मुरार सिंह
नई दिल्ली,भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के अध्येता प्रसिद्ध साहित्यकार पं. विद्यानिवास मिश्र के 21 खंडों में प्रकाशित
‘पं. विद्यानिवास मिश्र रचनावली’ (प्रधान संपादक: डॉ. दयानिधि मिश्र) का लोकार्पण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह मान. डॉ. कृष्ण गोपाल के करकमलों से श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के कोषाध्यक्ष पूज्य स्वामी गोविंददेव गिरिजी महाराज के पावन सान्निध्य में केंद्रीय श्रम एवं रोजगार तथा पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री मा. श्री भूपेंद्र यादव के विशिष्ट आतिथ्य में संपन्न हुआ।
विद्यानिवास मिश्र हिंदी-संस्कृत के अग्रणी विद्वान्, प्रख्यात निबंधकार, भाषाविद, चिंतक और भारत-विद्या के अप्रतिम अध्येता, जन्म उत्तर प्रदेश के गोर जिले के पकड़डीहा गाँव में, मकर संक्रांति 1982 वि.सं. तदनुसार 14 जनवरी, 1926 को हुआ।’Descriptive Technique of Panini शोध के लिए पीएच.डी. की उपाधि ली। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के साथ कोश-कार्य; आकाशवाणी, इलाहाबाद में संपादन-कार्य 1952-56 तक विंध्य प्रदेश, 1956-57 तक उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग से संबद्ध रहे। 1957 से विश्वविद्यालय – सेवा से जुड़ते हुए गो विश्वविद्यालय, आगरा विश्वविद्यालय, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, म. गां. काशी विद्यापीठ और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्राध् आचार्य, निदेशक, अतिथि आचार्य और कुलपति के रूप में कार्य किया।
कैलिफोर्निया और वाशिंगटन विश्वविद्यालयों में अतिथि आचार्य, 94 में ‘नवभारत टाइम्स’ के प्रधान संपादक और राज्यसभा के मनोनीत सदस्य (2003 से देहावसान तक) जैसे दायित्वों का भी निर्वहन किय साहित्य-सेवा के लिए वे भारतीय ज्ञानपीठ के ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’, के. के. बिड़ला फाउंडेशन के ‘शंकर सम्मान’, उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी के ‘विश्वभारती सम्मान’, भारत सरकार के ‘पद्मश्री’ और ‘पद्मभूषण’; उत्तर प्रदेश शासन के सर्वोच्च ‘भारत-भारती’, हिंदी साहित्य सम्मेलन के सर्वोच्च ‘मंगल पारितोषिक’, साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान’ महत्तर सदस्यता’, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के ‘रत्न सदस्यता सम्मान’ आदि से सम्मानित किए गए।
खंडों की संरचना
किसके लिए लिखा जाए, किस नहीं पाता। हर साधना आत्मवं ही उलट जाने की जबरदस्त सं पहरा है। हर खोज सत्य की च
1 : अभी-अभी हूँ, अभी नहीं
किसके लिए लिखा जाए किसी से कुछ कहा जाए कौन पढ़ता है कौन सुनता है और पढ़े भी सुन भी तो फर्क क्या पड़ता है कोन सुनता है और पढ़े भी, सुने भी तो फर्क क्या पड़ता है? जड़-चिंतन को नकारने वाला चिंतन भी तो कोई बाती उकसा साधना बनकर बहुत जल्दी पुजने लगती है। हर लड़ाई बेमानी लगती है, क्योंकि वह बूमरैंग की तरह अपने ऊपर उगलकर थक जाता है। अमृत तो अनमथे राज-बावड़ियों में उतरा रहा है। हाँ, उन बावड़ियों पर श्वेत फणियों का है, क्योंकि सत्य की टाँग टूट गई है, वह चरखी पर फिट कर दिया गया है और उसे नचाने वाला एक मिस्त्री है।
खंड-2 : जोड़ने-जुड़ने की राह
‘हिंदुस्तान के हिंदू-मुसलमा (हालाँकि ऐसी निष्ठा का को हवा साँसों में भरी है, एक ही जातीय स्वभाव बन गया है।
-भूषा भी अलग हो, कुछ देर मान लें कि धार्मिक संदेश की भाषा अलग हो, यह भी मान लें कि निष्ठा अलग हो कहीं-न-कहीं मिली हुई है, क्योंकि वे सदियों तक साथ रहे हैं, एक माटी से सने हैं, एक ही पानी पिया है, एक ही धूप में बड़े हुए हैं। उनके ऊपर इन सबके एक ही संस्कार हैं। एक तरह से कहें तो किसी-न-किसी रूप में उनका एक रात्म मानना चाहिए।
खंड-3 : दादुर वक्ता भए
बाबागीरी के धंधे में बड़ा तगड़ा कंप्टीशन है। अनेक संप्रदाय बन गए हैं, अनेक मठ स्थापित हो गए हैं, गली-गली विहार खुल गए हैं। अब बाबा समूह का नहीं, व्यक्ति का बाना है, इसलिए अब बाबागीरी साइड बिजनेस अर्थात् मुख्य जीविका न होकर उपजीविका बन गई है, इससे केवल मान-मर्यादा भर बनती है, क्योंकि इस देश के मज्जागत संस्कार में बाबा है। आजकल साहित्यिक बाबागीरी की सबसे अधिक प्रतिष्ठा है, बशर्ते कि यह बाबागीरी साइड बिजनेस हो, नहीं तो पूँजी टूटने का भी डर है।
खंड-4 : आत्ममीयता की तलाश
44 ‘अलगाव में अलाव को सुलगाए रखना भी आवश्यक होता है । न जले, न जले; यह काम बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है। जब सब जगह आग ठंडी हो, कहीं ऊष्मा न हो तो छोटी बोरसी रखना एक जगह और लोगों को पास बिठाए रखना, बहुत बड़ी बात होती है। रचना पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है। रचना व्यक्ति करता है, लेकिन वह तभी रचना करता है, जब उसे इतना प्यार मिलता है, इतनी आत्मीयता मिलती है; वह आत्मीयता की तलाश है; और यदि आत्मीयता मिलती नहीं, तब आत्मीयता की तलाश अधूरी रहती है, खंडित रहती है !”
खंड-5 : तेरे अनगिन कितने चेहरे
मेरे बीमार कक्ष की खिड़की से तीसरे पहर का सूर्य रोशनी फेंक रहा है सफेद दीवारों पर, ऐसा लगता है कि मैं अपने स्कूल के कमरे में आ गया हूँ ।
मैं पाँचवीं-छठी में पढ़ता था, अंग्रेजी के मेरे मास्टर आखिरी घंटी में पढ़ाने आते पढ़ाकर झाड़ना लेकर श्यामपट्ट साफ कर देते श्यामपट्ट की एक-एक लिखत रगड़कर मिटा
खंड-6 : राम और कृष्ण : जन-जन के अपने
‘‘राम का एक अर्थ है—जिसमें मन रमे, दूसरा है मन रमाने वाला, अर्थात् मन न रमता हो तो भी उसे रमाने वाला, और तीसरा अर्थ है-मन का ऐसा रमना, ऐसा रमना कि मन का मन न रहना, रमना हो जाना, पानी में नमक की तरह घुल जाना। पानी का आवाँ से उतारे नए घड़े में जज्ब होना। वर्षा का तपती हुई धरती में समाकर उसकी सोंधी गंध बन जाना। इसलिए राम के पास पहुँचते हों या नहीं भी पहुँचते हों, राम के पास पहुँचने की सोचते हों तो भी हम राम के होने की सिहरन अनुभव करने लगते हैं और तब हम सबके होने लगते हैं, अब तक जो पराए थे, उनके भी अपने होने लगते हैं।”
खंड-7 : नमोवांक प्रशास्महे
‘‘प्राचीन भूमध्यसागरीय लोगों की विश्वदृष्टि से भारतीय विश्वदृष्टि में एक मौलिक भेद है। पश्चिमी दृष्टि में प्रकृति या प्रकृति की शक्तियाँ मनुष्य से अलग हैं और इसीलिए इन दोनों में स्पर्धा है। मनुष्य के मन में प्रकृति को जीतने की बात आती है और प्रकृति की शक्तियों के प्रतिरूप देवता इस विजय-यात्रा में इसीलिए बाधा पहुँचाते हैं। इसके ठीक विपरीत भारतीय विश्वदृष्टि मनुष्य और प्रकृति दोनों को अविलग देखती है-बाहर जो सूर्य का प्रकाश है, वही भीतर बुद्धि का प्रकाश है; बाहर जो अंधकार है, वही भीतर भय है; बाहर जो तृण, वीरुध और वृक्ष में ऊपर उठने की प्रक्रिया है, वही भीतर की उमंग है ।
खंड-8 : हिंदी साहित्य की काल निचोड़ प्रतिभा
हिंदी में सबका रुझान है—परिष्कार का भी, अनगढ़पन का भी, नागरता का भी और ठेठ ई का, देसीपन का भी। राजा का भी, रंक का भी। परंतु उसमें अधिक प्रतिष्ठा सामान्य की है। उसमें ‘सूधे मन सूधे वचन सूधी करतूति’ पर बड़ी आस्था है, ‘मन मस्त हुआ तो क्या बोले’ की मस्ती है, ‘नगद दमाद अभिमानी के’ वाली ठाकुर की उसक है, बोधा न वाली आँख चाहिए, जो जीवन की साधना से मिलती है। हिंदी ने संस्कृत की ज्ञानगरिमा की धरोहर सँभाली ।खंड-9 : तुम दीया हम बातीवाले कवि सही अर्थों में रमता जोगी थे। वे सत्संग करने कहीं से कहीं चले जाते थे। उनका कोई एक देश नहीं था। वे कविता नहीं करते थे, क्योंकि कविता काम नहीं था, वे रुई धुनते थे, कपड़ा बुनते थे, कपड़े सिलते थे, जूते बनाते थे, खेती करते थे, पर उनका कोई काम जीविका नहीं था । वह फक्कड़ जीवन था । के अनुभव को समर्पित कविता उनके काम से, उनके फक्कड़पन से फूट पड़ती थी, क्योंकि वे कुछ-न-कुछ गुनगुनाते हुए, ध्यात हुए अपना काम करते थे। कविता रही हलचल की हिलोर मात्र है। ”
खंड – 10 : साहित्य और लोक की पहचान
का शिल्प-विधान अचेतन व्यापार नहीं है। यह ऐसी सामूहिक चेतना का परिणाम है, जो प्रबुद्ध होते हुए भी निरभिमान है। इसी से इस शिल्प-विधान में प्रयत्नकृत स नहीं मिलता, यद्यपि इसके पीछे प्रयत्न हुआ ही नहीं है, यह कहना इस शिल्प-विधान के सौंदर्य के साथ अन्याय करना होगा। प्रयत्न इतनी बार इतने लोगों द्वारा हुआ है कि • जोखा देना किसी के लिए भी संभव नहीं है और इतने अधिक प्रयत्नों के कारण ही उसमें यह निखार आ गया है कि प्रयत्न ऊपर से परिलक्षित नहीं होगा।
खंड- 11 : सहृदय- हृदय संवाद
और कृति के ग्राहक, तीनों का सामंजस्य न हो तो कृति कृति नहीं होती, वह निपट बेगार होती है या होती है कुछ क्षणों का कौतुक, उसमें पुनरावर्त्यमानता नहीं रहती, .. जाती है और दूसरी बार देखी-सुनी जाती है तो बासी लगती है, उसमें कोई नवीनता नहीं रह जाती । इस त्रिपुटी की तीनों भुजाओं की कुछ स्पष्ट अवधारणा हमारे – स्वीकृत है। कृती और ग्राहक को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में साधारणीकरण की अवधारणा विकसित हुई। साधारणीकरण का अर्थ समूहीकरण नहीं है, न होना है।कारण है, उसका अर्थ असहज से सहज।
खंड – 12 : भाषा चिंतन
कहना चाहें तो कह सकते हैं कि भारतीय चिंतन की भाषा व्याकरणात्मक है, उसी तरह, जिस तरह यह कहा जाता है कि यूरोपीय चिंतन की भाषा गणितात्मक है। गणितात्मक भाषा की पहचान यह है कि वह वस्तुओं को एक क्रमिक आरोह या अवरोह की श्रृंखला में आबद्ध देखते हुए उनकी एकमुखगामिता या विप्रतिगामिता की ओर ध्यान आकृष्ट करती है, इसके साथ ही एक वस्तु को दूसरी वस्तु से निरंतर एकतलीय स्तर पर विभिन्न मानती हुई चलती है या विभिन्न तलों की स्थापना करके वस्तुओं के तलात्मक व्यवच्छेद निर्धारित करती है । गणितात्मक भाषा जिस प्रकार के अमूर्तीकरण की ओर उन्मुख है, वह अमूर्तीकरण स्थितिशील है, उनसे ध्रुव नियमों की स्थापना होती है ।
खंड- 13 : आहत, पर अप्रतिहत हिंदी
सजाने-बजाने की कोशिश में और अंग्रेजी के साथ कदम मिलाने की कोशिश में हिंदी अपनों के ही बीच बेगानी हो गई। उलटे जिन लोगों ने इसे राजकाजी बनाया, वे ही शिकायत करते कि यह हिंदी तो समझ में नहीं आती। कहावत है कि कुत्ते को कोई खराब नाम दो और फिर उसे फाँसी चढ़ा दो । हिंदी के साथ भी कमोबेश यही हो रहा है। जिसका हिंदी से कोई सरोकार नहीं, वह भी हिंदी में कुछ-न-कुछ नुक्स निकालता है। हिंदी के साहित्य में, हिंदी के रचे वाड्मय में उसे हेठी नजर आती है; और सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात यह है कि स्वयं हिंदी में ही जीने वाले और हिंदी के सहारे जीने वाले व्यक्ति भी इसे हेठी की भाषा कहते हैं ।
खंड- 14 : भारतीय परंपरा और भारत
परंपरा सिद्ध वस्तु नहीं है, वह निरंतर साध्य है… परंपरा इसीलिए साधना का पर्याय है। वह इतिहास-चक्रों के व्यूह तोड़ती रहती है, मनुष्य की स्वाधीनता के नए आयाम तानती चलती है । वह मनुष्य को विचारों से नहीं, विचारों को मनुष्य से, मनुष्य की संपूर्णता की अपेक्षा से बाँधती चलती है। पारंपरिक दृष्टि से निर्णय का कोई एक दिन नियत नहीं है, सत्ता का कोई केंद्रीकरण नहीं है। हर सूर्योदय में वह नई होती है, हर दुपहरी में प्रखर होती है और हर संध्या में ध्यानमग्न होती है, हर चाँदनी में स्वप्नाविष्ट होती है, वह बिना मरे।
खंड- 15 : हिंदू होने का मतलब
महात्मा गांधी को अपने को हिंदू कहने में कोई संकोच नहीं था, उलटे गर्व था। आज हिंदू नाम से जुड़ने में क्यों एक विचित्र प्रकार का संकोच होता है ? कहीं कोई खोट हमारे मन में ही तो नहीं है, विशेषकर अपने को बुद्धिजीवी मानने वाले लोगों में? हिंदू कहलाए जाने से कुछ छिन जाता है क्या ? हिंदू कहलाए जाने से कुछ सुविधाओं में कमी आ जाती है क्या ? हिंदू कहलाया जाना क्या छोटा होता है? जब मैं अपने समाज के भीतर इन शंकाओं की बेल पसरते देखता हूँ तो पीड़ा और दोगुनी हो जाती है। जो अपने आचरण में हिंदू धर्म का लेशमात्र भी पालन नहीं करते, वे हिंदुओं के हितों के रक्षक हो जाते हैं तो मन में भय होता है कि क्या मैं वैसा हिंदू हूँ !
खंड – 16 : संस्कृति-संवाद
बड़ी विशेषता भारतीय संस्कृति की यह है कि वह परायापन नहीं देखती, न मनुष्य की किसी अन्य प्रजाति में, न जीव-जगत् में । अतः आक्रामक-से-आक्रामक, हिंस्र मनुष्य या पशु को भी आत्मीय भाव से देखती है। यह न अपने को अद्वितीय मानती है, न दूसरे की अद्वितीयता के दावे को स्वीकार करती है। इसीलिए यहाँ कोई एक केंद्र नहीं, न कोई स्थान, न देवता, न मनुष्य, न मनुष्य का विशेष वर्ण या आश्रम, सब अपने-अपने ढंग से अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग संदर्भों में केंद्रित होते रहते हैं। इसीलिए कोई छोटा-बड़ा स्तर-भेद यहाँ दिखता है तो वह समझदारी की कमी के कारण दिखता है।
खंड- 17 : मुकुर निज पानी
मैं एकरूपता को कभी नहीं सराहता और उससे हमेशा उद्वेलित ही होता हूँ, पर एकरूपता सामूहिक अपसंस्कृति की देन है और इसीलिए कुछ हद तक अपरिहार्य है। लोगों की लाचारी है कि एक ही ढंग के बने मकान खरीदें, लाचारी है कि उपज की वृद्धि के लिए थोड़े से चुने बीज लें और बीजों की असंख्य किस्मों को विदेश के शीतगृहों में सुरक्षित रखकर संतोष करें। लोगों की लाचारी है कि अपने लिए अलग-अलग वस्त्र न बनाएँ, लाखों की संख्या में उत्पादित वस्त्रों में से ही चयन कर लें। इसी तरह लोग लाचार हैं कि समूह संचार-साधनों में ढली भाषा का इस्तेमाल करें, ताकि उसकी बिक्री हो सके ।
खंड – 18 : परस्पर
…मैं 25 से 27 मार्च तक मद्रास में था और वहाँ के हिंदी-प्रेमियों से, तमिल के लेखकों और कवियों से मिलने का मुझे सौभाग्य मिला तो पता चला कि विरोध हिंदी का नहीं, हिंदी की राजनीति का है । उन्हें अपने ढंग से हिंदी पढ़ने का मौका दिया जाए और उनके हिंदी लेखन को हिंदीतर लेखन न समझा जाए। हिंदी में समस्त भारतीय साहित्य-धाराओं के विनिमय की गति तेज हो। उनकी यही माँग रही कि हिंदी के पाठों में आलवार संतों की वाणी का, नरसी मेहता के पदों का, शंकरदेव के पदों का अनुवाद क्यों नहीं देते ? उनकी इस बात में बल दिखाई देता है। राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान, जो हिंदी की पाठ्यपुस्तकें तैयार करवा रहा है, उसमें यह संशोधन कराना देश और हिंदी के हित में होगा! ( प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को लिखे पत्र का अंश)
खण्ड-19: पाणिनीय भाषाविज्ञान
पैनिनियन स्कूल ने संरचनावाद में स्थिरता केवल अपने दृढ़ विश्वास के कारण हासिल की कि भाषा एक सामाजिक उत्पाद है और यह उद्देश्यपूर्ण है और भाषाई गतिविधि की दुनिया, हालांकि आसपास की दुनिया का एक अमूर्त रूप है, उस बाहरी दुनिया की अपनी वैधता धारणा पर निर्भर नहीं है। यह वह दृष्टिकोण था जिसने अर्थ को (भाषाई संरचना के एक अभिन्न अंग के रूप में), व्यक्तिपरकता की अस्पष्टता और अप्रत्याशितता से और बाहरी दुनिया की छवियों की विविधता से भी मुक्त किया। इसके अनुसार अर्थ अमूर्त है क्योंकि इसे ठोस आकार नहीं दिया जा सकता है और यह वस्तुनिष्ठ है क्योंकि इसे प्रत्येक वक्ता द्वारा समान रूप से साझा किया जाता है, बशर्ते कि उन्होंने निरंतर उपयोग के माध्यम से भाषा गतिविधि के बारे में जागरूकता हासिल कर ली हो।
खण्ड-20 : वाक् और रस
जुनून को रस में बदलने की प्रक्रिया उस प्रक्रिया से मिलती जुलती है जिसके द्वारा ब्रह्मांडीय ऊर्जा या शक्ति को तीन चरणों में साकार किया जाता है: रचनात्मक ऊर्जा का संचालन; इसका संचरण, और संचरण का प्रभाव, आनंद के रूप का। इस समानांतर में, शिव को शब्द के साथ और शक्ति को अर्थ के साथ समान किया गया है; जैसे शक्ति के संचालन के बिना शिव निर्जीव हैं, रस के संचालन के बिना शब्द और अर्थ सौंदर्य की दृष्टि से अर्थहीन हैं। निःसंदेह, इन्हें भाषाई संकेतों द्वारा दर्ज किया जाता है; और जैसे भाषाविद् अपने वाक्यात्मक संदर्भों के विश्लेषण के माध्यम से संकेतों का अर्थ खोजते हैं, वैसे ही कवि और कुशल पाठक जब आंतरिक अर्थ की तलाश करते हैं तो शब्द के पूरे संदर्भ में अपनी कल्पनाशील शक्तियों को संबोधित करते हैं, जब तक कि यह उनकी जागरूकता में वास्तव में वाक् न बन जाए।
खण्ड-21 : भारतीय विचार एवं संस्कृति
सभी रिश्ते अन्योन्याश्रितता या संपूरकता के सिद्धांत को दर्शाते हैं जो संबंधित संबंध की पदानुक्रमित स्थिति से मुक्त हो जाता है। संपूर्ण भाग पर निर्भर करता है। ब्रह्म, निरपेक्ष, व्यक्ति पर निर्भर करता है; मनुष्य पर भगवान. इसीलिए हम लीला या खेल के संदर्भ में सोचते हैं। संबंध के दूसरे शब्द में लीला एक प्रकार की आत्म-मान्यता है, एक आत्म-जागरूकता जो अंततः ज्ञाता, ज्ञात और उससे परे की बहुलता की गैर-पृथक्करण को स्वीकार करती है। लीला न केवल दूसरे के साथ खेल रही है, बल्कि स्वयं की उपस्थिति साबित करने के लिए, आत्मसत्यापन के लिए भी खेल रही है।