Ajay Setia
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने देश के लोकतंत्र को चुनौती देना शुरू कर दिया और विपक्षी पार्टियां इससे खुश हैं। वे संसद में कमजोर होने के कारण सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का इस्तेमाल कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट का काम उनके सामने आए मुकद्दमों पर फैसला करना है, लेकिन जिस तरह उसने मणिपुर के मामले में प्रशासन और चुनी हुई सरकार के कामकाज में सीधा दखल देने का फैसला किया, वह लोकतंत्र की मर्यादाओं का उलंघन है।
सुप्रीम कोर्ट आए दिन संसद से पारित कानूनों और अध्यादेशों की संवैधानिकता जांचने का काम भी करने लगा है। दिल्ली के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने खुद लिखा था कि क़ानून के अभाव में वह यह फैसला दे रहा है कि दिल्ली के अफसरों की ट्रांसफर पोस्टिंग का अधिकार दिल्ली सरकार का होगा। 1991 के क़ानून में यह खामी इसलिए रह गई थी, क्योंकि दिल्ली को विधानसभा देने वाले इस क़ानून में दिल्ली को केंद्र शासित राज्य ही लिखा हुआ था। सरकार ने जब वह रिक्त स्थान भर दिया, जिसके आधार पर फैसला दिया गया था, तो सुप्रीम कोर्ट ने अध्यादेश की संवैधानिकता की जांच शुरू कर दी। यही ट्रेंड रहा तो डर है कि किसी दिन सुप्रीम कोर्ट सरकार की संवैधानिकता की जांच ही न शुरू कर दे, जो माननीय राष्ट्रपति का अधिकार है।
अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि सरकार उसके फैसले के बाद अगर किसी क़ानून में संशोधन करती है, तो सुप्रीम कोर्ट उसे मानने को बाध्य नहीं है। उसकी यह टिप्पणी संविधान की भावना के खिलाफ है, क्योंकि क़ानून बनाने का अधिकार संसद का है, सुप्रीम कोर्ट का नहीं। एलजीबीटी के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने मेरिज एक्ट में संशोधन की कोशिश की, जोकि संसद का अधिकार है। हालांकि यह मामला अभी ठंडे बस्ते में है, लेकिन चीफ जस्टिस के तेवरों से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट किसी दिन इस पर खुद क़ानून बनाने का फैसला कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट खुद को सरकार से बड़ा समझने लगा है। अभी हाल ही में ईडी के एक्स्टेंशन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने तानाशाहीपूर्ण फैसला दिया कि क्योंकि संसद ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ईडी के डायरेक्टर का एक्सटेंशन बढ़ाने का बिल पास किया है, इसलिए वह उसे मौजूदा ईडी के मामले में नहीं मानेगी। सुप्रीम कोर्ट ईडी का एक्सटेंशन पांच तक बढ़ाने के कानून संशोधन को गलत भी नहीं बता रही, लेकिन नाक का सवाल बनाकर कह रही है कि वह मौजूदा ईडी का कार्यकाल नहीं बढ़ने देगी। सुप्रीम कोर्ट की यह जिद्द न केवल असंवैधानिक है, बल्कि संसद के अधिकारों में हस्तक्षेप और तानाशाही भी है।
सरकार को सुप्रीम कोर्ट में बार बार याचिका लगानी पड़ रही है कि उसे मौजूदा ईडी संजय मिश्रा की अभी जरूरत है, और क़ानून भी इसकी इजाजत देता है। सुप्रीम कोर्ट कह रहा है कि क्योंकि उसने 8 सितंबर 2021 में कह दिया था कि संजय मिश्रा का यह आख़िरी एक्सटेंशन है तो सरकार को 17 नवंबर 2021 और 17 नवंबर 2022 को एक्सटेंशन नहीं देनी चाहिए थी, यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट को कानून के अनुसार ही आदेश देने का अधिकार है, कानून के बाहर जाकर वह आदेश कैसे दे सकता है, और अपने अवैध आदेशों को अपनी इज्जत का सवाल कैसे बना सकता है। क़ानून बदल गया, तो सुप्रीम कोर्ट को आदेश भी बदलना पड़ेगा। संसद ने क़ानून में संशोधन कर दिया कि ईडी की एक्सटेंशन पांच साल तक बढाई जा सकती है, तो सुप्रीम कोर्ट कैसे कह सकती है कि संसद उसके दिए फैसले को नहीं पलट सकती।
11 जुलाई को अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हमने क़ानून संशोधन से पहले जो फैसला दिया था, सरकार को उसे ही मानना पड़ेगा और संजय मिश्रा को 31 जुलाई को हटाना पड़ेगा। विपक्ष अगर संसद में बहुमत में नहीं है, तो वह संसद और चुनी हुई सरकार को पंगु बनाने की कोशिश कर रहा है, और सुप्रीम कोर्ट विपक्ष के हाथ का खिलौना बन कर लोकतंत्र को पटरी से उतारने की कोशिश कर रही है।
11 जुलाई के इस फैसले से सरकार का असहज होना स्वाभाविक है, क्योंकि भारत में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स ( एफएटीएफ ) मनी लॉन्ड्रिंग और आतंकी फंडिंग की समीक्षा चल रही है, ऐसे में समीक्षा पूरी होने तक उनका ईडी बने रहना राष्ट्रीय हित में है, जबकि भारत के विपक्षी नेताओं का स्वार्थ सिर्फ इतना है कि मौजूदा ईडी क्योंकि उनके भ्रष्ट नेताओं पर आए दिन छापेमारी करवा रहे हैं, इसलिए उन्हें जल्द से जल्द हटना चाहिए।
मिश्रा कई हाई-प्रोफाइल मामलों को संभाल रहे हैं – जिनमें से ज्यादातर संदिग्ध मनी लॉन्ड्रिंग से संबंधित हैं। एजेंसी की जांच के दायरे में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम भी शामिल हैं। इसके अलावा कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती, दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और गांधी परिवार के नियन्त्रण वाला मीडिया संगठन यंग इंडिया भी शामिल है, जो नेशनल हेराल्ड अखबार का मालिक है।
एफएटीएफ मनी लॉन्ड्रिंग और आतंकी फंडिंग से निपटने के लिए स्थापित एक अंतर-सरकारी निकाय है। इस समय एफएटीएफ की समीक्षा चल रही है, जब तक वह जांच पूरी न हो जाए, सरकार चाहती है कि मौजूदा ईडी बने रहें। पाकिस्तान और पाकिस्तान समर्थक भारतीय लॉबी चाहती है कि चुनावी साल में मोदी सरकार के चलते भारत अगर एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में आ जाता है, तो चुनावों में विपक्ष को एक हथियार मिल सकता है। यानि वे संजय मिश्रा को हटवा कर पाकिस्तान की तरह भारत को ग्रे लिस्ट में लाना चाहते हैं। क्या यह इन्डियन होने का प्रमाण है।
सरकार ने राष्ट्रीय हित का आधार लगा कर नई याचिका लगाई, जिसमें कहा गया था कि भारत सहित लगभग 200 देशों ने एफएटीएफ मानकों को लागू करने के लिए प्रतिबद्धता जताई है। इसलिए एफएटीएफ की समीक्षा के चलते संजय मिश्रा को 15 अक्टूबर तक एक्सटेंशन दी जाए, क्योंकि तब तक एफएटीएफ की समीक्षा पूरी हो जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में राष्ट्रीय हित का हवाला तो दिया, लेकिन एक्सटेंशन 15 सितंबर तक ही दी।
सवाल यह है कि संसद से पारित क़ानून के बावजूद सरकार को बार बार सुप्रीम कोर्ट में याचक बन कर खड़ा क्यों रहना पड़ता है। उसे राष्ट्रहित की दुहाई क्यों देनी पड़ती है। संजय मिश्रा का मामला हो या दिल्ली अध्यादेश का मामला हो, या मणिपुर की हिंसा का मामला हो, सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को विपक्ष की तरह कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट को ऐसी संसद में बदल दिया गया है, जहां बहुमत के बावजूद सरकार असहाय दिख रही है, और सुप्रीम कोर्ट के जज विपक्ष की तरफ से बैटिंग कर रहे हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट भारत के लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा नहीं बन रहा है?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।