स्पेशल डेस्क
नई दिल्ली: भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत से जुड़े मुद्दे हमेशा से संवेदनशील रहे हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लेकर चल रही सुनवाई ने एक नए विवाद को जन्म दिया है। सवाल यह है कि जब वक्फ संपत्तियों के लिए दस्तावेजी प्रमाण की अनिवार्यता को लचीला माना जा रहा है, तो मंदिरों के ऐतिहासिक दावों के लिए कोर्ट द्वारा ठोस कागजी सबूत क्यों मांगे जाते हैं? यह सवाल न केवल कानूनी मंचों पर, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक गलियारों में भी गूंज रहा है। इस कवर स्टोरी में सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर प्रकाश मेहरा के साथ हम इस मुद्दे की गहराई में उतरते हैं, तथ्यों, तर्कों और दृष्टिकोणों को सामने लाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में बहस, वक्फ बाय यूजर का मुद्दा !
16 अप्रैल, 2025 को सुप्रीम कोर्ट में वक्फ (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ दायर 73 याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि 14वीं-15वीं शताब्दी की मस्जिदों के लिए दस्तावेजी प्रमाण, जैसे बिक्री विलेख (सेल डीड), उपलब्ध होना असंभव है, क्योंकि उस समय रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया ही नहीं थी। कोर्ट ने ‘वक्फ बाय यूजर’ की अवधारणा पर जोर दिया, जिसमें लंबे समय तक धार्मिक उपयोग के आधार पर संपत्ति को वक्फ माना जा सकता है, भले ही उसके पास औपचारिक दस्तावेज न हों।
अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने जताई नाराजगी !
इस टिप्पणी ने हिंदू पक्ष को असहज कर दिया। अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन, जो काशी-मथुरा जैसे मामलों में हिंदू पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्होंने प्रकाश मेहरा से बातचीत में सवाल उठाया कि “जब मंदिरों की बात आती है, तो कोर्ट उनसे पुरातात्विक और ऐतिहासिक दस्तावेज मांगता है।” उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के इस दोहरे रवैये पर नाराजगी जताई और पूछा कि वक्फ मामलों को हाईकोर्ट में भेजने की बजाय सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई क्यों हो रही है, जबकि मंदिरों से जुड़े मामले अक्सर निचली अदालतों में भेज दिए जाते हैं।
वक्फ बाय यूजर कानूनी लचीलापन या पक्षपात?
वक्फ एक्ट, 1995 के तहत ‘वक्फ बाय यूजर’ का प्रावधान वक्फ बोर्ड को यह अधिकार देता है कि वह किसी संपत्ति को धार्मिक उपयोग के आधार पर वक्फ घोषित कर सकता है, भले ही उसके पास औपचारिक दस्तावेज न हों। आंकड़ों के अनुसार, भारत में 6.5 लाख से अधिक संपत्तियां वक्फ बोर्ड के तहत दर्ज हैं, जिनमें से कई का दावा बिना ठोस कागजी सबूत के किया गया है।
दूसरी ओर, अयोध्या, काशी, और मथुरा जैसे मंदिरों से जुड़े मामलों में कोर्ट ने हिंदू पक्ष से पुरातात्विक सर्वेक्षण, ऐतिहासिक ग्रंथों, और लिखित दस्तावेजों जैसे ठोस प्रमाण मांगे हैं। उदाहरण के लिए, अयोध्या मामले में राम जन्मभूमि के दावे को साबित करने के लिए दशकों तक पुरातात्विक सबूत, ग्रंथ, और ऐतिहासिक साक्ष्यों की गहन जांच की गई।
सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी ने इस सवाल को और गहरा कर दिया कि क्या वक्फ संपत्तियों के लिए लचीले नियम और मंदिरों के लिए सख्त मापदंड एक दोहरी न्याय व्यवस्था को दर्शाते हैं। हिंदू पक्ष का तर्क है कि जब मस्जिदों के लिए ‘वक्फ बाय यूजर’ की अवधारणा को स्वीकार किया जा सकता है, तो मंदिरों के लिए भी पुरातात्विक अवशेषों और सांस्कृतिक साक्ष्यों को पर्याप्त माना जाना चाहिए।
मंदिर-मस्जिद विवादों का जटिल इतिहास!
भारत में मंदिर-मस्जिद विवादों का इतिहास सदियों पुराना है। कई मस्जिदों के बारे में दावा किया जाता है कि वे मंदिरों को तोड़कर बनाई गईं, जबकि मुस्लिम पक्ष इन दावों को खारिज करता है। ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा की शाही ईदगाह, और अजमेर की ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह जैसे मामले इस विवाद के केंद्र में हैं।
उदाहरण के लिए, ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने अपनी रिपोर्ट में मंदिर के अवशेष, टूटी हुई मूर्तियां, और कमल के फूल जैसे प्रतीकों का उल्लेख किया है। फिर भी, कोर्ट ने इस मामले में अंतिम फैसला देने में सावधानी बरती है। इसी तरह, मथुरा में शाही ईदगाह के पास श्रीकृष्ण जन्मभूमि के दावे को लेकर भी पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों की मांग की जा रही है।
वक्फ बोर्ड के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि विवादित संपत्तियों या सरकारी जमीन पर ‘वक्फ बाय यूजर’ का प्रावधान लागू नहीं होगा। हालांकि, यह प्रावधान पुरानी मस्जिदों के लिए लागू हो सकता है, जिससे हिंदू पक्ष को लगता है कि उनके दावों की तुलना में वक्फ को अधिक छूट दी जा रही है।
सामाजिक और राजनीतिक प्रतिक्रियाएं ?
इस मुद्दे ने सामाजिक और राजनीतिक मंचों पर तीखी बहस छेड़ दी है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर कई यूजर्स ने सुप्रीम कोर्ट के रुख को ‘दोहरा मापदंड’ करार दिया। एक यूजर ने लिखा, “राम मंदिर के लिए 500 साल तक सबूत मांगने वाली न्यायपालिका वक्फ की संपत्तियों पर एक कागज तक नहीं मांगती।”
राजनीतिक दलों ने भी इस मुद्दे पर अपनी-अपनी राय रखी है। AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने वक्फ संशोधन कानून को संविधान के खिलाफ बताते हुए इसे वक्फ संस्थाओं के अधिकार छीनने वाला करार दिया। वहीं, मणिपुर के पूर्व मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह ने इसे ‘धर्मनिरपेक्ष भारत’ पर हमला बताया। दूसरी ओर, हिंदू संगठनों और कुछ भाजपा नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट से मंदिरों के लिए भी समान नियम लागू करने की मांग की है।
कानूनी विशेषज्ञों की राय !
कानूनी विशेषज्ञ के तौर पर प्रकाश मेहरा का कहना है कि “वक्फ और मंदिरों से जुड़े मामलों की प्रकृति अलग है। वक्फ एक्ट एक विशेष कानून है, जो धार्मिक संपत्तियों के प्रबंधन के लिए बनाया गया है, जबकि मंदिरों से जुड़े मामले अक्सर सिविल विवादों के दायरे में आते हैं।” वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया कि वक्फ संशोधन कानून अनुच्छेद 26 का उल्लंघन करता है, जो धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि कोर्ट का ‘वक्फ बाय यूजर’ पर लचीला रुख ऐतिहासिक संदर्भों को ध्यान में रखकर लिया गया है। उनके अनुसार, मध्यकाल में दस्तावेजीकरण की कमी के कारण पुरानी मस्जिदों के लिए कागजी सबूत मांगना अव्यावहारिक है। लेकिन यह तर्क हिंदू पक्ष को स्वीकार्य नहीं है, जो मानता है कि मंदिरों के लिए भी पुरातात्विक साक्ष्यों को पर्याप्त माना जाना चाहिए।
क्या हो सकता है इसका समाधान ?
इस विवाद ने एक बार फिर भारत की न्यायिक प्रणाली के सामने एक जटिल सवाल खड़ा कर दिया है। क्या को ज़रूरी है कि धार्मिक संपत्तियों से जुड़े मामलों में एक समान मापदंड अपनाए जाएं? सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर जवाब देने के लिए एक सप्ताह का समय दिया है, और अगली सुनवाई 5 मई, 2025 को होगी।
इस बीच, समाज में इस मुद्दे को लेकर तनाव बढ़ने की आशंका है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में वक्फ संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शनों के दौरान हिंसा की खबरें सामने आई हैं। ऐसे में, यह जरूरी है कि कोर्ट न केवल कानूनी, बल्कि सामाजिक संवेदनशीलताओं को भी ध्यान में रखे।
क्या अब संतुलन की आवश्यकता ?
वक्फ और मंदिरों से जुड़े मामलों में कानूनी मापदंडों का सवाल केवल तकनीकी नहीं, बल्कि भावनात्मक और सांस्कृतिक भी है। सुप्रीम कोर्ट के सामने चुनौती है कि वह ऐसी व्यवस्था बनाए, जो निष्पक्षता और समानता के सिद्धांतों पर आधारित हो। क्या वक्फ और मंदिरों के लिए एक समान नियम बनाया जा सकता है? या फिर ऐतिहासिक और कानूनी संदर्भों के आधार पर अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाना उचित है? इन सवालों का जवाब न केवल न्यायिक प्रणाली, बल्कि पूरे समाज को प्रभावित करेगा।