अजय दीक्षित
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सुशासन के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन हमने कभी नहीं माना। वह अलग-अलग गठबंधनों के साथ बीते 17 साल से ज्यादा समय से बिहार के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन वह आज भी देश के सबसे गरीब, पिछड़े, आपराधिक राज्यों में एक है। अभी छपरा में जहरीली शराब पीने से जो 50 मौतें हो चुकी हैं और यह आंकड़ा लगातार बढ़ता ही जा रहा है, हम उसे नरसंहार मानते हैं, क्योंकि सुनियोजित तरीके से नकली शराब बेची जा रही है। इतने परिवार अनाथ हो गए या परिवारों के चिराग बुझ गए, लेकिन मुख्यमंत्री ने कहा-शराब पियोगे तो मरोगे। कितनी संवेदनहीन, अमर्यादित, असंसदीय, अशोभनीय शब्दावली है यह बयान और नरसंहार पर विधानसभा में खूब हंगामा हुआ, तो मुख्यमंत्री भी आंखें घूर घूर कर कहते रहे अरे, क्या हुआ? अरे, तुम सब बर्बाद हो जाओगे। नीतीश कुमार का ऐसा अपशब्दीय और रौद्र रूप हमने कभी संसद में नहीं देखा। वह केंद्रीय कैबिनेट में भी रहे हैं। उनकी छवि शांत और संयमी राजनेता की रही है। हादसे और दुर्घटनाएं तो सार्वजनिक जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन राजनीतिक जीवन के उत्तरायण में ऐसी शब्दावली और ऐसा गुस्साए यह नीतीश कुमार कोई और हैं। बिहार में शराबबंदी 2016 से लागू है। लाखों ने यह कानून तोड़ा भी है, लिहाजा वे जेल की सलाखों के पीछे हैं। बिहार की अदालतों में जमानत के मामलों के ढेर लगे हैं। शराबबंदी के इन छह सालों में 1000 से अधिक लोग जहरीली शराब पीकर मर चुके हैं। यह कोई सामान्य आंकड़ा नहीं है। वे गरीब, पिछड़े, दलित आदिवासी रहे हैं, जो
जो महंगी, अंग्रेजी शराब का खर्च वहन नहीं कर सकते। शराबबंदी को एक चुनावी मुद्दे के तौर पर घोषित और लागू किया गया था, जिससे खुश होकर एक निश्चित महिला वोट बैंक नीतीश के पक्ष में स्थापित हो गया था। कमोबेश वह आज भी मौजूद होगा। शराबबंदी के बावजूद बिहार में नकली शराब, थैलियों में भर कर घर-घर पहुंचाने की व्यवस्था भी है। वर्दीधारी थानेदार और पुलिसियों के कथित संरक्षण में जहरीली शराब की भट्टियां चल रही हैं। क्या मुख्यमंत्री को जानकारी नहीं है ? जहर बेचने वालों को दंडित करने और उनके अड्डों को बन्द कराने का दायित्व किसका है ? जाहिर है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सुशासन का है, लेकिन मौतें लगातार हो रही हैं और नीतीश के पार्टी प्रवक्ता टीवी चैनलों पर बयान दे रहे हैं कि गैर-कानूनी काम करने के लिए सरकार मुआवजा नहीं देगी। इन सबके ऊपर मुख्यमंत्री को जहरीली संवेदनहीन टिप्पणी चुभती है-पियोगे, तो मरोगे। बिहार में शराबबंदी बिल्कुल नाकाम है या प्रशासन किसी और की छाया तले चल रहा है, लेकिन नीतीश की प्रतिष्ठा का सवाल है। यह उनकी कुंठा भी हो सकती है, क्योंकि वह शराबबंदी को सफल तरीके से लागू करने में अक्षम रहे हैं। शराबबंदी से 3000 करोड़ रुपए सालाना के राजस्व का नुकसान बिहार के खजाने को हो रहा है। इस पूरे अंतराल में, देश का सबसे गरीब और पिछड़ा राज्य करीब 30,000 करोड़ रुपए की चपत झेल चुका है। बेशक शराब पीना एक आदत है, व्यसन भी है। ऐसे व्यसन कुछ और भी हैं, लेकिन वे समाज में जारी हैं और जन-जागरण के प्रयास भी किए जाते रहे हैं। राज्य सरकारों के आबकारी विभाग खुलेआम शराब के लाइसेंस नीलाम करते हैं और शराब खुले बाजार, बार, होटलों आदि में उपलब्ध है। शराब राज्य सरकारों के राजस्व का सबसे अहम स्रोत है, लिहाजा इसे जीएसटी के दायरे में लाने पर सहमति नहीं बन पा रही है।
मान्यता प्राप्त और अधिकृत शराब पीने की त्रासदियां नगण्य हैं। शराबबंदी गुजरात, नागालैंड, लक्षद्वीप, मिजोरम आदि कुछ और राज्यों में भी है। हरियाणा में तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल ने शराबबंदी लागू की थी। चूंकि वह नाकाम रही, नतीजतन उसे वापस लेना पड़ा। जहरीली शराब से अधिक खतरनाक वह शब्दावली है, जो बिहार के मुख्यमंत्री ने बोली है और वह माफी मांगने को तैयार नहीं हैं। यह मुद्दा संसद में भी उछला। इस पर अब भाजपा आक्रामक है और मृतकों के परिजनों को पर्याप्त मुआवजा देने की लगातार मांग कर रही है। इस नरसंहार से सबसे ज्यादा महिलाएं प्रभावित हुई हैं। क्या वे नीतीश को समर्थन पर पुर्नविचार करेंगी ?