद के नाम पर न्यायालय से विधान भवन तक घमासान मचा है। वक्फ बोर्ड की विवादित संपत्ति का मामला आज मथुरा वृंदावन के मंदिरों की तरह “सेफ्टी वाल्व” में फंसती प्रतीत होती है। इमाम की तरह मंदिर के पुजारियों की ओर से भी सरकारी खजाने से वेतन की मांग होने लगी। उत्तर आधुनिक काल में केवल पीर फकीर और मौलवी ही नहीं, बल्कि साधु संत और पुजारी पंडित के बीच भी सर्वाहारा जैसी दुर्दशा झेलने वाले लोग बड़ी संख्या में मौजूद हैं। धार्मिक पीठों से होने वाली आय का वितरण इन लोगों के बीच करना चाहिए। कम पड़ने पर लोक कल्याण का दावा करने वाली सरकार को पूरा भी करना चाहिए। कांग्रेस पार्टी के न्याय पत्र से लेकर भाजपा के संकल्प पत्र तक इस उदारता की कमी अखड़ती है। इसे कौन दूर करेगा? यह सवाल भी मोदी और योगी के राज में उठता है।
जहां तक मंदिर मस्जिद की संपत्ति का सवाल है, इसमें अयोध्या से लेकर मथुरा और काशी तक अवैध कब्जे का मामला अरसे से सुर्खियों में रहा है। भारतीय संविधान की सेक्युलर आत्मा धर्म को निजी मामला मान कर राजनीति की परिधि से बाहर कर देती है। समानता और उदारता की तामाम बातों के साथ तुष्टिकरण हावी है। ईसाइयत और इस्लाम ही नहीं बल्कि हिन्दू धर्म भी राजनीतिक अवधारणा साबित हुई। क्या वामपंथ व इस्लाम का बेमेल निकाह इसी भूमि पर संपन्न नहीं हुआ है? रूढ़ियों में फंसे इन तथाकथित धर्मों का शाश्वत धर्म से वास्तविक सम्बन्ध पर सवाल उठते रहे हैं। सनातन होना ही केवल शाश्वत धर्म का पर्याय है। क्या किसी पंथ के विषय में ऐसा कहा जा सकता है? ये विमर्श धार्मिक स्वतंत्रता के अनुच्छेद 25 से 28 तक की गिनती में सिमटती गई।
धर्म और जाति की राजनीति में लग कर भारत भी पाकिस्तान व बांग्लादेश के बाद खालिस्तान जैसी संभावनाओं का दूसरा नाम साबित होगा। इस बात को ध्यान में रख कर राजनीतिक जमात सभी धर्मों और जातीय समूहों का विश्वास अर्जित कर समझदारी का परिचय दे तो अच्छा होगा। यहां एक प्रश्न उठता है। यह काम करने में यदि सरकार समर्थ नहीं है तो क्या विपक्ष में ऐसी क्षमता विकसित हो गई है? धर्म और जाति की विविधताओं को संज्ञान में रखते हुए पड़ोसी देशों के साथ बेहतर और विश्वसनीय संबंध अब भी संभव है।
जमीन पर धर्म की राजनीति का अर्थ मंदिर और मस्जिद से लेकर गिरिजाघर, गुरुद्वारा और मसान तक पसरी हुई है। विचारधारा और संगठन के बीच की राजनीति वैमनस्य व विभाजन के समीकरणों से परे नहीं है। इसमें पश्चिम से आयात की गई चीजें ही अपरिहार्य अवयव साबित हुई। इस औपनिवेशिकता के कायम रहते भारतीय उपमहाद्वीप और एशिया में पारस्परिक संबंध यूरोपियन यूनियन के जैसे तो नहीं हो सकता है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता मोहन भागवत अवतारी पुरुष होने के दावे पर एक बार फिर से प्रहार करते हैं। हालांकि उनको प्रसन्न करने का प्रयास प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी लाल किले की प्राचीर से कर रहे थे। सेक्युलर नागरिक संहिता, समान नागरिक संहिता और वक्फ कानून पर बहस छिड़ने का असर भी दिख रहा है। नेताओं के साथ विचार विमर्श की लोकतांत्रिक प्रक्रिया चर्चा में है। इसके लिए व्यापक समर्थन जुटाने की चुनौती आज सरकार के सामने है। दूसरे धर्मावलंबियों को वक्फ से बाहर रखने की मांग हो रही है।
धार्मिक पीठों का प्रबंधन स्वायतशासी होना चाहिए। इसमें किसी सरकार और दूसरे धर्म को मानने वालों की दखलंदाजी ठीक नहीं है। सुधार की प्रक्रिया में सहयोगी हो सकें, इस उद्देश्य से उन्हें भी शामिल किया जाना चाहिए। पड़ोसी से बेहतर संबंध की नीति के अभाव में यह लक्ष्य सिद्ध नहीं होता है। इसके साथ ही यह ख्याल रखना चाहिए कि धार्मिक पीठों के प्रति भक्ति की भावना बनी रहे।
ये लेखक के अपने निजी विचार है.