इस बार की महंगाई असल में बाजार में नकदी की अधिकता की वजह से नहीं रही है। बल्कि सप्लाई चेन बुरी तरह प्रभावित होने का भी यह परिणाम है। इसलिए ब्याज दरें घटाने का भी ज्यादा असर नहीं हुआ है। उलटे इस नीति की वजह से मध्य वर्ग पर कर्ज चुकाने का बोझ बढ़ा है।
मुद्रास्फीति दर में गिरावट से यह धारणा बनने या बनाई जाने लगती है कि अब महंगाई घटने लगी है। जबकि असल इसका मतलब सिर्फ यह होता है कि महंगाई बढऩे की दर में गिरावट आई है। यानी अगर ये दर बीते महीने की तुलना में आठ से घट कर सात प्रतिशत पर आ जाए, तो उसका अर्थ यह होगा कि जहां बीते महीने में चीजों के दाम आठ प्रतिशत बढ़े थे, वहीं संबंधित महीने में यह वृद्धि सात प्रतिशत की हुई। यानी महंगाई तो फिर बढ़ी। इसलिए हाल में भारत में आए आंकड़े किसी रूप में संतोष का कारण नहीं हो सकते। फिर यह देखने की बात भी है कि महंगाई दर में गिरावट (अगर यह टिकाऊ साबित होती है तो) किस कीमत पर आई है। भारतीय रिजर्व बैंक ने दुनिया के अन्य सेंट्रल बैंकों की तरह मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के लिए ब्याज दर बढऩे का तरीका अपनाया है। इसका एक परिणाम आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट के रूप में आना तय है। अब देखने की बात यह होगी कि क्या आर्थिक वृद्धि दर महंगाई दर से भी नीचे आ जाती है। अगर ऐसा हुआ, तो उस स्थिति स्टैगफ्लेशन कहा जाता है।
यह संकट का सूचक होता है। आज स्टैगफ्लेशन का खतरा लगभग दुनिया के तमाम देशों में है। अब तक अनुभव यह है कि ब्याज दरें बढ़ाने से महंगाई उस अनुपात में नहीं घटी है, जिसकी उम्मीद की गई थी। इसका एक कारण यह है कि इस बार की महंगाई असल में बाजार में नकदी की अधिकता की वजह से नहीं रही है। बल्कि सप्लाई चेन बुरी तरह प्रभावित होने का भी यह परिणाम है। इसलिए ब्याज दरें घटाने का भी ज्यादा असर नहीं हुआ है। उलटे इस नीति की वजह से मध्य वर्ग पर कर्ज चुकाने का बोझ बढ़ा है, जिससे उपभोग घटने के साफ संकेत हैं। उसका असर औद्योगिक विकास दर पर पड़ा है। स्टैगफ्लेशन की स्थिति को निर्मित करने में इस पहलू का भी योगदान है। यह दीगर बात है कि भारत सरकार की समस्या को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिख रही है।