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Home राष्ट्रीय

नेताजी की शहादत और देश की आजादी

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
January 22, 2023
in राष्ट्रीय, विशेष
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Netaji Subhash Chandra Bose
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The petty politics of Gandhi vs Savarkarकौशल किशोर | twitter @mrkjha


शहादत को देहत्याग के बाद अमरत्व का प्रतीक माना जाता है। शहीद के अमरत्व की पुष्टि करने वाली आवाजें अक्सर उभर कर सामने आती हैं। आम लोगों के बीच कोई ऐसा प्रकट होता है, जो उसके शेष बचे होने का दावा करता है। बलिदान की परिभाषा में लोगों के दिलों और दिमाग पर हावी रहने की बात महत्वपूर्ण है। शहादत का उद्देश्य विफल नहीं हो, इसे सुनिश्चित करने की शर्त रहती है। ईसा मसीह और नेताजी जैसे दो उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है। तीसरी शहादत के विषय में अगले सप्ताह ध्यान केंद्रित करना चाहिए। आज नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती है। पराक्रम दिवस के रूप में अब इसे मनाते हैं। उनकी वीरता और साहस के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 जनवरी 2021 को अपील किया। नेताजी से जुड़ी फाइल के बाद कर्तव्य पथ पर लगी प्रतिमा और अंडमान में नवनिर्मित स्मारक। यह सूची लंबी होती जा रही है। ऐसा लगता है कि पुनरुत्थान की प्रक्रिया प्रगति पर हो।

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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शीर्ष योद्धा के लिए “नेताजी” विशेषण प्रयोग किया जाता है। उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व के लिए भी चुना गया था। उनकी पहचान आजाद हिन्द फौज के नायक के तौर पर है। अखण्ड भारत में प्रगतिशील राजनीति शुरु करने हेतु 1930 के दशक में उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक शुरु किया था। उनकी मौत और अफवाह फैलाने की बातें कम से कम पिछले आठ दशकों से जारी है। ऐसी बातें ताइवान के ताइपे में 1945 में हुई विमान दुर्घटना के पहले से ही चल रही है। नेताजी 1857 की क्रांति और 1947 के विभाजन सहित मिली आजादी के बीच शहादत देने वाले महानायकों की सूची में शीर्ष पर हैं। इसमें कड़ी मेहनत से कहीं ज्यादा प्रभाव उनकी शहादत का ही माना जाता है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद उनकी आत्मा लाल किले पर सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज के रूप में उतरती है। देश की स्मृति पटल पर नेताजी अचानक आजाद हिन्द फौज के जवान की तरह प्रकट हुए थे। जनता का आक्रोश भी मुकदमे के दौरान सड़कों पर दिखता है। उस दौर का प्रचालित नारा था : लाल क़िले से आई आवाज़, सहगल ढिल्लों शाहनवाज़, तीनों की हो उमर दराज। इस कहानी के अभाव में आजादी की लड़ाई का पूर्ण विराम अधूरा रहता है।

दूसरे विश्व युद्ध के अंत तक भारत छोड़ो आंदोलन की धार कुंद हो चुकी थी। इसके बाद अंग्रजों ने मलाया, सिंगापुर और बर्मा में गिरफ्तार होने वाले आजाद हिन्द फौज के जवानों का लाल किला में कोर्ट मार्शल शुरु किया। इसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। कांग्रेस ने कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरबक्स सिंह ढिल्लों और मेजर जनरल शाहनवाज खान की रक्षा के लिए वकालत का फैसला किया था। यह सुनवाई नवंबर 1945 से मई 1946 तक चलती रही। इसके पूरा होने से पहले ही कराची में वायु सेना का विद्रोह हुआ। शीघ्र ही यह आग श्रीलंका, म्यांमार व सिंगापुर तक पहुंच गया। इसके बाद मुंबई, कराची और कोलकाता में हुई नौसेना विद्रोह भी महत्वपूर्ण घटना है। यह श्रृंखला उनकी शहादत का परिणाम है। इसके कारण ही 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली थी।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट रिचर्ड एटली ने भारत को स्वतंत्रता प्रदान करने के निर्णय पर हस्ताक्षर किया था। करीब एक दशक बाद 1956 में एटली भारत का दौरा करते हैं। दो दिन तक कोलकाता के राजभवन में तत्कालीन राज्यपाल और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ भी बिताते हैं। उन दिनों जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती मुख्य न्यायाधीश और कार्यवाहक राज्यपाल के रूप में सेवारत थे। इस विषय में दोनों की चर्चा महत्त्वपूर्ण है। लाल किला ट्रायल की आजादी की लड़ाई में क्या भूमिका रही? इस प्रश्न का उत्तर जानने हेतु इस प्रसंग को समझना जरुरी है।

नेताजी की विवादास्पद मृत्यु पर 1946 में पहली बार जॉन फिगेस की रिपोर्ट आई थी और इसके एक दशक के बाद नेहरू द्वारा अफवाहों को शांत करने हेतु शाहनवाज खान की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय जांच समिति का गठन किया गया। एसएन मैत्रा और नेताजी के भाई सुरेश चंद्र बोस भी इसमें शामिल थे। समिति का निष्कर्ष 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू में विमान दुर्घटना में हुई मृत्यु को स्वीकार करता है। लेकिन उनके भाई इस निष्कर्ष पर सवाल उठाते हैं। फिर 1970 में जस्टिस जी.डी. खोसला की अध्यक्षता में न्यायिक आयोग बना। इस आयोग ने चार साल बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी। लेकिन फिर भी विवाद और अफवाहें बनी रहीं और 21वीं सदी में इस मुद्दे के समाधान के लिए न्यायमूर्ति मनोज कुमार मुखर्जी का आयोग अस्तित्व में आया था। इस रिपोर्ट में नेताजी के गुमनामी बाबा के रूप में होने की बात आती है।

मिशन नेताजी और अनुज धर इस मुद्दे पर एक अरसे से सक्रिय हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद उत्तर प्रदेश में सरकार न्यायमूर्ति विष्णु सहाय आयोग का गठन 2016 में करती है। लखनऊ, बस्ती, अयोध्या जैसे स्थानों पर गुमनामी बाबा के होने की पुष्टि होती है। बस्ती के जाने माने अधिवक्ता दुर्गा प्रसाद पांडे ने इमदाद हुसैन को उनकी सेवा के लिए लगाया था। बस्ती स्थित राजा की घोरसारी सत्तर के दशक में उनका पता था। अंत में गुमनामी बाबा का 18 सितंबर 1985 को राम भवन अयोध्या में निधन हुआ। इस रिपोर्ट में नेताजी और गुमनामी बाबा के बीच समानता की बात मिलती है। लेकिन इस दावे की पुष्टि इस रिपोर्ट से भी नहीं हो सकी। जांच आयोगों की पूरी श्रृंखला होने के बाद भी अनुत्तरित प्रश्नों की कमी नहीं है।

जाने माने अर्थशास्त्री, इतिहासकार और लेखक संजीव सान्याल हाल में अष्टाध्यायी लिखते हैं। इसका नाम है, रेवोल्यूशनरीज: द अदर स्टोरी ऑफ़ हाउ इंडिया वॉन इट्स फ़्रीडम। इसके विमोचन समारोह में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह विशेषज्ञों से स्वतंत्रता आंदोलन के कम से कम तीन सौ गुमनाम नायकों का पुनर्पाठ करने के लिए आह्वान करते हैं। इस अवसर पर उन्होंने दो संयोग का जिक्र किया। यह पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन की 57वीं वर्षगांठ का अवसर था। इसे 1965 के भारत-पाक युद्ध को याद करने का बहाना मान सकते हैं। आयोजन नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय में हुआ, जो अब प्रधानमंत्री संग्रहालय का हिस्सा है। उनके संबोधन का काव्यांश राष्ट्रवाद के शीर्ष कवि महर्षि अरविन्द को समर्पित है। नरमदल बनाम गरमदल को वफादारी बनाम राष्ट्रवादी के नजरिए से देखने पर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की दूसरी कहानी समझ से परे नहीं रहती है।

सान्याल कांग्रेस अध्यक्ष के लिए नेताजी के चुने जाने में क्रांतिकारियों की भूमिका को चिन्हित करते हैं। 1938-39 के चुनाव में अहिंसक धारा की कांग्रेस में क्रांतिकारियों की संख्या गौर करने लायक है। कांग्रेस की राजनीति में सरदार वल्लभ भाई पटेल एवं राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे अन्य दो नेताओं को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। भारत के इतिहास का आधिकारिक संस्करण उन्हें आवश्यक सम्मान से वंचित ही रखता है।

जीवन की यह यात्रा “सत्य की जीत होती है” से लेकर “देर से मिलने वाला न्याय भी अन्याय के समान है” तक पहुंच जाती है। नेताजी की 126वीं जयंती पर श्रद्धांजलि के क्रम में इन बातों को उधृत करना जरुरी है। जांच समिति और आयोग जरूरी प्रश्नों का उत्तर देने में भी सफल नहीं हो सके हैं। अजीब संयोग है कि दो दशक पहले उनके प्रकाश उत्सव पर नैनीताल उच्च न्यायालय में मेरे खिलाफ अवमानना की कार्यवाही आरंभ हुई। हैरत की बात है कि रुड़की स्थित निचली अदालत द्वारा हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करने की उन्हें सूचना देने का प्रयास किया था। इस बीच यह समझ में आता है कि छिपा दिए जाने के अलावा सच्चाई किसी से भी नहीं डरती है।

उनके परिवार के कुछ सदस्य प्रधानमंत्री के पराक्रम दिवस के विचार से खुश नहीं हैं। उन्होंने इसे देशप्रेम दिवस घोषित करने का सुझाव दिया था। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उनके सम्मान में राष्ट्रीय नायक दिवस का प्रस्ताव रखती हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में शहादत की मूर्ति का उल्लेख करने हेतु अन्य समूह इसे शहादत दिवस के रूप में मनाता है। चाहे ईशा हों अथवा नेताजी, बलिदान मृत्यु के बाद के लंबे जीवन की कहानी बयां कर देती है। भविष्य में लंबे समय तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रवादियों और देशभक्तों को प्रेरित करते रहेंगे।

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