प्रकाश मेहरा
मैं उस दिन अयोध्या में राम की पैड़ी पर सरयू का बहाव देख रहा था। इस सदानीरा ने इतिहास के तमाम अध्याय बनते बिगड़ते देखे हैं। इस वक्त जब यहां काल एक नई इबारत को अंतिम आकार दे रहा है, तो रामनगरी में बारात आने के पहले सा माहौल है।
योगी आदित्यनाथ की सरकार इस अवसर पर अयोध्या को सजाने-संवारने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। क्या हम हिंदुओं का वेटिकन उभरता हुआ देख रहे हैं? अनूठा वेटिकन, जहां आस्था का केंद्र तो होगा, पर कोई पोप नहीं। अलग-अलग रास्तों पर चलकर एक मुकाम तक पहुंचने की आजादी हिंदुत्व को अनूठा बनाती है।
आज मकर संक्रांति है, पर उस दिन उत्तरायण की ओर बढ़ता सूर्य विक्रमी संवत मानने वालों के लिए शुभ मुहूर्त लेकर आ रहा था। यह अकारण नहीं है कि यहां भगवान राम के बालस्वरूप की प्राण-प्रतिष्ठा का कार्यक्रम 22 जनवरी, 2024 की दोपहर रखा गया है। ज्योतिषियों के अनुसार यह इस कार्य के लिए सबसे उपयुक्त समय है।
राम मंदिर पर कब-क्या हुआ
यह लम्हा मुझे उन तूफानी दिनों की याद दिला रहा है, जब आस-पास का इलाका दूर-दूर से आए ‘राम भक्तों’ से पट जाता था। उन दिनों प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की हुकूमत थी और वह अपनी सांविधानिक शपथ के निर्वाह के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ थे। उधर विश्व हिंदू परिषद और उसके नियामक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विश्वास था कि आस्था, समय, संविधान और शासकीय नीतियों से परे है। वे संघर्ष के दिन थे। 1988 से 91 के बीच पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों से कारसेवकों की कई बार भिड़ंत हुई। 30 से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी और 100 से अधिक घायल हुए।
सिर्फ अयोध्या नहीं, दूर-दराज के शहरों में और राजमागों पर पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों से राम भक्तों की मुठभेड़ होती रहती थी। उनके हुंकारी नारों से सड़कें गूंजती रहती थीं- रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। रेल यात्रियों तक की कई बार जबरदस्त नारेबाजी से नींद खुलती थी- सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनाएंगे। कम से कम आधा दर्जन बार लाखों लोगों ने अयोध्या की ओर कूच किया। वे मंदिर की पुनर्स्थापना के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे।
आंदोलन की रूपरेखा तैयार
विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वसंसेवक संघ जहां आंदोलन की रूपरेखा तैयार करने के साथ संगठन को मजबूत करने में जुटे थे, वहीं संघ की सियासी भुजा भारतीय जनता पार्टी के मनसूबे साफ थे। वह देश पर हुकूमत करना चाहती थी। किसी राजनीतिक दल के लिए यह अस्वाभाविक नहीं, पर उसने जो रास्ता चुना, वह समाजवादी सपनों में गोते लगाने वाले भारत के लिए नया था।
एक सेक्युलर देश में सार्वजनिक तौर पर राजनेता तब तक अपने धार्मिक विश्वासों के बारे में सार्वजनिक तौर पर बोलने से हिचकते थे। आजादी के शुरुआती दिनों में सेक्युलरिज्म के प्रति सत्तानायकों की आस्था इतनी दृढ़ थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के लोकार्पण समारोह में जाने से इनकार कर दिया था।
पीएम मोदी 11 दिन अनुष्ठान करेंगे
तब से अब तक वक्त कितना बदल गया है! मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विभिन्न सत्तानायक अपनी दृढ़ धार्मिक आस्था को जगजाहिर करने से कतई नहीं हिचकते। गए गुरुवार को प्रधानमंत्री मोदी ने बाकायदा देश के नाम संदेश जारी कर 11 दिन के विशेष अनुष्ठान की घोषणा की। उन्होंने अपने संबोधन की शुरुआत ही ‘राम-राम’ से की। देश की अधिसंख्य जनता उनकी इस अदा पर रीझी जाती है।
यही वजह है कि विपक्षी दल राम मंदिर के लोकार्पण में जाने से तो परहेज रखते हैं, परंतु धार्मिक परंपराओं के फोटो जरूर मीडिया में जारी करते हैं। आपको याद होगा, एक चुनाव से पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए भी कहा गया था कि वह दत्तात्रेय ब्राह्मण हैं।
मौजूदा चलन की नींव कब रखी गई
मौजूदा चलन की नींव 1980 के दशक के उन्हीं आखिरी दिनों में रखी गई। उन दिनों सिर्फ संघ के पदाधिकारी ही नहीं, बल्कि लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता भी पत्रकारों से मिलकर अपने तर्क दृढ़ता से रखते थे। मुझे याद है, 1990 में आडवाणी आगरा आए थे। उन दिनों वहां कुल तीन स्थापित अखबार हुआ करते थे। तीनों के संपादकों के साथ सुबह के जलपान के दौरान उन्होंने लंबी चर्चा की थी। हम लोगों ने कुछ कठोर प्रश्न पूछे थे, पर वह अविचलित थे। नेहरू मार्का सेक्युलरिज्म पर उन्हें एतराज था। अब उसे तुष्टिकरण बताया जाता है।
हालांकि, उस समय तक कारसेवकों का एक बड़ा वर्ग आरोप लगाने लगा था कि भारतीय जनता पार्टी हमारे धार्मिक विश्वासों का प्रयोग कर सत्ता हासिल करना चाहती है और इसीलिए वह विवादास्पद ढांचे को लेकर गंभीर नहीं है। मुझे 5 दिसंबर, 1992 की वह रात साफ तौर पर याद है, जब खास तौर पर अयोध्या भेजे गए मेरे विशेष संवाददाता ने फोन पर मुझसे कहा कि आप तय मानिए कि कल ढांचा टूट जाएगा।
नेता अगर रोकने की कोशिश करेंगे, वे बुरी तरह कूटे जाएंगे। अगले दिन, यानी 6 दिसंबर को जो हुआ, वह जगजाहिर है। यह सच है कि कारसेवकों ने वहां मौजूद भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेतृत्व का आदर नहीं रखा था।
यह अकारण न था। कारसेवकों को अरसे से मंदिर की घुट्टी पिलाई जा रही थी। संघ के कार्यकर्ता गांव-गांव और ठांव-ठांव जाकर लोगों को प्रेरित करते थे। कभी सार्वजनिक पूजन, कभी आरती, तो कभी थाली बजाने के कार्यक्रम आयोजित किए जाते। इसका असर पड़ना ही था।
राम लला की प्राण प्रतिष्ठा
अगले हफ्ते जब रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा सुनिश्चित है, तब क्या हम यह मानें कि समय का चक्र पूरा हो गया है? पांच शताब्दी पहले साम्राज्यवादी बाबर की फौजों ने जो किया था, उसे लोकतांत्रिक भारत ने अंजाम पर पहुंचा दिया है? क्या 22 जनवरी, 2024 के दिन को भारतीय इतिहास अनूठे अंदाज में दर्ज करेगा ? कहीं ऐसा तो नहीं कि समय ने अपने गर्भ में अभी कुछ और आश्चर्य छिपा रखे हों ?
वक्त अपनी चालें चलता रहता है और इंसान जाने- अनजाने उसके मोहरे बनते रहते हैं। यह मैं इसलिए कह पा रहा हूं, क्योंकि 6 दिसंबर, 1992 के कोप और उत्तेजना को मैंने बहैसियत पत्रकार कलमबद्ध किया था। बस एक फर्क है। तब संघर्ष लंबा खिंचा था, अब विजयोत्सव को महीनों तक कायम रखने की कोशिशें की जाएंगी।
अयोध्या में लोगों का उफान
इस सबसे परे अयोध्या के लोग उफान की ओर बढ़ते उत्सवी माहौल में अपनी भूमिका तलाशने में व्यस्त हैं। यहां आने-जाने वाला हर शख्स शायद यही कर रहा है। एक अनुभव आपसे साझा करता हूं। वापसी में हमारी फ्लाइट संख्या 2129 ने लगभग 40 मिनट देर से दिल्ली के लिए उड़ान भरी। अयोध्या के महर्षि वाल्मीकि अंतरराष्ट्रीय विमानपत्तन से अभी जहाज के पहियों ने जुंबिश ही ली थी कि दूसरी पंक्ति के मध्य में बैठे एक सहयात्री ने हुंकार भरी, जय श्रीराम। विमान के अधिकतम यात्रियों ने उसका साथ दिया। अगला नारा था- पवनपुत्र हनुमान की जय। इस बार भी जोशीला दोहराव कानों से टकराया। सहयात्री देरी से झुंझलाने की जगह जोश में प्रतीत हो रहे थे।
आप चाहें, तो इसके राजनीतिक निहितार्थ ढूंढ़ सकते हैं, मगर इससे उस यूफोरिया पर फर्क नहीं पड़ेगा, जो हमारे चारों ओर पसरता जा रहा है।
हम यह मानें कि समय का चक्र पूरा हो गया है? पांच शताब्दी पहले साम्राज्यवादी बाबर की फौजों ने जो किया था, उसे लोकतांत्रिक भारत ने अंजाम पर पहुंचा दिया है? क्या 22 जनवरी, 2024 के दिन को भारतीय इतिहास अनूठे अंदाज में दर्ज करेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि समय ने अपने गर्भ में अभी कुछ और आश्चर्य छिपा रखे हों?- प्रकाश मेहरा