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Home राष्ट्रीय

राहुल की भारत जोड़ो यात्रा के निहितार्थ

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
February 3, 2023
in राष्ट्रीय, विशेष
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Rahul Gandhi's 'Bharat Jodo Yatra
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The petty politics of Gandhi vs Savarkarकौशल किशोर


कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पदयात्रा सम्पन्न कर राहुल गांधी घर लौट चुके हैं। आतंकवाद और हिंसा की राजनीति का शिकार हुए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पुण्य भूमि से शुरु हुए इस अभियान का श्रीनगर में लाल चौक पर समापन हो गया। इस बीच 117 पदयात्री 116 दिन चलते हुए 14 प्रदेशों से गुजरते हैं। देश के राजनीतिक मानचित्र पर चार हजार किलो मीटर लंबी खड़ी रेखा खिंचती है। राष्ट्रीय फलक पर दार्शनिक की तरह लंबी दाढ़ी वाले राहुल का उदय होता है और ‘पप्पू’ की छवि पीछे छूट जाती है। पदयात्रा पूरी करते हुए राहुल नई छवि गढ़ते प्रतीत होते हैं। इसका चुनावी राजनीति से सम्बंध स्वयं ही खारिज करते हैं। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक दल के नेता की इन बातों का निहितार्थ जानना जरूरी है।

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एक ऐसे दौर में जब कांग्रेस छोड़ कर जाने वाले नेताओं और समर्थकों की कोई कमी नहीं है, इस यात्रा से पार्टी में नई ऊर्जा का संचार होता है। सत्ता में वापसी का सपना साकार करने में इसकी क्या भूमिका होगी, यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इस क्रम में महंगाई, बेरोजगारी और सामाजिक समरसता जैसे मुद्दों पर खूब बात होती है। सभी प्रदेशों के लोगों ने पदयात्रियों के दल के साथ कदम मिलाने का प्रयास किया है। जयराम रमेश व दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं की इसमें अहम भूमिका है। यात्रा के दरम्यान विभिन्न स्तर पर 150 नेताओं के चयन की बात हुई थी। पर नए नेता को उभरने का मौका मिला हो, ऐसा चेहरा भी दिखाई नहीं देता है। राहुल गांधी की छवि अवश्य चमकती दिखाई देने लगी है।

युवराज ने राजधानी स्थित राजभवन की चारदीवारी से बाहर निकल कर व्यापक जन संपर्क का अभियान चलाया। अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार का उन्होंने इसे माध्यम बताया। नफरत के बाजार में प्यार मोहब्बत की दुकान खोलने का जुमला भी खूब दोहराया गया है। साथ ही स्पष्ट करते हैं कि जिस नफरत के खिलाफ इस भारत जोड़ो का नारा दिया वह देश में कहीं नहीं मिला। भारत की स्थिति के बारे में यात्रा से पहले और बाद में राहुल की समझ में फर्क आया है। संघ और भाजपा ही नहीं बल्कि मीडिया भी लगातार उनके निशाने पर बना रहा। कांग्रेस कार्यकर्ता चड्डी जला कर और तमाम हथकंडों से उन्हें भड़काने का प्रयास करते रहे। इसके बाद भी भाजपा और संघ से जुड़े लोग सहिष्णुता और शांति कायम रखते हुए सहयोगी साबित हुए। पदयात्रा की सफलता की कामना करने वालों की भी कोई कमी नहीं रही। सुरक्षा नियमों का उल्लंघन कर सरकार के लिए मुश्किलें भी खड़ी करते हैं। केन्द्र सरकार जी-20 की अध्यक्षता की जिम्मेदारी के साथ विभिन्न स्तरों पर भारत जोड़ने के अपने अभियान को व्यापकता प्रदान करने में लगी है। यह भारत जोड़ो की दूसरी व्याख्या है। नरेन्द्र मोदी इसका नेतृत्व कर रहे हैं।

देशवासियों में आपसी प्रेम और सौहार्द की भावना निश्चय ही सराहनीय है। सामाजिक समरसता के लिए हाल ही में दो अवसरों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्पष्ट अपील किया है। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की पिछली बैठक में नफरत के बोल पर रोक लगाने पर बल दिया था। फिर राष्ट्रीय कैडेट कोर के जवानों को संबोधित करते हुए मां भारती की संतानों के बीच दूध में दरार डालने की कोशिशों का जिक्र करते हुए एकता की अपील करते हैं। इस मामले में भारत की जनता और दोनों नेताओं में गजब की समानता है। इस बात को यदि राजनीतिक कार्यकर्ता समझ सके तो देश और दुनिया का भला हो सकता है। धर्म व आस्था की राजनीति करने वाले लोगों को भी इस बात का ख्याल रखना चाहिए।

गांधी पदयात्रा और सत्याग्रह की राजनीति 1930 में नमक सत्याग्रह और दांडी यात्रा से करते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने भी 1983 में कन्याकुमारी से दिल्ली की पदयात्रा किया था। दिग्विजय सिंह नर्मदा की परिक्रमा से पदयात्रा की राजनीति ही साधते हैं। हालांकि मध्य प्रदेश में कमल नाथ सरकार ज्यादा दिन चल नहीं सकी, पर उनके पदयात्रा मार्ग का विधानसभा से संपर्क अवश्य हुआ। आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी ने अपने पैतृक गांव से 3600 किलोमीटर लंबी पदयात्रा किया। इसी 11 महीने के जनसंपर्क अभियान के बूते उन्हें सत्ता मिली। हालांकि राहुल की यात्रा आंध्र प्रदेश में मुश्किलों का सामना करती है।

इस यात्रा के बीच कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से पार्टी के लोकतांत्रिक होने का प्रमाणपत्र निकलता है। मल्लिकार्जुन खड़गे व शशि थरूर के बीच कड़ा मुकाबला हुआ। इससे कांग्रेस पर नेहरु गांधी परिवार की गिरफ्त ढीली होने के संकेत मिलते थे। परंतु यात्रा की सफलता से परिवार की पकड़ मजबूत हुई। कांग्रेस की ओर से अगले प्रधानमंत्री पद के लिए युवराज की दावेदारी सुनिश्चित हो गई है। इसी वजह से प्रधानमंत्री पद के आकांक्षी क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप इस यात्रा से दूरी बनाए रखने की रणनीति अपनाते हैं। बड़ी जनसभा, छोटी नुक्कड़ सभा, प्रेस कॉन्फ्रेंस, विश्राम स्थलों पर भेंटवार्ता, कुल मिलाकर 400 से ज्यादा संवाद सत्र हुए।

सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में लगे लोगों और समूहों का समर्थन पाने की खूब कोशिश हुई। इसमें सफलता भी मिली है। दिवाली और क्रिसमस की सीमित छुट्टियों से उनका राजनीतिक कायाकल्प हुआ है।

लोगों को निर्भयता का पाठ पढ़ाने के लिए ‘डरो मत’ का मंत्र देते। रह रह कर शहजादे का भाव भी प्रकट करते हैं। प्रशांत चारी व सावियो जोसफ की ब्रांड मैनेजमेंट कंपनी तीन बंदर राहुल की ब्रांडिंग खूब करती है। आयोजकों ने सौ करोड़ रुपए यात्रा में खर्च होने का जिक्र किया है। किंतु इस पदयात्रा का राजनीतिक अर्थशास्त्र इससे कई गुणा ज्यादा होगा। बराबर परिवार का भी जिक्र करते हैं। यह मारियो पूजो के उपन्यास ‘द गॉडफादर’ और ‘द फैमिली’ की याद दिलाती है। सत्तर के दशक में इस पर कई चर्चित फिल्म बनी। यह परिवार को इटली और सिसिली से जोड़ती है। साथ ही भय दूर करना भी सिखाती है। परिवार एवं यात्रा के राजनीतिक अर्थशास्त्र की समझ दुरुस्त करने हेतु रेड्डी और पूजो मददगार साबित होते हैं।

दक्षिण से उत्तर की यात्रा भारतीय परम्परा में तीर्थाटन कहलाती है। संजीवनी बूटी के साथ हनुमानजी इसके प्रतीक हैं। इस तीर्थ यात्रा के आध्यात्मिक पक्ष का जिक्र लाल चौक पर प्रियंका गांधी वाड्रा भी करती हैं। बाबा आमटे ने अस्सी के दशक में 5000 किलो मीटर लंबी कन्याकुमारी से कश्मीर की पदयात्रा किया था। दक्षिण से उत्तर के बाद बाबा पश्चिम से पूरब की यात्रा करते हैं जिसका नाम भारत जोड़ो पदयात्रा ही था। सत्ता को जहर बताने वाले राहुल गांधी एवं बाबा आमटे की पदयात्रा में समानता है। ये दो बातों को इंगित करती है। संभव है कि आगे राहुल गांधी भी बाबा की तरह पश्चिम से पूरब की यात्रा सम्पन्न करें। इसे चुनावी राजनीति से पृथक बताने का आशय सत्ता की प्राप्ति में असफलता की दशा में बाबा आमटे की तरह आध्यात्मिक पथ पर बढ़ने का संकेत करता है। ऐसा करने से नेहरु गांधी परिवार की कांग्रेस की राजनीति से सम्मानजनक विदाई भी सुनिश्चित होती है। दार्शनिक, साधु-संत व मौलाना की उनकी नई छवि इसके अनुकूल प्रतीत होती है।

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