नाव पर रखी एक पेट्रोमैक्स। पुल के नीचे बीच नदी में पहुंची नाव पर खड़ा मछुआरा शिकार की तलाश में। कैमरा पानी के अंदर आता है एक पत्थर के साथ साथ। पत्थर तलहटी से टकराता है और कैमरा इस पत्थर से हटकर दाहिने जाता है। एक हाथ दिखता है। शायद नेल पॉलिश भी लगी है। परदे पर फिल्म का नाम आता है, ‘गैसलाइट’। गांवों में जब बिजली नहीं थी और पारिवारिक व सामाजिक कार्यक्रमों में अधिक रोशनी की जरूरत पड़ती थी तो गैसलाइट किराए पर आती थीं। इस गैसलाइट में मिट्टी के जेटनुमा गोल उपकरण के चारों तरफ डोरी से बांधी जाने वाली फिल्टर सी कपड़े की पोटली होती जो दबाव के साथ आते केरोसीन को जलाकर झक सफेद रोशनी कर देती। ‘गैसलाइट’ का ये तो हुआ देसी मतलब। अंग्रेजी में ‘गैसलाइट’ के मायने हैं किसी को मनोवैज्ञानिक तरीके से इतना परेशान कर देना कि उसे अपनी ही तर्कशक्ति या मेधा पर अविश्वास होने लगे। फिल्म ‘गैसलाइट’ इसी बारीक लकीर पर रेंगती कहानी है।
राजकुमारी का रंग उतारने की कोशिश
गुजरात में मोरबी के पास बने किसी पुरानी किलेनुमा इमारत में घटती फिल्म ‘गैसलाइट’ की कहानी 15 साल बाद यहां लौटी इस कथित रियासत की कथित राजकुमारी की है। दुर्घटना में उसका कमर के नीचे का हिस्सा अशक्त हो चुका है। व्हीलचेयर पर लौटी इस राजकुमारी का स्वागत रुक्मिणी करती है। रुक्मिणी को लोग छोटी रानी कहते हैं। पुराने एक वीडियो में रुक्मिणी जब इस राजकुमारी को चूमती है तो रानी उसकी तरफ हिकारत भरी नजरों से देखती हैं। राजकुमारी भी उसे नाम लेकर ही बुलाती है।वह यहां आई है दाता की चिट्ठी पाकर। लेकिन, दाता तो यहां हैं नहीं। लोग कहते हैं वह बाहर गए हैं। रात के अंधेरे में राजकुमारी को अपने दाता नजर आते हैं। डॉक्टर कहता है ये उसका वहम है। वह छोटी रानी के बारे में पता करना चाहती है तो रियासत का रखवाला खुद को उनकी निजी जिंदगी से कोसों दूर बताता है।
कमाल तकनीशियनों ने बिछाए पत्ते
फिल्म ‘गैसलाइट’ साइको सस्पेंस थ्रिलर फिल्म होने के अपने पत्ते पहले 30 मिनट में ही खोलकर दिखा देती है। बस तुरुप का पत्ता आखिरी 15 मिनट में होने वाले खुलासे के लिए बचा रहता है। रागुल धारूमन ने शायद सिनेमाघर के घुप्प अंधेरे के हिसाब से फिल्म की सिनेमैटोग्राफी की है। दिन में इसे स्मार्ट टीवी पर देखना भी अपने आप में एक चुनौती है। फिल्म के एडीटर चंदन अरोड़ा ने फिल्म को अपनी रफ्तार से चलने दिया है। हां, अलग अलग दृश्यों को जोड़ने में उनका सानी नहीं है। वह पूरी कोशिश करते हैं कि कहानी का रहस्य इसके दृश्यों के जरिये आगे तैरता जाए। तारीफ का काम फिल्म में इसकी ध्वनियों के संयोजन (साउंड डिजाइन) करने वाले अनिर्बान सेनगुप्ता ने भी किया है। सन्नाटे को उन्होंने करीने से साधा है और संगीत को सांसों की तरह फिल्म के अंदर वहीं आने दिया है जहां इसे इसकी जरूरत है। लेकिन, फिल्म मात खाती है अपनी कहानी से।
‘भूत पुलिस’ वाले पवन की ‘गैसलाइट’
निर्देशक पवन कृपलानी की पिछली फिल्म ‘भूत पुलिस’ शायद अब लोगों को भी याद नहीं होगी। फिल्म ‘गैसलाइट’ भी साल, दो साल बाद शायद ही किसी को याद रह जाएगी। डिज्नी प्लस हॉटस्टार की बलिहारी है कि ये दोनों फिल्में टिप्स के खाते से निकलकर उनके यहां जमा हो सकीं। रमेश तौरानी और अक्षय पुरी की जोड़ी की बनाई इन दोनों फिल्मों का कॉमन कनेक्शन है पटौदी परिवार। सैफ अली खान फिल्म ‘भूत पुलिस’ के हीरो थे, यहां फिल्म ‘गैसलाइट’ में सारी अली खान हैं। यूं लगता है कि जैसे दोनों फिल्में पैकेज डील में बनी हैं। हिंदी सिनेमा के चंद बेहतरीन तकनीशियनों को इकट्ठा करने के बावजूद पवन कृपलानी वहीं आकर चूके हैं जहां वह पिछली फिल्म में चूके थे यानी कि कहानी और इसकी पटकथा। फिल्म ‘गैसलाइट’ की शुरुआत वह बहुत सजा कर करते हैं लेकिन जैसे जैसे फिल्म आगे सरकती है, इसका ताप ठंडा होने लगता है। दर्शक के हाथ कुछ नहीं आता और जब फिल्म के क्लाइमेक्स में सारा मामला खुलता है तो सब कुछ फटाफट यूं होता है जैसे कोई काम निपटाया जा रहा है।
सारा अली खान की ओटीटी पर हैट्रिक
फिल्म ‘गैसलाइट’ इसकी नायिका सारा अली खान की ‘कुली नंबर वन’ और ‘अंतरंगी रे’ के बाद तीसरी फिल्म है जो सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच सकी है। सीधे ओटीटी पर आने वाली फिल्मों की ये वजह भी अब दर्शकों को समझ आने लगी है। और, फिल्म ‘गैसलाइट’ के सिनेमाघरों तक न पहुंच पाने की सबसे बड़ी वजह हैं इसकी नायिका सारा अली खान। फिल्मी परिवार से होने के चलते फिल्में तो उन्हें लगातार मिल रही हैं, लेकिन बतौर अभिनेत्री उनका विकास उनकी पहली फिल्म ‘केदारनाथ’ के समयबंध में ही अटका है। एक रहस्यमयी फिल्म के लिए उन्होंने व्हीलचेयर पर बैठकर अपने दैहिक भाव प्रकटन से तो खुद को बचा लिया लेकिन उनके चेहरे पर भी दृश्यों के हिसाब से भाव बदलते नहीं हैं। उधर, विक्रांत मैसी का अपने किरदारों को लेकर एक तयशुदा खांचा बनता जा रहा है। वह न उससे बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हैं और न ही निर्माता, निर्देशक उससे अलग कुछ उनके करवा ही पा रहे हैं।
चित्रांगदा की चमक इकलौता आकर्षण
चित्रांगदा सिंह फिल्म ‘गैसलाइट’ का इकलौता ऐसा आकर्षण हैं जिसके सहारे ये फिल्म आखिर तक देखी जा सकती है। अपने रूप के रस माधुर्य से परदे पर कौतुक और काम दोनों का आकर्षण रचने वाली चित्रांगदा सिंह ने रुक्मिणी के किरदार में कमाल का अभिनय किया है। चित्रांगदा के अभिनय को जिस तरह से कभी निर्देशक सुधीर मिश्रा ने निखारा था, वैसे ही कुछ निर्देशक उन्हें और चाहिए। नकारात्मक किरदार उन पर खूब फबते हैं। फिल्म में अक्षय ओबेरॉय, राहुल देव और शिशिर शर्मा जैसे काबिल कलाकारों की मौजूदगी से शुरू में लगता है कि मजा आएगा, लेकिन इन कलाकारों के किरदार पटकथा में ढंग से सजाए नहीं गए हैं। चित्रांगदा के अभिनय के अलावा फिल्म ‘गैसलाइट’ की एक अच्छी बात ये भी है कि एक म्यूजिक कंपनी की फिल्म होते हुए भी इसमें ‘एन एक्शन हीरो’ की तरह जबर्दस्ती के गाने नहीं ठूंसे गए हैं।