दिल्ली। केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय दिल्ली में आज प्रणाणवार्तिक तथा बौद्ध दर्शन के तुलनात्मक विमर्श को लेकर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन हुआ। कुलपति प्रो श्रीनिवास वरखेड़ी ने कहा कि इन दोनों न्यायशास्त्रों की सुदीर्घ समन्वित धाराएं भारतीय दर्शन के लिए गौरवशाली कालखंड रहा है। इस अक्षुण्ण परंपरा को पुनर्स्थापित किये जाने की विशेष आवश्यकता है।
कुलपति प्रो वरखेड़ी का यह भी मानना था कि जब तक हम अपने पूर्व पक्ष को मजबूत नहीं मानेंगे तब तक अपना उत्तरपक्ष ठीक से स्थापित नहीं कर सकते हैं। जबकि दोनों न्याय ने सदियों से विमर्श के इस तात्त्विक परंपरा से अपनी अपनी परंपरा को प्रक्षालित करती रही है । इसका भी ध्यान रहे कि विषय में हम जिस मानसिकता से प्रवेश करते हैं वैसी ही अवधारणा भी बनती है। अतः तटस्थ होकर परकाया ( विषय के) प्रवेश करना चाहिए। अतः दोनों दर्शनों में तटस्थता समय की मांग है और साथ ही साथ इस समन्वयवादी अवधारणा को फिर से स्थापित किया जाय।
इस प्रसंग में उन्होंने वाचस्पति मिश्र का उल्लेख करते कहा कि दार्शनिक मिश्र संस्कृत के अनेक विधाओं की विद्या के मूर्धन्य विद्वान थे।लेकिन वे अपनी टीका में सटीकता तथा तटस्थता का ही परिचय दिया। कुलपति, प्रो रजनीश शुक्ल, अन्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा ने कहा कि यूरोपीय दर्शन में शेरेवात्सकी ने जो दर्शन के क्षेत्र में समन्वय का कार्य किया, वैसा ही महत्त्वपूर्ण कार्य धर्मकीर्ति ने भारतीय दर्शन के पूर्व तथा उत्तर पक्षों के विमर्श के लिए किया है। प्रो शुक्ल ने यह भी कहा कि सीएसयू के कुलपति प्रो वरखेड़ी ने ऐसे युगीन संगोष्ठी का आयोजन किया है जिससे भारतीय दर्शन के अनेक नये संवादों की शुरुआत होगी । उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि अब यह समय आ गया है कि हम उस बात पर चर्चा आरंभ करें जिसे शेरेवात्सकी भारतीय सन्दर्भ में पूरी तरह समझ नहीं पाये हों।
प्रो ए डी शर्मा, संकाय अध्यक्ष, डा हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर ने भारतीय दर्शन की परंपरा का परिचय देते धर्मकीर्ति के मौलिक योगदानों का जिक्र करते कहा कि धर्मकीर्ति का प्रमाणवार्तिक सच्चे अर्थों में वार्तिक ग्रंथ माना जा सकता है क्योंकि इसमें प्रयोजन, संशय, संशय निराकरण, व्याख्या, गुण प्रदर्शन, व्यर्थ विचार का अभाव तथा लाघव विचार के सभी गुण भरे पड़े हैं। साथ ही साथ प्रो शर्मा ने यह भी कहा कि भारतीय दर्शन तथा बौद्ध दर्शन में न्याय दर्शन को लेकर एक सुदीर्घ परंपरा रही है। लेकिन इस तथ्य को भी पुनर्भाषित करने का समय आ गया है कि यह ऊर्जस्वी धारा आखिर क्यों कमजोर पड़ती चली गयी और अन्य देशों ने इसमें अपना महत्त्व स्थापित कर लिया ? इस सन्दर्भ में उन्होंने नागार्जुन की विध्वंसात्मक प्रमाणशास्त्र की भी चर्चा उठायी।
प्रो एस आर भट्ट, अध्यक्ष, अखिल भारतीय दर्शन परिषद् ने कहा कि यह संगोष्ठी समयानुकल है क्योंकि प्रमाणवार्तिक में समन्वित चिन्तन को विशेष महत्त्व दिया गया है। आज के उद्घाटन सत्र में हिन्दी पखवाड़ा में प्रथम, दूसरे तथा तीसरे स्थान प्राप्त विजेताओं को सम्मानित भी किया गया। इन प्रतियोगिताओं में हिन्दी निबंध प्रतियोगिता, हिन्दी टिप्पण और प्रारुप लेखन तथा हिन्दी कार्य के संबंध में प्रोत्साहन योजना के अन्तर्गत पुरस्कार दिया गया है। इसमें पहली प्रतियोगिता में डा प्रवीण कुमार राय,डा लोकेश कुमार गुप्ता तथा श्रीमति शशी रावत को उत्कृष्ट घोषित किया गया । दूसरे में ,हिन्दी टिप्पण और प्रारुप लेखन में पहले दूसरे तथा तीसरे स्थान पर डा लोकेश कुमार गुप्ता तथा संजय कुमार शर्मा श्री किशन लाल सैनी रहे। तीसरी प्रतियोगिता में कुमारी आरती, श्री उदय भान आर्य दोनों प्रथम, श्रीमति सोनिया यादव श्री रवि कुमार, श्री राम निवास, तीनों दूसरे स्थान तथा श्री किशन लाल ,सैनी ,श्री विनोद कुमार ,श्री राजीव कुमार सिंह, श्रीमती गंगा शर्मा तथा श्री ओम प्रकाश तीसरे स्थान पर रहें
आज के उद्घाटन सत्र में प्रो काशीनाथ न्यौपाने, नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय, काठमांडू, नेपाल की पुस्तक का भी विमोचन भी किया गया जिसको प्रो न्यौपाने ने धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक का समग्र रुप से भाष्यात्मक हिन्दी अनुवाद किया है। इसके विमोचन के अवसर पर कुलपति प्रो वरखेड़ी ने कहा कि ऐसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक के प्रकाशन से जहां पाठकों तथा अनुसंधान कर्ताओं को प्रमाणित सामग्री मिलेगी वहीं हिन्दी भाषा की शब्द सम्पदा की श्रीवृद्धि होगी। दीपक कुमार अधिकारी, निदेशक, नीति अनुसंधान प्रतिष्ठान, नेपाल ने बताया कि इस पुस्तक को चीन देश वाले अपनी भाषा में अनुवाद करना चाहते थे । इससे भी इस पुस्तक तथा इसके ठोस अनुवाद की भी पुष्टि होती है।