हरिशंकर व्यास
राजनीति में पैसे का खेल किसने शुरू किया या कौन बड़ा है और कौन छोटा है, यह कहना आसान नहीं है। फिर भी पिछले करीब तीन दशक की राजनीति को देखें तो ऐसा लगता है कि दक्षिण भारत से खास कर तमिलनाडु से यह खेल शुरू हुआ। तमिलनाडु में सबसे पहले पैसे वाले अमीर लोगों ने राजनीति शुरू की और अपने पैसे के दम पर चुनाव जीतने का कारनामा किया। दूसरे राज्यों में भी ऐसे लोग होंगे लेकिन वे इक्का-दुक्का थे, जबकि तमिलनाडु में इसे सांस्थायिक रूप दिया गया। वहां की पार्टियों ने कार्यकर्ताओं को खूब रुपए दिए और मतदाताओं को अलग अलग चीजों का लालच देना शुरू किया। रेवड़ी बांटने की शुरुआत भी संभवत: सबसे पहले वहीं से हुई। पार्टियों ने महिलाओं को मंगलसूत्र और वाशिंग मशीन, मिक्सर-ग्राइंडर आदि बांटने शुरू किए। फिर बात नकद बांटने तक पहुंच गई। चुनाव आयोग और आयकर की टीम की नजरों से बचते हुए मतदाताओं तक पैसे पहुंचाने के तरह तरह के उपाय किए गए। कोई 15 साल पहले किसी चुनाव के समय मदुरै से खबर आई थी कि डीएमके नेता अलागिरी की टीम हॉकर से जरिए लोगों के घरों में पहुंचने वाले अखबार में पैसे डाल कर भिजवा रही है।
धीरे धीरे फिर सभी पार्टियां किसी न किसी तरीके से चुनाव में पैसे का अधिकतम इस्तेमाल करने लगीं। इसके लिए सत्ता में रहने और बेहिसाब पैसे इक_ा करने का चलन शुरू हुआ क्योंकि पैसा चुनाव जीतने की गारंटी बन गया। देश की राजनीति में 2004 के लोकसभा चुनाव में तब की केंद्र सरकार और भाजपा की ओर से इंडिया शाइनिंग और फीलगुड फैक्टर के प्रचार पर जिस तरह से बेहिसाब खर्च हुआ वह एक टर्निंग प्वाइंट था। उसी समय भाजपा के चुनाव प्रबंधकों खास कर प्रमोद महाजन ने प्रचार के लिए कारपोरेट बॉम्बिंग के जुमले का इस्तेमाल किया था। भाजपा वह चुनाव हार गई थी लेकिन उसी चुनाव में पैसे का खेल राज्यों से निकल कर राष्ट्रीय चुनाव तक पहुंचा था। उससे पहले भी पार्टियां चुनाव में पैसे का इस्तेमाल करती थीं लेकिन वह बेहिसाब नहीं होता है और वह सिर्फ पारंपरिक तरीके से होने वाले प्रचार पर खर्च होता था।
एक दशक बाद 2014 में चुनावी राजनीति का खेल पूरी तरह से बदल गया। गुजरात में मुख्यमंत्री रहते अमेरिकी कंपनी एपको से अपना ब्रांड मैनेजमेंट करवाने वाले नरेंद्र मोदी चुनाव प्रबंधक और मेगा इवेंट्स का कांसेप्ट लेकर राजनीति में उतरे। एपको के साथ साथ साथ प्रशांत किशोर की आईपैक उनके लिए चुनाव रणनीति बनाने और चुनाव प्रबंधन का काम कर रही थी। उन्होंने 3डी प्रचार शुरू किया। उन्होंने चाय पर चर्चा जैसे बड़े मेगा इवेंट्स प्लान किए, जिन पर भारी भरकम खर्च किया गया। बड़ी रैलियां की गईं, जिनमें लोग जुटाने पर भारी खर्च हुए। उस रैली की कवरेज और टीवी पर उसे दिखाने का बंदोबस्त किया गया। चुनाव में पहले भी कारोबारी और उद्योगपति चंदा देते थे लेकिन पहली बार 2014 में चुनाव कारपोरेट इवेंट में तब्दील हुआ। उस चुनाव में नेताओं से ज्यादा प्रबंधन और रणनीति बनाने वाली एजेंसियां काम कर रही थीं और परदे के पीछे से ज्यादा लोग चुनाव लड़ या लड़ा रहे थे।
भाजपा ने चुनाव लडऩे का यह तरीका सिखाया, जिसे दूसरी पार्टियों ने हाथों हाथ लिया। नरेंद्र मोदी के लिए काम करने वाले प्रशांत किशोर ने तमिलनाडु में डीएमके से लेकर बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, महाराष्ट्र में शिव सेना, दिल्ली में आम आदमी पार्टी, बिहार में जदयू-राजद और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी-कांग्रेस को चुनाव लड़ाया। अचानक चुनाव प्रबंधन करने वाली कंपनियों की बाढ़ आ गई। सर्वे करने वाली सैकड़ों एजेंसियां खड़ी हो गई। सोशल मीडिया में हजारों की संख्या में चैनल बन गए और सोशल मीडिया के प्रबंधन करने वाली संस्थाएं जगह जगह पैदा हो गईं। पार्टियों के अपने वार रूम्स और सोशल मीडिया टीमें बनने लगीं। दूसरी पार्टियां भी इस तरह के बंदोबस्त करने में खर्च करती रहीं लेकिन भाजपा न्यूमेरो उनो बनी रही। सत्ता में आने के बाद भाजपा ने पावर इस तरह से कंसोलिडेट किया कि सारे चुनावी चंदे का रास्ता बदल गया। अब चुनावी चंदे का 90 फीसदी हिस्सा भाजपा को मिलता है। भाजपा की सरकार ने चुनावी चंदे के लिए इलेक्टोरल बांड का ऐसा सिस्टम बनाया कि दूसरी पार्टियों के पास चंदा जाना ही बंद हो गया। आधिकारिक रूप से भाजपा के पास सबसे ज्यादा पैसा है और हर चुनाव में वह सबसे ज्यादा पैसा खर्च करती है। लेकिन आधिकारिक रूप से जो पैसा खर्च होता है वह वास्तविक खर्च के मुकाबले ऊंट के मुंह में जीरा की तरह है। देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी कांग्रेस इस खेल से बाहर हो गई क्योंकि केंद्र के साथ साथ उसने ज्यादातर राज्यों में सत्ता गंवा दी। सो, एक तरफ भाजपा है तो दूसरी ओर ऐसे प्रादेशिक क्षत्रप हैं, जिनकी किसी न किसी राज्य में सरकार है।