प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली: कहा जाता है कि 14 फीसदी किसान ही एमएसपी का लाभ लेते हैं, शेष 86 फीसदी बाजार में अपनी फसल बेचते हैं। गणित इतना ही सरल होता, तो किसान एमएसपी पर कानूनी गारंटी क्यों मांगते? दिल्ली के दर पर किसान फिर जुट आए हैं 2020-21 के आंदोलन से। सबक लेते हुए इस बार राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं पर जबर्दस्त बंदोबस्ती की गई है। भारी बाड़ेबंदी के साथ-साथ पुलिस बल को विशेष तौर पर तैयार रखा गया है। फिर भी मंगलवार को शंभू बॉर्डर पर दिन भर तनातनी होती रही। सवाल है, आखिर क्यों किसान बार-बार दिल्ली आने को मजबूर होते हैं ?
प्रदर्शन कर रहे किसानों की मांग
अगर किसानों की समस्याओं का उचित समाधान हो जाए, तो भला वे क्यों अपनी खेती-किसानी छोड़कर आंदोलन करेंगे? उन्हें क्यों शौक होगा कि वे दिल्ली की सड़कों पर सर्दी, गरमी या बरसात झेलें? पिछले आंदोलन के दौरान उन्होंने किसी न किसी मजबूरी में ही महीनों तक अपने गांव-घर से दूर तंबुओं में दिन गुजारे। आखिर इस बार की मजबूरी क्या है? वास्तव में, वे अपनी तीन मुख्य मांगों पर दिल्ली के सत्ता-सदन की मुहर चाहते हैं। पहली मांग, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी मिले। दूसरी मांग, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक एमएसपी तय हो, और तीसरी, जो कर्ज उन पर है, उसको माफ किया जाए। इसके अतिरिक्त, पुराने आंदोलनों में दर्ज हुए मुकदमों की वापसी हो, शहीद किसानों को मुआवजा जैसी कुछ अन्य मांगें भी इस बार शामिल की गई हैं।
किसानों के पास विकल्प
ये कोई गैर-वाजिब मांगें तो नहीं हैं। पिछले 15 वर्षों में उद्योग जगत के लगभग 15 लाख करोड़ रुपये माफ किए गए हैं, जबकि उद्योगपतियों को हमने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करते नहीं देखा है। इसके उलट, किसान जब कभी अपनी आवाज उठाते हैं, तो बदले में उन्हें लाठियां- गोलियां मिलती हैं। मंगलवार को ही किसानों पर आंसू गैस के गोले छोड़े गए। दिल्ली सीमा को इस कदर सील किया गया है, मानो अब वहां बारूदी सुरंग बिछाना ही शेष रह गया है। जब तक समाज के ऊपरी और निचली तबके के बीच यह विभेद बना रहेगा, तब तक दिल्ली आने के सिवाय किसानों के पास कोई दूसरा विकल्प शायद ही होगा।
प्रदर्शन के पीछे किसानों की मंशा
आरोप यह भी है कि चुनावी साल में किसान दबाव की राजनीति कर रहे हैं? अव्वल तो किसानों की ऐसी कोई मंशा नहीं, क्योंकि यह उनके जीवन-मृत्यु से जुड़ा मसला है। साल 2020-21 में क्या कोई चुनाव था, जो महीनों तक किसानों ने दिल्ली में डेरा डाले रखा ? फिर भी, यदि यह किसी को राजनीति लगती है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। खेती-किसानी पर निर्भर देश की यह 50 फीसदी आबादी अपने हितों के लिए राजनीति क्यों न करे? क्या यह अधिकार सिर्फ राजनेताओं के पास है, जो पुरस्कारों के नामों पर भी राजनीतिक रोटी सेंक लेते हैं? हमें इस सोच से ऊपर उठना होगा कि एसी कमरों में बैठने वाले लोगों की तुलना में किसान कम समझदार होते हैं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानूनी गारंटी
किसानों की तकलीफ का एक हालिया उदाहरण आपको बताता हूं। पिछले दिनों पंजाब के किसानों ने किन्नू की करीब 75 ट्रॉलियों को ट्रैक्टर से रौंद दिया। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि शहरी इलाकों में भले ही यह फल 100 रुपये में तीन किलो मिलता हो, पर इसे उपजाने वाले हाथों को इसकी कीमत सिर्फ पांच रुपये प्रति किलो मिल रही थी। एक तरफ कहा जाता है कि पंजाब में किसानों को अपनी फसलों में विविधता लानी चाहिए, क्योंकि एकरूप फसल से प्रकृति को नुकसान हो रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ, जब किसान विविधता लाते हैं, तो उन्हें अपनी फसलों को बर्बाद करना पड़ता है। इस तरह के तमाम उदाहरण देश भर में देखे जा सकते हैं। आयात-निर्यात संबंधी नीतियों का नुकसान भी किसानों को होता है। ऐसे में, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानूनी गारंटी मांगना भला कैसे गलत है ? मगर इसकी मांग करते हुए वे दिल्ली आते हैं, तो राष्ट्रीय राजधानी को एक किले में बदल दिया जाता है, मानो वे कोई राष्ट्र-विरोधी तत्व हैं।
प्रदर्शन से अर्थव्यवस्था पर असर
उनकी मांगों को न मानने की पीछे एक खास वजह है। असल में, हमारा आर्थिक ढांचा किसानों को जान- बूझकर गरीब रखने का हिमायती है। इसमें जिस उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर रिजर्व बैंक महंगाई नियंत्रित करने की कवायद करता है, उसमें फसलोपज की कीमतों को लेकर अतिरिक्त संजीदगी दिखाई जाती है, क्योंकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 45 फीसदी हिस्सा कृषि उपज का है। यही कारण है कि फलों और सब्जियों की कीमतें बढ़ने के साथ ही महंगाई बढ़ने का राग अलापा जाने लगता है। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि इस उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास पर होने वाले खर्च की गणना नहीं की जाती, जबकि इलाज में, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में या शहरों में किसी छत के नीचे रहने में कितने पैसे खर्च होते हैं, यह छिपा रहस्य नहीं है। तर्क दिया जाता है कि फल व सब्जी सभी खाते हैं, इसलिए इसकी महंगाई लोगों को प्रभावित करती है, लेकिन क्या शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास लोगों से नहीं जुड़ा है? यह समझ से परे है कि हम दुनिया की शीर्ष पांच आर्थिक ताकतों में शामिल हैं, लेकिन फल और सब्जियों के दाम बढ़ने मात्र से हमारी अर्थव्यवस्था बिगड़ने लगती है।
किसानों की मांग एमएसपी गारंटी
हमारे नियामक यह भी कहते हैं कि जब बाजार खुला है, तब किसानों को एमएसपी की मांग नहीं करनी चाहिए। कहा जाता है, देश के 14 फीसदी किसान ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ लेते हैं, शेष 86 फीसदी तो बाजार में अपनी फसल बेचते हैं। अगर बाजार का गणित इतना सरल होता, तो भला क्यों किसान एमएसपी पर कानूनी गारंटी मांग रहे होते? साफ है, संसद के बयान और सड़क के हालात में अंतर है।
देखा जाए, तो किसानों को फसलों के लिए मिलने वाले उचित दाम देश के लिए अच्छे हैं। जब उनके पास पैसे आएंगे, वे खरीदारी तेज करेंगे, जिससे बाजार में मांग बढ़ेगी और देश की तरक्की होगी। यह साधारण फॉर्मूला भी हम समझना नहीं चाहते। हम पश्चिमी देशों की नकल कर रहे हैं, जबकि वहां किसानों को लेकर अलग रुख है। अपने यहां तो अब कोई किसान ही नहीं चाहता कि उसका बेटा खेती-किसानी करे।
किसानों की समस्या का समाधान
किसानों की समस्या का समाधान सिर्फ केंद्र के पास है। महाराष्ट्र जैसे राज्य अपने तईं 6,000 रुपये की सालाना मदद किसानों की करते हैं, लेकिन यह काफी नहीं है। किसानों को खैरात नहीं, अपना हक चाहिए, जो उनकी मांगों को मानने से ही मिल सकता है। मगर क्या इस बार वे सफल होंगे? फिलहाल, इसके लिए हमें प्रतीक्षा करनी होगी।