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उत्तराखंड में राजस्व पुलिस का राजनीतिक अर्थशास्त्र

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
September 28, 2022
in जुर्म, विशेष
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हिमालय की उन्नीस वर्षीया पुत्री के अंत से उत्तराखण्ड में कोहराम मचा है। ऋषिकेश और हरिद्वार के बीच स्थित गंगा भोगपुर तल्ला गांव के पटवारी को निलंबित किया गया है। कई दिनों तक राजस्व पुलिस की लीपापोती के कारण वनंतरा रिजॉर्ट के इस प्रकरण से पूरे इलाके में आक्रोश व्याप्त है। मुख्य मंत्री पुष्कर सिंह धामी इसका विशेष संज्ञान लेकर तत्काल एस.आई.टी. गठित करते हैं। रिसॉर्ट के मालिकान को सतारूढ़ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भट्ट पार्टी से निष्कासित कर मुक्त हुए। आर्य समाज की इस पर कोई प्रतिक्रिया पब्लिक डोमेन में नहीं है।
अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के नेता के इस्तीफा देने के दावे और गुस्साई भीड़ का पुलिस की गिरफ्त में अपराधियों को पीटने का मामला सुर्खियों में है। विधान सभा की अध्यक्ष ऋतु खंडूरी भूषण इस पर राजस्व पुलिस व्यवस्था समाप्त करने का आग्रह सरकार से करती हैं। इस पर पिछले चार सालों से हाई कोर्ट का आदेश सचिवालय में धूल फांक रहा है।
इस हत्याकांड में बुलडोजर की राजनीति का तड़का लगता है। अंकिता हत्याकांड से पहले हुई प्रियंका हत्याकांड पर भी सवाल उठता है। तीनों आरोपियों को फांसी देने की मांग तेज हो गई है। भीड़ सफेदपोश की संपत्ति में आग लगाने का श्रेय ले रही तो सूबे के मुखिया जनाक्रोश शांत करने के लिए रिजॉर्ट ध्वस्त करने का फरमान जारी करते हैं। भीमकाय मशीन ने रातोंरात रिजॉर्ट के उस हिस्से को ध्वस्त किया, जहां से पुलिस ने हत्याकांड से जुड़े साक्ष्यों को जमा किया था। हैरत की बात है कि जिला प्रशासन ने भी इस बात पर सवाल उठाया और एसडीएम से जांच करने के लिए कहा है। नतीजतन अगली सुबह ध्वस्तीकरण की प्रक्रिया पूरी होने से पहले थम गई। यह सब श्रेय लेने की होड़ का नतीजा ही माना जाएगा। उत्तराखंड पुलिस हत्यारों द्वारा दर्ज गुमशुदगी के इस मामले में जांच कर ही नहर से लाश बरामद करती है। हत्यारों को सजा दिलाने के लिए आवश्यक साक्ष्य जमा करने का दावा एसआईटी कर रही। यदि न्यायपालिका इस मामले में तत्परता का परिचय देगी तो त्वरित कार्रवाई का रिकॉर्ड कायम होगा। अच्छा होगा यदि यह हैदराबादी संस्करण के दोषों को दूर करे। तीन साल पहले जनाक्रोश के दवाब में ही तेलंगाना पुलिस ने त्वरित न्याय के नाम पर अभियुक्तों को मुठभेड़ में ठिकाने लगाया था। हत्यारे साबित हुए पुलिसकर्मियों की अपेक्षा इस मामले में उत्तराखण्ड पुलिस का सर्जिकल ऑपरेशन बेहतर है।
उत्तराखण्ड का नागरिक समाज ही नहीं, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोग भी हिमवान की पुत्री का शोक मना रहे हैं। देवभूमि में इस पाप को पनपने से रोकने की मुहिम कितनी प्रभावी होगी यह तो भविष्य की बात है। राजस्व पुलिस के अर्थशास्त्र पर चर्चा छिड़ गई है। उत्तराखण्ड का साठ फीसदी क्षेत्रफल और चालीस फीसदी जनसंख्या राजस्व पुलिस ही देखती है। लेखपाल, कानूनगो और पटवारियों का यह क्षेत्र 7500 गांवों में पसरा है। जमीन मापने और राजस्व रिकार्ड लिए घूमने वाले राजस्वकर्मियों से पुलिस का काम लेने का परिणाम सामने है। शातिर अपराधी इनको सुविधाजनक मान कर सक्रिय हो गए हैं। आज राज्य के 750 राजस्व क्षेत्र में 1216 पटवारी चौकियां सक्रिय हैं। कुमाऊं मंडल में यह व्यवस्था उन्नीसवीं सदी से चल रही, बीसवीं सदी में इसे गढ़वाल मंडल में भी लागू किया गया। हिमालय के शांत क्षेत्र में अपराध में कमी के कारण पुलिस की जरूरत भी पहले नहीं थी। आज की दशा ऋतु खंडूरी बता रही हैं कि गंगा भोगपुर में यदि सामान्य पुलिस बल काम करता होता तो निश्चित रूप से हिमालय पुत्री भी आज हमारे मध्य होती। आम जनता में सरकारी कार्यप्रणाली के प्रति इतना रोष व्याप्त नहीं होता।
नैनीताल उच्च न्यायालय ने राजस्व पुलिस की व्यवस्था बदलने के लिए छः महीने का समय 2018 में दिया था। प्रदेश सरकार तीन पूर्व नौकरशाहों की एक समिति इस मामले में गठित कर निश्चिंत ही हो गई है। मधुकर गुप्ता, इन्दु पांडे और अनिल रतूड़ी की समिति को राजस्व चौकियों पर पुलिस की वाजिब व्यवस्था हेतु जल्दी निर्णय लेने की जरूरत है। तिब्बत और नेपाल से लगते सीमा क्षेत्र की सुरक्षा का सवाल परिदृश्य से परे नहीं है। इस मामले में राजस्व व्यय की अपेक्षा राष्ट्रीय सुरक्षा का ख्याल रखना बेहद आवश्यक है। इकोटुरिज्म क्षेत्र की गतिविधियों पर नजर रखने वाले ऐसे संवेदनशील मामलों को इंगित कर रहे हैं, जो कश्मीर और पूर्वोत्तर की स्थिति याद दिलाती है। उत्तराखण्ड की गौरव गाथा कायम रहे, इसके लिए बेहतर रणनीति पर काम करने की जरूरत है।
राजस्व विभाग से पुलिस को सौंपे इस मामले में श्रेय लेने की होड़ में अपराधी सलाखों के पीछे पहुंचे हैं। उत्तराखण्ड की राजस्व पुलिस वाली राजनीति को लेकर मेरा अनुभव अच्छा नहीं है। उन्नीस साल पहले मार्च 2003 में गंगा और हिमालय की रक्षा में लगे स्वामी गोकुलानंद नैनीताल जिले के राजस्व क्षेत्र में एक सहयोगी के साथ मारे गए थे। पर्यावरण रक्षा से जुड़े अभियानों की आड़ में हेराफेरी में लगे अपराधियों के बारे में उनकी सक्रियता की सूचना मिली थी। स्थानीय पत्रकार मित्र को जब पटवारी की रफा दफा करने की योजना का पता चला तो मुझे सूचित किया और खबर भी छापी। अगले दिन शासन प्रशासन ही नहीं बल्कि उनके समर्थक भी व्यथित हुए। वहां जा कर मैंने एफआईआर दर्ज करवाया। दिल्ली में 2001 में उन्होंने उत्तराखंड के पहले मुख्य मंत्री नित्यानंद स्वामी की बर्खास्तगी हेतु जब सत्याग्रह किया तो सहयोग करने वालों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी भी शामिल थे। इस खबर से राज्य भर में हलचल मची हुई थी। हालांकि उन दिनों आज की तरह मोबाइल व सोशल मीडिया का प्रभाव नहीं था। परंतु सरकारी तंत्र की सक्रियता कम नहीं थी। इसके बावजूद भी हत्यारों का आज तक पता नहीं चला। इस मामले में पुलिस ने दोहरे अकाल मृत्यु के रहस्य को उजागर किए बगैर ही फाइनल रिपोर्ट लगा दिया था। कर्तव्य निर्वाह की इसी रीति को तोड़ने की जरूरत है। ऐसा नहीं करने से अगले 19 सालों में भी यह संकट दूर नहीं होगा।
एक लिहाज से हिमवान पुत्री के हत्याकांड में पुलिस का प्रदर्शन बेहतर है। अपने ही पार्टी के रसूखदार नेता के विरुद्ध सरकार के प्रदर्शन पर निगाहें टिकी हैं। श्रेय लेने की होड़ में यदि गोकुलानंद के हत्यारों का पता करे तभी सरकार की बहादुरी साबित होगी। हैरत की बात रही कि वज्रपात की थ्योरी को खारिज करने के बावजूद पुलिस ने हत्यारों को बचाने और रसूखदार लोगों के अपराध को छिपाने का काम किया था। अशोक कुमार की पुलिस तो सफेदपोश अपराधी की सेवा में महिलाकर्मी को पेश करने का सबूत जुटाकर अपराधी को जेल भेज देती है। सफेदपोशों की इस शैतानी सभ्यता से उत्तराखण्ड को बचाना होगा। इस क्रम में स्थानीय संस्कृतियों का ध्यान रखना भी आवश्यक है।
अपने देश के ग्रामीण इलाकों में पुलिस चौकी और थानों का विरोध पहले से ही होता रहा है। अंग्रेजों की यह व्यवस्था अपराधों की शैतानी सभ्यता जेब में लिए फिरती है। थाना पुलिस के साथ अपराधियों के रिश्तों की कहानी गुजरे जमाने की बात नहीं है। इनका ख्याल कर यदि मधुकर गुप्ता की अध्यक्षता वाली समिति आज राजस्व पुलिस की व्यवस्था बदलने से सहमत नहीं हुई तो यह असहमति शातिर अपराधियों को घृणित अपराधों के लिए सुरक्षित क्षेत्र मुहैया कराती रहेगी। अच्छा होगा यदि राजस्व पुलिस चौकियों को शीघ्र ही निकटम थानों को सौंप दिया जाय। इसके लिए हजारों की संख्या में पुलिस बल की तैनाती में होने वाले खर्चे हेतु बजट में भी प्रावधान करना होगा। सूबे की संस्कृतियों पर इस शैतानी सभ्यता का प्रकोप नहीं हो, इसके लिए स्थानीय लोगों की समावेशी भूमिका सुनिश्चित करना जरूरी है। उत्तराखण्ड को इन सभी तथ्यों का ख्याल कर बेहतर मॉडल पेश करना चाहिए।

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