प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली। चुनावी कवरेज के सिलसिले में पिछले दिनों विदर्भ और उत्तराखंड जाना हुआ। दिल्ली से नागपुर की उड़ान भरते वक्त लग रहा था कि वहां शुष्क और गर्म मौसम हमारा इंतजार कर रहा होगा। हुआ उल्टा। विमान जब शहर के ऊपर चक्कर लगा रहा था, हमारी खिड़की के शीशे पर बूंदें थाप दे रही थीं। इसके विपरीत उत्तराखंड में दिन में पारा 30 डिग्री पार कर रहा था।
हमारी हुकूमतें क्या कर रही हैं?
यह विलाप पुराना हो चुका है कि हमारा पर्यावरण बदल रहा है और हमें सम्हल जाना चाहिए। किसे सम्हल जाना चाहिए ? क्या सारी जिम्मेदारी सिर्फ साधारण नागरिकों की है? हमारी हुकूमतें क्या कर रही हैं? अपने देश में इस समय लोकसभा चुनाव हो रहे हैं, पर क्या आपने किसी नामचीन नेता के श्रीमुख से पर्यावरण संबंधी दो शब्द सुने ? यह दर्दनाक है कि हमारे सियासी विमर्श से जनता के असली मुद्दे कहीं गुम हो चुके हैं। अब हम महज कुछ घिसे-पिटे जुमलों, आरोपों और प्रवंचनाओं को सुनने के लिए अभिशप्त हैं, जिनका आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी से कोई वास्ता नहीं। इंसान के सर्वाधिक जरूरी मुद्दों पर राजनेताओं की यह चुप्पी असंवेदनशील आत्मघाती प्रवृत्ति को उजागर करती है।
दुनिया भर की बात किए बिना मैं सिर्फ अपने देश का उदाहरण देना चाहूंगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने पेयजल की कमी को लेकर चेताया है। उसने संसार के जिन सर्वाधिक संकटग्रस्त शहरों की सूची जारी की है, बेंगलुरु उनमें से एक है। यूएन के दावे के अनुसार, यदि वहां पानी की मौजूदा मात्रा में सन् 2030 तक 40 फीसदी की गिरावट आ जाती है, तो हमारी ‘आईटी सिटी’ का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। अभी ही वहां के हालात इतने बदतर हैं कि 13,900 सार्वजनिक बोरवेल में से 6,900 सूख चुके हैं। खुद उप-मुख्यमंत्री डी के शिवकुमार ने इस खौफनाक तथ्य को जगजाहिर किया था। मजबूरन, कई कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को घर से काम करने लिए कह दिया है। 1.4 करोड़ की आबादी वाला यह महानगर सिर्फ ‘आईटी सेक्टर’ से सालाना 50 बिलियन डॉलर की कमाई करता है। जाहिर है, इसे इस शानदार मुकाम तक पहुंचाने के लिए काफी कोशिशें की गई होंगी, पर हिंदी की पुरानी कहावत है- बिन पानी सब सून। नाका घर से काम करन क
अगला विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा!
देश की राजधानी दिल्ली का हाल भी बेंगलुरु के मुकाबले कोई खास अच्छा नहीं है। बहुत बड़ी आबादी को यहां हर रोज अपनी जरूरत के जल के लिए घंटों जूझना पड़ता है। उनकी बसाहटों में टैंकरों से पानी पहुंचता है और कभी-कभी उसे लेकर खूनी झगड़े भी हो जाते हैं। पिछले दिनों एक ऐसा ही हतभागी हादसा सामने आया, जब जल को लेकर दो पक्ष एक-दूसरे पर टूट पड़े। इस हिंसा में एक महिला को जान से हाथ धोना पड़ा। अब सत्तारूढ़ पार्टी और उप-राज्यपाल इस मुद्दे पर गुत्थमगुत्था हैं। इससे न तो जान गंवाने वाली कल सोनी की सांसें वापस आएंगी और न ही प्यासे लोगों के हलक तर होंगे। किसी ने कहा था कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। हम उसे अपने इर्द-गिर्द आकार लेता हुआ देख रहे हैं।
विकास की लंबी और सुविचारित दास्तां
बेंगलुरु और दिल्ली ऐतिहासिक नगर हैं। उनके विकास की लंबी और सुविचारित दास्तां है, लेकिन गुरुग्राम पिछले चार दशकों में पनपा है। दिल्ली के नजदीक बसा. यह छोटा- सा कस्बा इतनी तेजी से व्यावसायिक केंद्र के तौर पर विकसित होगा, ऐसा बहुतों ने सोचा तक नहीं था। आज वहां देशी- विदेशी कंपनियों के सैकड़ों कार्यालय हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की सबसे महंगी रिहायशी संपत्तियां यहीं पर हैं, लेकिन पानी यहां भी लोगों को बेपानी कर रहा है। एक महीना पहले गुरुग्राम मेट्रोपोलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी (जीएमडीए) ने चेताया था कि शहर की पेयजल मांग 675 एमएलडी (रोजाना मेगालीटर) है, जबकि आपूर्ति किसी भी स्थिति में 570 एमएलडी से ज्यादा नहीं हो सकती।
अपना लोकतंत्र बचाने में सफल रहे!
बेंगलुरु और गुरुग्राम किसी सदानीरा के किनारे नहीं बसे हैं, पर दिल्ली को देश की महानतम नदियों में से एक, यमुना के किनारे बसाया गया था। सदियों की उपेक्षा और ताड़ना ने यमुना को गंदे नाले में तब्दील कर दिया है। उसे खुद मदद की जरूरत है। कुछ साल पहले हरियाणा के एक सीमावर्ती शहर से दारूण खबर आई थी। वहां भारतीय संस्कृति को रचने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाली यह नदी गरमियों में इतनी सूख गई थी कि उसमें लोग अपने परिजनों की अस्थियां भी नहीं प्रवाहित कर सकते थे। मजबूरी में वे गड्ढे खोदकर उनमें अस्थियां दबा देते थे, इस उम्मीद के साथ कि बारिश पड़ने के बाद जब फिर धारा जोर पकड़ेगी, तो इन अस्थियों को मुकाम हासिल हो जाएगा। इसी तरह, वाराणसी में भी अक्सर जल की इतनी कमी हो जाती है कि गंगा के बीचोबीच टापू उभर आते हैं। मैंने अपने बचपन में वाराणसी, मिर्जापुर और इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में इसे एक विशाल वेगवती महानदी के तौर पर देखा है। आजादी के 77 सालों में अगर हम अपना लोकतंत्र बचाने में सफल रहे हैं, तो सभ्यता के इन अनिवार्य कारकों पर भी हमारी नजर होनी चाहिए।
राजनीतिक दल गेंद एक-दूसरे के पाले में डालने की कोशिश!
इसी से जुड़ा मामला स्वच्छ हवा का है। जैसे-जैसे दिवाली पास आती है, दमा रोगियों के साथ एलर्जी के मरीजों की दिल की धड़कनें अव्यवस्थित होने लगती हैं। समूचा उत्तर भारत इस दौरान भयंकर कोहरे और वायु प्रदूषण की जद में आ जाता है। हालात इस कदर बिगड़ जाते हैं कि बच्चों के स्कूलों की छुट्टी तक करनी पड़ती है। पहले पंजाब और हरियाणा के पराली-दहन को इसके लिए जिम्मेदार बताकर राजनीतिक दल गेंद एक-दूसरे के पाले में डालने की कोशिश करते थे, लेकिन तमाम शोध साबित कर चुके हैं कि वायु पदूषण के लिए सिर्फ पराली जिम्मेदार नहीं है। अगर किसानों को पराली जलाने से रोकने के लिए जरूरी साधन मुहैया कराने हैं, तो प्रदूषण के अन्य कारकों पर भी साथ ही साथ ध्यान देना होगा।
कमीज की एक आस्तीन फटी नजर आती हो, तो उसे सुधारने के लिए अगर हम दूसरी आस्तीन को भी उधेड़ डालेंगे, तो विरूपता और बढ़ जाएगी। हमारी सरकारें अब तक ऐसा ही करती रही हैं।
स्थिति बदलनी चाहिए, पर बदलेगी कैसे?
यकीनन यह स्थिति बदलनी चाहिए, पर बदलेगी कैसे ? मौजूदा चुनाव इस संबंध में सार्थक विमर्श का सशक्त जरिया हो सकता था, लेकिन हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों ने इस पर तवज्जो देने की जरूरत नहीं समझी। चुनाव का पहला चरण इस पर फैसलाकुन चर्चा के बिना गुजर चुका है। अगर आपके यहां अगले किसी दौर में मतदान है, तो उसका लाभ उठाइए। जब भी कोई प्रत्याशी आपके इलाके में आए, तो उससे पूछिए कि पर्यावरण के मुद्दे पर आपका एजेंडा क्या है? नेता कुछ भी कहें या करें, पर यह सच है कि लोकतंत्र में आज भी लोकवाणी का महत्व कायम है। हमें अपनी इस अहमियत को पहचानना चाहिए