प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली। एमएसपी पर कानून की मांग को लेकर केंद्र और किसान संगठनों के बीच टकराव की स्थिति के मद्देनजर पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने उचित ही कहा है कि कानून-व्यवस्था बनाए रखी जाए और बल का इस्तेमाल आखिरी उपाय के तौर पर ही हो। निस्संदेह, देश के अन्नदाताओं के विरुद्ध बल प्रयोग किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का अभीष्ट नहीं हो सकता, न होना चाहिए, मगर उसके ऊपर यह जिम्मेदारी भी आयद है कि वह ऐसी किसी अराजकता या अव्यवस्था की मूकदर्शक बनी नहीं रह सकती, जो व्यापक नागरिक समाज की जिंदगी को परेशानी में डालती हो। 12 फरवरी की रात केंद्र सरकार व किसान संगठनों के प्रतिनिधियों की बातचीत के विफल रहने के बाद यह अंदेशा था कि 13 को प्रदर्शनकारी किसान दिल्ली में घुसने की कोशिश करेंगे और मंगलवार को शंभू बॉर्डर पर जो परिस्थिति पैदा हुई, उसने इसे सही साबित किया। दिल्ली के सिंधु, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर भी सुरक्षा के भारी इंतजाम के कारण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आवागमन पर काफी असर पड़ा है। सर्विस लेन के बंद होने से इन क्षेत्रों में जाम की स्थिति बन गई है और लोगों को काफी दूर-दूर तक पैदल चलना पड़ रहा है।
तीन कृषि कानूनों का विरोध
साल 2020 में जय तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध पहली बार किसान दिल्ली के बॉर्डर पर धरना देने बैठ गए थे, तब भी स्थानीय लोगों को काफी परेशानी हुई थी, मगर उस अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण धरने को आम लोगों की सहानुभूति हासिल थी, क्योंकि देश का एक बड़ा जन- समुदाय खेती-किसानी से जुड़ा है, या जो लोग कृषि कर्म से अलग होकर शहरों-महानगरों में आ बसे हैं, उनकी पुरानी पीढ़ियों में अब भी इस वर्ग के प्रति गहरी हमदर्दी कायम है। मगर 26 जनवरी, 2021 को लाल किले में जैसी अशोभनीय घटना घटी, उसने उस आंदोलन के प्रति आम लोगों का नजरिया बदल दिया था। हालांकि, किसानों और नागरिक में सरकार ने उन तीनों भावनाओं का सम्मान करते हुए बाद कानूनों को वापस ले लिया था और तब केंद्र व किसानों के बीच विश्वास बहाली का आधार बना था।
क्या आंदोलन को नैतिक धार?
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि जव जव चुनाव करीब आते हैं, तब सरकार से सहूलियत चाहने वाले वर्ग और कर्मचारी संगठन आंदोलनों का सहारा लेते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, यदि वे संविधान प्रदत्त अधिकारों के साथ-साथ अपने नागरिक कर्तव्यों का भी निबाह कर रहे हों, मगर सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने और विधि- व्यवस्था को बाधित करने की किसी भी कार्रवाई की कतई हिमायत नहीं की जा सकती। प्रदर्शनकारी किसानों को नहीं भूलना चाहिए कि आम नागरिकों को परेशानी में डालकर वे न तो अपने आंदोलन को नैतिक धार दे सकते हैं और न ही इसके लिए व्यापक समर्थन जुटा सकते हैं। निस्संदेह, सरकार के आगे गंभीर चुनौती है। इस चुनावी समय में वह विशाल किसान समुदाय को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती, तब तो और, जब उसकी मुख्य प्रतिपक्षी पार्टी कांग्रेस ने अपनी सरकार बनने की सूरत में स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, एमएसपी कानून की गारंटी देने का दांव चल दिया है। मुश्किल यह है कि सरकार के पास बहुत वक्त भी नहीं है। उसे प्रतीकों की सियासत से बढ़कर किसानों को आश्वस्त करना ही होगा, क्योंकि अभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश शांत है, अगर वहां के किसानों ने कूच किया, तो इस आंदोलन को शांत करना और दुरूह हो जाएगा।