स्पेशल डेस्क/नई दिल्ली: पाकिस्तान ने अपने 77 साल के इतिहास में केवल दो बार फील्ड मार्शल की नियुक्ति की है। पहली बार 1959 में जनरल अयूब खान को यह रैंक दी गई थी, जिन्होंने 1958 में सैन्य तख्तापलट के बाद खुद को फील्ड मार्शल घोषित किया और 1969 तक शासन किया। दूसरी बार 2025 में जनरल आसिम मुनीर को यह उपाधि दी गई। सवाल यह है कि इन दो नियुक्तियों के बीच 60 साल तक पाकिस्तान बिना फील्ड मार्शल के कैसे चला ? आइए विशेष विश्लेषण में एग्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा से समझते हैं।
फील्ड मार्शल का पद !
फील्ड मार्शल का पद पाकिस्तान सेना में सर्वोच्च मानद रैंक है, जो पांच सितारा दर्जा रखता है। यह रैंक जनरल, एयर चीफ मार्शल और एडमिरल से ऊपर है, लेकिन यह कोई अतिरिक्त कमांड शक्ति नहीं देता। यह मुख्य रूप से असाधारण सैन्य या राजनीतिक योगदान के लिए दिया जाता है। यह रैंक प्रतीकात्मक है और सामान्य सैन्य संचालन के लिए आवश्यक नहीं है। सेना का नेतृत्व चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (COAS) के पास होता है, जो वास्तविक कमांड और नियंत्रण रखता है। इसलिए, फील्ड मार्शल के बिना भी सेना का संचालन सामान्य रूप से चलता रहा।
पाकिस्तान में सेना की सर्वोच्चता !
पाकिस्तान में सेना का प्रभाव इतना मजबूत है कि उसे अक्सर “सेना का देश” कहा जाता है। चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के पास अपार शक्ति होती है, जो सरकार और राजनीति पर भी नियंत्रण रखता है। इस वजह से फील्ड मार्शल की अनुपस्थिति ने सैन्य संचालन या प्रशासन पर कोई असर नहीं डाला। 1958 में अयूब खान ने मार्शल लॉ लागू किया और खुद को फील्ड मार्शल बनाया, लेकिन यह उनकी राजनीतिक शक्ति को मजबूत करने का हिस्सा था। इसके बाद, जनरल जिया-उल-हक, परवेज मुशर्रफ जैसे सेना प्रमुखों ने बिना फील्ड मार्शल रैंक के ही देश पर नियंत्रण रखा।
सैन्य और राजनीतिक स्थिरता
60 वर्षों में पाकिस्तान की सेना ने कई युद्ध (1948, 1965, 1971, 1999) और आंतरिक चुनौतियों (बलूच विद्रोह, तालिबान) का सामना किया। इन सभी में चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ ने नेतृत्व किया, और फील्ड मार्शल की जरूरत नहीं पड़ी। पाकिस्तान में बार-बार मार्शल लॉ और सैन्य हस्तक्षेप हुए, लेकिन सेना ने हमेशा अपने प्रभाव को बनाए रखा। उदाहरण के लिए, जनरल जिया-उल-हक ने 1977 में तख्तापलट किया और 1988 तक शासन किया, बिना फील्ड मार्शल रैंक के।
आसिम मुनीर को फील्ड मार्शल क्यों बनाया गया ?
जनरल आसिम मुनीर को मई 2025 में फील्ड मार्शल बनाया गया, जिसे कई लोग भारत के साथ हाल के सैन्य संघर्ष (ऑपरेशन सिंदूर) में उनकी भूमिका के लिए मानते हैं। हालांकि, भारतीय स्रोतों का दावा है कि इस संघर्ष में पाकिस्तान को करारी हार मिली, जिसमें 11 वायुसेना अड्डे नष्ट हुए। मुनीर को यह रैंक देने का निर्णय प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की कैबिनेट ने लिया। माना जा रहा है कि यह कदम सेना का मनोबल बढ़ाने और मुनीर के प्रभाव को मजबूत करने के लिए उठाया गया, खासकर तब जब उन पर भारत के हमलों को रोकने में नाकाम रहने का आरोप है।
आलोचनाएं और विवाद
जेल में बंद पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने मुनीर के प्रमोशन पर तंज कसते हुए कहा कि उन्हें “फील्ड मार्शल” की जगह “किंग” घोषित करना चाहिए था, क्योंकि यह लोकतंत्र पर हमला है। हालांकि कुछ पाकिस्तानी स्रोतों ने मुनीर की तुलना भारत के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ से करने की कोशिश की, जिन्होंने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को हराया था। इसे भारतीय मीडिया ने “शर्मनाक” करार दिया।
60 साल बिना फील्ड मार्शल के काम कैसे चला ?
पाकिस्तान की सेना का ढांचा इतना मजबूत है कि फील्ड मार्शल की अनुपस्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ा। चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के पास सभी जरूरी शक्तियां होती हैं। सेना ने बिना फील्ड मार्शल के कई अभियान चलाए, जैसे कारगिल युद्ध, आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन, और बलूचिस्तान में विद्रोह का दमन।सेना ने सरकारों को नियंत्रित किया, जैसे इमरान खान को सत्ता से हटाने में मुनीर की भूमिका। इससे साबित होता है कि फील्ड मार्शल का पद केवल प्रतीकात्मक है और सेना का वास्तविक नियंत्रण बिना इसके भी बना रहा।
आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का समाधान नहीं !
पाकिस्तान 60 साल तक बिना फील्ड मार्शल के इसलिए चल सका क्योंकि यह पद केवल औपचारिक और प्रतीकात्मक है, और सेना का असली नियंत्रण चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के पास होता है। सेना की मजबूत पकड़, राजनीतिक प्रभाव, और संगठनात्मक ढांचे ने इसे संभव बनाया। आसिम मुनीर को 2025 में यह रैंक देना एक राजनीतिक और प्रचारात्मक कदम माना जा रहा है, जिसका उद्देश्य सेना का मनोबल बढ़ाना और हार को जीत के रूप में पेश करना है। हालांकि, यह निर्णय विवादों में घिरा हुआ है, और इसे पाकिस्तान की आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का समाधान नहीं माना जा सकता।