अगर करोड़ों लोग मनरेगा को अपने लिए सहारा मानते हैं, तो सरकार को इसके मौजूदा स्वरूप की समीक्षा करने के बजाय अपनी आर्थिक नीतियों और उनके परिणामों पर पुनर्विचार करना चाहिए। किसी योजना की एक खास अवधि के बाद समीक्षा की जाए, यह उचित ही है। इसलिए महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) के अब तक के अनुभवों का आकलन केंद्र करे, तो उसमें समस्याग्रस्त बात नहीं होगी। लेकिन समस्या उस सोच में जरूर है, जो समीक्षा का कारण बताते हुए कही गई है।
केंद्र सरकार की तरफ से जो कहा गया है, उसका सार यह है कि मनरेगा बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे गरीब राज्यों में गरीबी खत्म करने का सहारा नहीं बना है, जबकि केरल जैसे अपेक्षाकृत समृद्ध राज्यों ने इसका बेहतर इस्तेमाल किया है। कहा गया है कि केरल जैसे राज्य इस योजना का उपयोग कर अपने यहां संपत्ति निर्मित कर रहे हैं, जबकि बिहार और उप्र में इसे प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया है। केंद्र के अधिकारियों ने कहा है कि ऐसा होने के बावजूद चूंकि कानून के मौजूदा स्वरूप के कारण केंद्र केरल जैसे राज्यों को आवंटित होने वाले धन में कटौती नहीं कर सकता, इसलिए अब इस पूरी योजना की समीक्षा की जरूरत है।
जाहिर है, इन बातों से संकेत मिलता है कि केंद्र आर्थिक और मानव विकास के पैमों पर बेहतर प्रदर्शन करने वाले (खास कर दक्षिणी) राज्यों को मनरेगा के तहत मिलने वाले धन से वंचित करना चाहती है। इसके पहले पिछले वित्त आयोग के गठन के समय भी ऐसा हुआ था, जब केंद्र ने धन आवंटन की कसौटी में परिवर्तन कर आबादी को आवंटन का आधार बना दिया था। स्पष्टत: इस सोच से जहां दक्षिणी राज्यों में अपने साथ भेदभाव होने का भाव पैदा होगा, वहीं यह सवाल उठेगा कि क्या बेहतर प्रदर्शन को दंडित किया जाना चाहिए? वैसे यह भी स्पष्ट करने की जरूरत है कि मनरेगा का उद्देश्य गरीबी हटाना है या इसे अत्यंत गरीब श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के उपाय के रूप में शुरू किया गया था?
आदर्श स्थिति यह है कि मनरेगा जैसे उपायों की जरूरत ही ना रहे। इसके बावजूद अगर देश में करोड़ों लोग इस योजना को अपने लिए सहारा मानते हैं, तो उचित यह होगा कि सरकार को इसके मौजूदा ढांचे की समीक्षा करने के बजाय अपनी आर्थिक नीतियों और उनके परिणामों पर पुनर्विचार करे। वरना, इस समीक्षा पर सवाल तो उठेंगे।
इनपुट RNS न्यूज़