प्रकाश मेहरा
एक्जीक्यूटिव एडिटर
नई दिल्ली: दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न के वाकये सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते जा रहे हैं और उनकी जघन्यता भी, इसलिए आवश्यक है कि बलात्कार क्यों होते हैं, इस पर भी विचार किया जाए। देश में उत्सवों और त्योहारों का दौर चल रहा है, पर बार- बार कोलकाता कांड की खबरें सुर्खियों में आ-जा रही हैं। डॉक्टरों और युवाओं की नाराजगी का दौर थम नहीं रहा है। एक प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ अस्पताल में हुई बर्बरता का गहरा साया नौजवानों को सता रहा है। आक्रोश इस तरह फूटा है कि सर्वोच्च न्यायालय को भी खुद संज्ञान लेकर निर्देश जारी करने पड़े हैं।
महिलाओं की सुरक्षा के बिना साकार हो सकता है?
समाचार-पत्रों में बलात्कार, यौन उत्पीड़न की घटनाओं की प्रचुरता हो गई है। असम में 14 वर्षीय लड़की का गैंगरेप, बदलापुर (महाराष्ट्र) में अबोध बच्चियों का त्रासद प्रकरण, अन्य स्थान पर 70 वर्षीय बुजुर्ग महिला से बलात्कार और स्पेनिश पर्यटक का छत्तीसगढ़ में गैंगरेप। उधर, हेमा रिपोर्ट के बाद केरल के फिल्म उद्योग में महिला कलाकारों के शोषण का मामला सुर्खियां बटोर रहा है। ये सब घटनाएं सोचने को मजबूर करती हैं कि क्या किसी भी उम्र की लड़कियां या महिलाएं सुरक्षित हैं? स्कूल, सड़क, बस, अस्पताल, यहां तक कि कई बार अपने घर में भी क्या महिलाएं सुरक्षित हैं? क्या हमारा अमृत काल आधी आबादी, यानी महिलाओं की सुरक्षा के बिना साकार हो सकता है? भौतिक, आर्थिक व औद्योगिक विकास तो सामाजिक विकास या सुरक्षा के बिना अधूरा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, प्रत्येक 16 मिनट में देश में एक बलात्कार होता है और प्रत्येक घंटे महिलाओं के विरुद्ध 50 अपराध होते हैं।
अपराधों में बलात्कार के रिकॉर्ड सबसे कम!
प्रत्येक दिन देश में 86 बलात्कार रिपोर्ट होते हैं। यह भी कहा जाता है कि सभी अपराधों में बलात्कार सबसे कम रिपोर्ट होता है और 63 प्रतिशत बलात्कार तो दर्ज ही नहीं होते। 10 प्रतिशत बलात्कार अवयस्क, यानी 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ होते हैं और 89 प्रतिशत मामलों में बलात्कारी जान-पहचान का व्यक्ति होता है। यह बिंदु भी विचारणीय है कि बलात्कार के आंकड़ों में वे प्रकरण सम्मिलित नहीं हैं, जिनमें बलात्कार का प्रयास होता है या बलात्कार के उपरांत हत्या की जाती है। मतलब,महिला विरोधी कुल अपराधों की संख्या बहुत ज्यादा है। ये केवल आंकड़े नहीं हैं। प्रत्येक आंकड़े के पीछे एक बच्ची या महिला का पूरा जीवन है और उसका परिवार है। बहुत आक्रोश जताने के कुछ ही समय बाद शोषण की शिकार महिला को लोग भूल जाते हैं। अनेक पीड़िताएं मनोवैज्ञानिक रूप से पंगु हो जाती हैं। एक ही तो जीवन है, जो हमेशा के लिए बोझ बन जाता है। परिवार की त्रासदी भी असहनीय हो जाती है।
निर्भया मामले के बाद प्रशासन सख्त?
निर्भया मामले के बाद शासन ने बालिकाओं के लिए बहुत प्रयास किए हैं – शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन के प्रयास, गुड टच या बेड टच, चाइल्ड हेल्पलाइन, वूमेन पावर लाइन, चौबीस घंटे चलने वाले सहायक कॉल सेंटर, महिला हेल्प डेस्क, महिला थाना, पिंक बूथ, जनपद स्तर पर महिला व बाल सुरक्षा संबंधित प्रकोष्ठ इत्यादि के बावजूद बलात्कार व यौन उत्पीड़न के वाकये सुरसा के मुख की तरह बढ़ते जा रहे हैं और उनकी जघन्यता भी। इसलिए आवश्यक है कि बलात्कार क्यों होते हैं, इस पर भी विचार किया जाए।
महिलाओं को बरगलाने की कोशिश!
बलात्कार के संदर्भ में सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों के संबंध में, रेश्मा पिल्लै आदि ने युवा पुरुषों के बीच सर्वेक्षण किया। इस अध्ययन में पाया गया कि हमारा समाज अभी भी पुरुष प्रधानता की संकीर्णता से ग्रसित है। आज के युग में जब सबके पास मोबाइल है, तो घातक अश्लीलता भी सभी तक पहुंच रही है। समस्या और भी विकराल होती जा रही है। बाल्यकाल में दुर्व्यवहार का सामना करना, रिश्तों के बारे में नकारात्मक सोच, भावनाओं पर कमजोर नियंत्रण, मादक द्रव्यों के अत्यधिक सेवन, यौन कुंठा या असंतोष आदि कारक विभिन्न अनुपातों में मिलकर बलात्कार की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि बना सकते हैं। महिलाओं की इच्छाओं और जरूरतों के बारे में पुरुष की गलत धारणा भी कारण हो सकती है। ऐसे पुरुष बहुत हैं, जो महिला की न को भी हां समझते हैं। हमारी अनेक फिल्में भी महिलाओं को छेड़ने और उनको घेरकर जबरन अपनी भावनाओं को थोपने के लिए प्रेरित करती हैं। ऐसे पुरुष अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा महिलाओं को बरगलाने की कोशिश करते हैं।
हिंसा और बलात्कार की आशंकाएं!
जब समाज में स्त्री को वस्तु की तरह देखा जाता है, तब हिंसा और बलात्कार की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। सामाजिक व नैतिक मूल्यों का पतन द्रुत गति से हो रहा है। हमारे पूर्वजों की प्राथमिकता क्रमशः ऐसी थी – समुदाय – परिवार – मैं। आज यह बिल्कुल उल्टी होती जा रही है। जब हम केवल अपने बारे में ही सोचेंगे, अपनी इच्छा, अपनी शक्ति, अपनी पूर्ति पर ही ध्यान देंगे, तो परिणाम भयानक होंगे और इस सामाजिक अराजकता से अंततः कोई भी अछूता नहीं रहेगा। स्कूलों के बारे में विशेष रूप से सोचना होगा। जब शिक्षक ही भक्षक बन जाए, तो क्या विद्योपार्जन होगा ?
हमारी सोच और मानसिकता हमारे कार्यस्थल पर भी हमारे साथ जाती है। कुछ वर्ष पहले एक थाने के निरीक्षण में पुरुष प्रधान मानसिकता का दृष्टांत मुझे देखने को मिला। एक नाबालिग लड़की के लापता होने की शिकायत पर दो दिन तक संबंधित कांस्टेबल ने कोई कार्रवाई नहीं की थी। उत्तर था कि कदाचित वह लड़की भाग गई होगी और कुछ दिन में वापस आ जाएगी। सवाल यह है कि यदि उस कांस्टेबल की अपनी लड़की दो दिन से लापता होती, तो भी क्या उसकी यही सोच होती? नियम, कानून, व्यवस्था पर्याप्त हैं, जरूरत है संवेदनशील पुलिसिंग की।
बलात्कार के प्रकरण में जांच की मियाद!
गौर कीजिए, बलात्कार के प्रकरण में जांच की मियाद दो महीने निश्चित है, पर वास्तव में इस समय सीमा में कितनी जांच हो पाती है? निर्भया प्रकरण में ही फास्ट ट्रैक कोर्ट के बावजूद फांसी होने में 12 वर्ष लग गए। पॉक्सो एक्ट के तहत एक वर्ष में सुनवाई पूरी हो जानी चाहिए, परंतु 87 प्रतिशत मामले साल भर बाद भी लंबित रहते हैं। केवल 10 प्रतिशत मामलों का एक साल में निपटारा होता है और उनमें भी केवल 20 प्रतिशत मामलों में ही दोष सिद्ध हो पाता है।
मतलब, महिला सुरक्षा के लिए अनेक स्तर पर सुधार व प्रबंध की जरूरत है। अपने परिवार, कार्यस्थल में पुरुष प्रधान संकीर्णता की सोच में बदलाव करें। पीड़िता की मदद करें। यौन उत्पीड़न करने वालों और उनके परिवार का सामाजिक बहिष्कार करें, चाहे वह हमारे रिश्तेदार या मित्र ही क्यों न हों। याद रहे, रिश्तों, दोस्ती, जाति, राजनीति, विचारधारा, चाहे जिस भी आईने से देखने की कोशिश कीजिए, बलात्कार सिर्फ बलात्कार होता है और उसका आरोपी अक्षम्य।