प्रकाश मेहरा
अगर हम क्रिकेट की समीक्षा के लिए इस्तेमाल होने वाली शब्दावली का प्रयोग करें, तो यह कह सकते हैं कि कांग्रेस चार में से तीन राज्यों में जीत के जबड़े से हार छीन लाई है।
थोड़ी देर के लिए अगर हम तेलंगाना को छोड़ दें, तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव नतीजों ने इस बार कोई नई कहानी नहीं लिखी। ये पूरे हिंदी क्षेत्र में पिछले एक दशक से लगातार चल रही भारतीय जनता पार्टी की विजय यात्रा की एक कड़ी भर हैं। यह जरूर है कि पांच साल पहले पार्टी इन तीनों ही राज्यों में चुनाव हार गई थी, पर कुछ ही महीने बाद लोकसभा चुनाव में पार्टी ने इस हार की भरपाई कर ली थी। थोड़ा और बाद में मध्य प्रदेश में तो उसने कांग्रेस से सत्ता छीनने का जुगाड़ भी भिड़ा लिया था। यह ठीक है कि इस बार भाजपा को राजस्थान और असंभव से दिखने वाले छत्तीसगढ़ की सत्ता भी हासिल हो गई है, पर पार्टी ने इससे उसी क्षेत्र में अपनी चमक और धमक को स्थापित किया है, जो उसका गढ़ है।
इन नतीजों ने जो कहानी लिखी है, उसमें भाजपा की जीत उतनी बड़ी बात नहीं है, जितनी बड़ी बात कांग्रेस की हार है। अभी कुछ महीने पहले तक यह भले ही कोई न कह रहा हो कि कांग्रेस इन राज्यों में जीत ही जाएगी, पर यह तो तकरीबन सभी मान रहे थे कि ये तीनों ही प्रदेश कांग्रेस के लिए असंभव नहीं हैं। पार्टी जमीन पर भी अपना दम दर्ज करा रही थी और यह भी कहा जा रहा था कि हवा उसके पक्ष में जा सकती है। पार्टी के नेता राहुल गांधी ने खुद कहा था कि राजस्थान के बारे में संदेह हो सकता है, पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तो पार्टी जीतने ही वाली है। बहुत सारे स्वनाम धन्य सर्वे या पोल भी कुछ ऐसी ही कहानी कह रहे थे। राजस्थान एक्जिट पोल तक कांग्रेस के पक्ष में डांवाडोल होता दिखा और छत्तीसगढ़ के बारे में तो पहले दो दौर की मतगणना के बाद भी यही भविष्यवाणी हो रही थी। अगर हम क्रिकेट की समीक्षा के लिए इस्तेमाल होने वाली शब्दावली का प्रयोग करें, तो यह कह सकते हैं कि कांग्रेस जीत के जबड़े से हार छीन लाई है।
कांग्रेस की यह हार हमें चुनावी राजनीति के बारे में बहुत सारी बातें बता रही है। अक्सर हमारे चुनाव विश्लेषण हवा का रुख, जमीनी हालात और चुनावी अंकगणित पर आधारित होते हैं। बेशक, इन सबकी एक भूमिका होती है, लेकिन इनकी एक सीमा भी होती है। चुनाव में एक बड़ी भूमिका पार्टी संगठन की ताकत और चुनाव प्रबंधन की भी होती हैं। कभी कांग्रेस का संगठन इस कौशल के लिए जाना जाता था, पर अब वह सब इतिहास की बात हो चुकी है। सांगठनिक क्षमता के मामले में भाजपा बेजोड़ है, यह उसने एक बार फिर साबित कर दिया है।
हमेशा की ही तरह इस बार भी भाजपा एक नई रणनीति के साथ मैदान में उतरी थी। उसने जितनी बड़ी संख्या में केंद्रीय मंत्रियों समेत पार्टी सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भेजा, वैसा इसके पहले कभी नहीं हुआ था। हालांकि, कई शुरुआती विश्लेषण में यह कहा गया था कि पार्टी को हार दिखाई दे रही है, इसलिए उसने ऐसा कदम उठाया है, जबकि यह वास्तव में जीत के लिए पार्टी की एक रणनीति थी।
फिर पार्टी ने हमेशा की तरह अपने उन कई विधायकों को टिकट नहीं दिया, जिनके अच्छे प्रदर्शन या जिनकी लोकप्रियता पर उसे संदेह था। भाजपा के मुकाबले कांग्रेस ऐसे कड़े फैसलों के लिए नहीं जानी जाती।
इन तीन राज्यों में कांग्रेस की हार के ठीक विपरीत खड़ा है तेलंगाना। तेलंगाना में कांग्रेस की जोरदार जीत उसके लिए सिर्फ सांत्वना पुरस्कार भर नहीं है। यह ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस इस तरह से उठ खड़ी होगी, यह कुछ महीने पहले तक सोचा भी नहीं जा सकता था। तीन साल पहले जब इसी राज्य में ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव हुए थे, तो सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति को 56 सीटें मिली थीं, भाजपा को 48 और कांग्रेस को केवल दो। यह लगभग मान लिया गया था कि कांग्रेस अब तेलंगाना में नंबर तीन की पार्टी हो चुकी है। पिछले कुछ दशक में कांग्रेस का यह दुर्भाग्य रहा है कि जिस भी प्रदेश में वह नंबर तीन की पार्टी हो जाती है, वहां फिर वह नंबर दो नहीं हो पाती, नंबर एक बनना तो बहुत दूर की बात है। तेलंगाना में कांग्रेस ने उस दुर्भाग्य से पीछा छुड़ा लिया है। तेलंगाना में कांग्रेस की वापसी में कुछ और चीजें महत्वपूर्ण हैं। मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस जहां अपने पुराने बुढ़ाते हुए नेतृत्व के भरोसे थी, वहीं तेलंगाना में उसकी बागडोर अपेक्षाकृत नौजवान नेतृत्व के हाथ में थी।
इसके ठीक पहले कांग्रेस ने दक्षिण भारत में ही कर्नाटक विधानसभा चुनाव को भी बहुत आसानी से जीत लिया था। जबकि उत्तर भारत में उसके पास सिर्फ हिमाचल जैसे छोटे से प्रदेश में ही सरकार है। यह बताता है कि कांग्रेस के प्रभाव क्षेत्र का भूगोल बहुत सीमित है। हालांकि, यह मामला सिर्फ कांग्रेस का ही नहीं, भाजपा का भी है। पुड्डुचेरी को छोड़ दें, तो पूरे दक्षिण भारत से उसका सफाया हो चुका है। एक तरह से देखें, तो इस चुनाव में भाजपा और कांग्रेस, दोनों ने ही अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में अच्छे प्रदर्शन का डंका पीटा है। इस प्रभाव क्षेत्र के बाहर दोनों ही अपना दम दिखाने में नाकाम रही है।
ये विधानसभा चुनाव उस समय हुए हैं, जब कुछ ही महीने बाद देश में आम चुनाव होने हैं। अक्सर लोग अपनी सुविधा के अनुसार ऐसे चुनाव को सेमीफाइनल करार देते हैं। हालांकि, विधानसभा चुनाव का रुझान लोकसभा चुनाव तक वैसे ही बरकरार रहे, यह हर बार संभव नहीं होता। पिछली बार मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान, तीनों ही राज्यों में भाजपा विधानसभा चुनाव हार गई थी, पर चंद महीने के भीतर लोकसभा चुनाव में उसने कांग्रेस को जोरदार शिकस्त दी।
तेलंगाना के अलावा बाकी तीनों राज्य ऐसे हैं, जहां भाजपा और कांग्रेस में सीधी टक्कर होनी थी। क्षेत्रीय दल यहां अनुपस्थित भले ही न हों, पर वे कोई महत्वपूर्ण असर डालने की स्थिति में नहीं हैं। जबकि बाकी भारत का राजनीतिक सच इससे काफी अलग है। खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों में इन पार्टियों के अलावा भी दल हैं, जो काफी मजबूत और महत्वपूर्ण हैं। ये सब मिलकर आम चुनावों के समीकरणों को जो जटिलता देते हैं, उसके बारे में सिर्फ और सिर्फ राज्यों के चुनाव परिणामों से किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता। फिलहाल का सच सिर्फ इतना है कि भाजपा ने अपने प्रभाव क्षेत्र में खुद को मजबूत किया है और कांग्रेस ने तेलंगाना की जीत से सबको हैरत में डाल दिया है।