प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली: भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उम्मीद से अधिक वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय के मुताबिक, इस साल जुलाई से सितंबर की दूसरी तिमाही मैं जीडीपी के 41.74 लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान है, जो वर्ष 2022-23 की इसी तिमाही की तुलना में 7.6 प्रतिशत अधिक है। यह स्थिति तब है, जब कई आर्थिक विश्लेषक इससे कम बढ़ोतरी का अनुमान लगा रहे थे। जाहिर है, अर्थव्यवस्था में मजबूती आ रही है, जिसका शेयर बाजार ने भी स्वागत किया है। हालांकि, कोविड-पूर्व काल (2019-20) से अब तक जीडीपी 17.6 फीसदी बढ़ी है, यानी सालाना औसतन चार-सवा चार प्रतिशत, जिसका मतलब है कि अब भी जो 6.5 या सात प्रतिशत वृद्धि का अनुमान लगाया जा रहा है, हम वहां तक नहीं पहुंच पाए हैं। हमें वहां तक पहुंचना ही होगा, क्योंकि अगर हमें रोजगार पैदा करना है, तो वृद्धि दर का कम रहना परेशानी का सबब बन सकता है।
दूसरी तिमाही के आंकड़े बता रहे हैं कि कृषि क्षेत्र में विकास कम हुआ है। इस क्षेत्र में करीब 46 फीसदी लोग काम करते हैं, लेकिन इसमें महज 1.2 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। चूंकि असंगठित क्षेत्र का करीब आधा हिस्सा खेती-किसानी में लगा है, इसलिए यहां अगर रोजगार-सृजन नहीं होगा, तो अर्थव्यवस्था के बाकी हिस्सों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।
नए आंकड़ों से खाने-पीने की चीजों में कमी आने की आशंका भी दिख रही है। जनसंख्या वृद्धि दर के अनुपात में इसमें वृद्धि दर कम है। दूसरी तिमाही का जीडीपी आंकड़ा बताता है कि हमारा उपभोग कम हो गया है। 2022-23 की दूसरी तिमाही में यह 59.3 प्रतिशत था, जो इस बार 2.5 फीसदी घटकर 56.8 फीसदी हो गया है। इससे मांग में समस्या पैदा हो सकती है, और जब मांग में समस्या पैदा होगी, तो वृद्धि दर प्रभावित होगी।
हालांकि, यह सुखद है कि अर्थव्यवस्था में हमारा निवेश बढ़ गया है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्ष के 34.2 प्रतिशत की तुलना में इस साल सकल स्थायी पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) बढ़कर जीडीपी का 35.3 प्रतिशत हो गया है। इससे उम्मीद जगती है कि अर्थव्यवस्था में निवेश यदि ठीक-ठाक रहा, तो हमारा उपभोग भी बढ़ जाएगा। मगर इसके साथ हुआ यह है कि हमारे आयात-निर्यात का अंतर बढ़ गया है। पिछले साल जो निर्यात जीडीपी का 23.9 प्रतिशत था, वह इस साल घटकर 23.2 प्रतिशत हो गया है, जबकि आयात 27.7 प्रतिशत की तुलना में बढ़कर करीब 30 प्रतिशत हो गया है। इससे बाजार में मांग प्रभावित हो सकती है।
हमें ‘सांख्यिकीय विसंगति’ के अंतर को भी जल्द से जल्द पाटना होगा। असल में, जीडीपी को खर्च के हिसाब से भी नापा जाता है और आमदनी के हिसाब से भी। इन्हीं आंकड़ों के बीच का अंतर है सांख्यिकीय विसंगति। इस अंतर से आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगते हैं। चूंकि आंकड़ों में अंतर दिखता रहा है और उतार-चढ़ाव भी, इसलिए इसका हर संभव संतुलन आवश्यक है।
इन सबके अलावा जीडीपी के अच्छे आंकड़ों के लिए कुछ बुनियादी काम भी किए जाने चाहिए। मसलन, हमें उपभोग बढ़ाना चाहिए। इसके लिए विशेष तौर पर कृषि पर ध्यान देना आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन का असर इस पर खूब दिखने लगा है। पिछले साल ही बारिश देर से होने से चावल की बुआई प्रभावित हुई थी। अभी ही देश के दक्षिण हिस्से में जो चक्रवाती तूफान आया है, वह दिसंबर के महीने में अप्रत्याशित है। यह संकेत है कि जलवायु परिवर्तन से हम प्रभावित होने लगे हैं, जिसका व्यापक असर खेती-किसानी पर पड़ सकता है। कृषि क्षेत्र से इतर असंगठित क्षेत्र में जो 48 प्रतिशत लोग काम कर रहे हैं, हमें वहां भी आमदनी बढ़ानी होगी, ताकि उपभोग बढ़े। गरीबों के हाथों में पैसे जाने से उनकी क्रय-क्षमता बढ़ती है, जिसका बाजार को फायदा होता है। इससे निजी निवेश में भी वृद्धि होती है।
जरूरत उन क्षेत्रों पर भी ध्यान देने की है, जहां कामगारों की अधिकता है। संगठित क्षेत्र में तो तमाम तरह की उन्नत तकनीक इस्तेमाल होते हैं, लेकिन जिन क्षेत्रों में हाथों से ज्यादा काम होता है, वहां यदि तरक्की की जाएगी, तो रोजगार निर्माण को गति मिल सकती है। हमें शहरी क्षेत्रों में शिक्षित नौजवानों के हाथों को काम देना होगा और ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि क्षेत्र को आगे बढ़ाना होगा, क्योंकि खेतों में अब काम का दायरा सिमटने लगा है। माइक्रो सेक्टर को तवज्जो देने से यह संभव हो सकता है।
महंगाई को नियंत्रित करना भी बेहद जरूरी है। कीमत बढ़ने से असंगठित क्षेत्र में मांग कम हो जाती है। इसके लिए खाने-पीने के उत्पादों का प्रबंधन करना आवश्यक है। अभी अचानक टमाटर के दाम बढ़ जाते हैं, तो कभी प्याज के। प्रतिकूल वक्त में बेशक इनके दाम बढ़ेंगे ही, लेकिन इतने भी नहीं बढ़ने चाहिए कि वे जेब के अनुकूल न रहें। इसके लिए उनकी आपूर्ति पर ध्यान देना होगा।
यहां जीएसटी में सुधार को नजरंदाज करना भी गलत है। इसने सूक्ष्म व लघु उद्योग को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। बेशक, किसी उत्पाद के उत्पादन से लेकर उपभोक्ता के हाथों में पहुंचने तक की श्रृंखला में अंतिम स्तर पर ही जीएसटी लेने के प्रावधान हैं, लेकिन बीच में भी इसे किसी न किसी रूप में जमा किया जाता है, जिससे जटिलताएं बढ़ती हैं। इसको खत्म करना आवश्यक है, और इसे वास्तव में आखिरी स्तर का टैक्स बनाने की जरूरत है।
यह समझना होगा कि अर्थव्यवस्था में यदि सुधार होता है, तो शेयर बाजार में भी तेजी आती है। यह बेशक उम्मीदों पर टिका बाजार है, लेकिन तात्कालिक आर्थिक नीतियां इसे खूब प्रभावित करती हैं। जैसे, अभी शेयर बाजार में जो उछाल है, वह दूसरी तिमाही के आंकड़े और चुनाव नतीजे, दोनों के परिणाम हैं। दूसरी तिमाही के आंकड़ों ने जहां अर्थव्यवस्था में मजबूती के संकेत दिए, वहीं चुनाव नतीजों ने निवेशकों को यह भरोसा दिया कि सरकार अपनी नीतियां जारी रख सकती है और उसमें शायद ही कोई बदलाव करेगी। मौद्रिक नीति, वैश्विक मंदी की आशंका कम होने, ब्याज दरों में वृद्धि के निर्मूल साबित होने, और आपूर्ति-श्रृंखला की रुकावटों से पार पाने की कोशिशों ने हमारे बाजार पर सकारात्मक असर डाला है। निस्संदेह, शेयर बाजार कुछ सकारात्मक चीजें देख रहा है, इसलिए वह तेजी से आगे बढ़ रहा है।