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Home राष्ट्रीय

मुद्दा : जेल में भी जिंदगी से जद्दोजहद

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
April 24, 2023
in राष्ट्रीय, विशेष
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arrest
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सुशील देव


एक तो जेल। उसके अंदर भी परेशानी। देश में ज्यादातर जेलों की हालत खराब है। कुछ तो बेहतर हालत में हैं, मगर अधिकांश जेलों में क्षमता से अधिक कैदी भरे हुए हैं। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि भीड़-भाड़ वाले जेलों में कैदियों की हालत क्या होती होगी? किस तरह से उन्हें शौच-पेशाब, नहाना-खाना या सोने-बैठने में दिक्कत आती होगी। मीडिया के जरिए समय-समय पर जेलों की ऐसी व्यथा-कथा बाहर आती रहती है। मगर इसे लेकर न तो जेल प्रशासन और न ही सरकार के स्तर पर किसी प्रकार की गंभीरता देखी जाती है। सनद रहे कि सर्वोच्च अदालत तक चिंता जता चुकी है कि जेलों में क्षमता से अधिक कैदी रखना मानवाधिकार का उल्लंघन है।

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विशेषज्ञों के मुताबिक खास तौर पर विचाराधीन कैदियों का लंबे समय तक जेलों में बने रहना चिंता का विषय है। 1970 में राष्ट्रीय जेल जनगणना से पता चला था कि जेल के 52 फीसद कैदी मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे थे। तब से धीरे-धीरे यह सिलसिला आगे ही बढ़ रहा है। यानी जेल में भीड़-भाड़ को कम करना है तो विचाराधीन कैदियों की संख्या को काफी कम करना होगा। भले ही यह अदालतों के बिना संभव नहीं, परंतु इस दिशा में न्याय प्रणाली के तीनों अंगों को सामंजस्यपूर्ण ढंग से कार्य करना चाहिए।
हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने लोक सभा में जानकारी दी है कि देश भर की जेलों में बंद 1400 से अधिक कैदी अपनी सजा काटने के बाद जुर्माने की राशि का भुगतान नहीं कर पाने की वजह से अभी भी जेलों में बंद हैं। इनकी रिहाई समय से हो जाती तो शायद जेलों का भार कम होता।

गौरतलब है कि जेलों में कैदियों को क्षमता से ज्यादा रखने के मामले में देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश है। यहां कैदियों की संख्या लगभग दोगुना है। दूसरे नंबर पर बिहार और तीसरे नंबर पर मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र की जेलें हैं। इन जेलों में कैदियों का बहुत बुरा हाल है। इसके अलावा क्षमता से अधिक कैदी रखने वाले राज्यों में असम, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य शामिल हैं।

मतलब साफ है कि कैदियों को जेलों में रखने में असंतुलन बड़े राज्यों में ज्यादा है। अगर हम दिल्ली के तिहाड़ की एक जेल, नंबर-4 की बात करें तो वहां 740 की जगह 3700 से अधिक कैदी बंद हैं। यहां नहाने-धोने या टॉयलेट जाने के लिए लंबी लाइन लगानी पड़ती है। कई बार आपसी लड़ाई-झगड़े के कारण जेल प्रशासन को बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। उन पर नजर रखने में संघर्ष करना पड़ता है। दूसरी ओर कोरोना जैसी महामारी भी कई जेलों के लिए चिंता का सबब बन गई थी।

एशिया की सबसे बड़ी जेल तिहाड़ में 80 प्रतिशत ऐसे कैदी हैं, जिन्हें अदालत से जमानत मिलने के बाद भी सलाखों के पीछे रहना पड़ रहा है। उनके पास जुर्माना के राशि चुकाने तक के पैसे नहीं। इस प्रकार दिल्ली में कुल 16 जेल हैं, जो करीब-करीब क्षमता से अधिक कैदियों से भरे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो यानी एनसीआरबी के मुताबिक देश में कुल 1412 जेलों में अपने निर्धारित क्षमता से अधिक कैदी बंद हैं। इसमें साल-दर-साल बढ़ोतरी ही होती जा रही है, जबकि जेलों की संख्या में मामूली वृद्धि हुई है। सर्वोच्च अदालत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एनवी रामना के मुताबिक आज आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रक्रिया ही सजा बन गई है। इस वजह से भी जेलों में कैदियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसलिए अंधाधुंध गिरफ्तारी से लेकर जमानत हासिल करने में आ रही मुश्किलों के कारण विचाराधीन कैदियों को लंबे समय तक कैद में रखने की प्रक्रिया पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।

अंडर ट्रायल के तौर पर कैदियों का सालों से बंद रहना उचित नहीं है। फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना व खुली जेल बनाना इसके उपाय हो सकते हैं। इसके अलावा कई न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए त्वरित कदम उठाए जाने की जरूरत है। दुनिया के कई अन्य देशों की तुलना में भारतीय जेलों में कैदियों की अपेक्षाकृत कम संख्या होने के बावजूद कई समस्याएं हैं। भीड़-भाड़, अंडर-ट्रायल, कैदियों की लंबे समय तक हिरासत, असंतोषजनक रहने की स्थिति, उपचार कार्यक्रमों की कमी और जेल कर्मचारियों के उदासीनता के कारण असंतुलन की स्थिति है। यहां तक कि अमानवीय नजरिए ने आलोचकों का ध्यान खींचा है। भारत में जेलों की स्थिति के बारे में देश के बाहर भी अच्छी छवि नहीं है।

कुल मिलाकर देश के जेलों की स्थिति बहुत ही दयनीय है। ऐसे में सरकार को जेलों के प्रति अधिक से अधिक संवेदनशील होना चाहिए। क्योंकि जो व्यक्ति अपराधी के रूप में कैद हैं, वह एक जीवित इंसान भी हैं, जिन्हें पूर्ण रूप से और सम्मान से जीने का अधिकार है। राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू इस मुद्दे पर अपना मत जता चुकी हैं कि जेलों में बहुत से लोगों को ना तो अपने मौलिक अधिकारों या कर्तव्यों के बारे में पता है, और ना ही संविधान की प्रस्तावना के बारे में जानकारी। बाहर आने पर समाज द्वारा बुरे बर्ताव की चिंता उन्हें अलग सताती है। इसलिए जेलों की बुनियादी ढांचे में सुधार के साथ पुनर्वास संबंधी उपयोगी कदम उठाना श्रेयस्कर होगा।

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