प्रकाश मेहरा
उत्तरकाशी: यह एक आम, किंतु बहुत कारगर कथन है कि सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। उत्तराखंड में चारधाम सड़क परियोजना के तहत बन रही सिलक्यारा सुरंग के मामले में भी ऐसा ही हुआ। निर्माणाधीन सुरंग में अचानक आए मलबे ने तमाम सुरंगों की सुरक्षा को लेकर अनेक सवाल खड़े कर दिए हैं। मैदानी इलाकों में ही नहीं, उच्च हिमालयी क्षेत्र में भी सड़क, रेल और जलविद्युत परियोजनाओं तक के लिए सुरंगों का जाल बिछाया जा रहा है, क्योंकि सुरंगों को बहुत अच्छा विकल्प माना जाता है। क्या सुरंगें वाकई बेहतर विकल्प हैं? कैसे हो रहा है उनका निर्माण ? अभी क्या सोच रहे हैं देश के नामी सुरंग विशेषज्ञ ? पेश है प्रकाश मेहरा की खास रिपोर्ट …
कोंकण रेलवे और दिल्ली मेट्रो की कई जटिल पर काम कर चुके उत्तराखंड मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के डायरेक्टर प्रोजेक्ट एंड प्लानिंग बृजेश कुमार मिश्रा के अनुसार, सुरंग परियोजना में सबसे अहम होता है, जियो टेक्निकल इंवेस्टिगेशन। इसी से तय होता है कि सुरंग खुदाई के बाद कितनी देर तक टिक पाएगी। साथ ही, इसे किस तरह के ट्रीटमेंट की जरूरत है, पर दुर्गम पहाड़ में कई बार जांच उपकरण अधिक ऊंचाई तक ले जाना मुश्किल हो जाता है। इस कारण जल्द काम निपटाने के दबाव में सुरंग के मुहाने पर किए गए अध्ययन के आधार पर ही काम शुरू कर दिया जाता है, जो बाद में बहुत भारी पड़ता है। उत्तराखंड के सिलक्यारा सुरंग हादसे में शायद ऐसा ही हुआ।
मिश्रा अपना अनुभव बताते हैं कि कोंकण रेलवे में उनकी देखरेख में बन रही एक सुरंग में भी इस तरह का मलबा आ गया था, लेकिन उन्होंने समय से पहले इस हादसे का अनुमान लगाकर सभी मजदूरों को वहां से बाहर निकाल लिया। वह बताते हैं कि सुरंग के अंदर यदि मिट्टी या पानी का रिसाव अचानक तेज हो जाए, तो यह खतरे की घंटी है। सुरंग निर्माण में अनुभव सबसे ज्यादा कीमती होता है। एक दिक्कत यह भी है कि दुर्गम स्थानों पर चलने वाली ऐसी परियोजनाओं में अनुभवी इंजीनियर नहीं मिल पाते हैं। दक्ष और अनुभवी इंजीनियर हमेशा सुगम और सुविधाजनक लोकेशन तलाशते हैं। इसी तरह निर्माणकर्ता एजेंसी का ट्रैक रिकॉर्ड भी अहम हो जाता है। इन चुनौतियों का कोई भी बाईपास समाधान रिस्क बढ़ा देता है। छोटी चुनौतियों का भी हल करते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए।
ऑक्सीजन टनलिंग मैथड
कर्णप्रयाग रेलवे लाइन पर काम कर रहे रेल विकास निगम लिमिटेड के मुख्य परियोजना प्रबंधक अजीत कुमार यादव के अनुसार, सुरंग निर्माण का अंतरराष्ट्रीय मानक काटी जा रही चट्टान की सतत निगरानी करना ही है। यादव के मुताबिक इसी के अनुसार, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ऑक्सीजन टनलिंग मैथड के अनुसार देखा जाता है कि खुदाई के बाद चट्टान किस तरह का व्यवहार कर रही है। इस दौरान अलग-अलग चट्टान का अलग- अलग व्यवहार रहता है, एक सीमा में मिट्टी या पत्थर का गिरना स्ट्रैश मैनेजमेंट के लिए जरूरी भी है। यादव के मुताबिक, अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार, तीन किलोमीटर से लंबी टनल पर एस्केप पैसेज होना जरूरी है। यह भी प्रत्येक 375 मीटर पर मुख्य टनल से कनेक्ट होनी चाहिए, ताकि किसी भी तरह की आपात स्थित में अंदर फंसे लोगों को सुरक्षित बाहर आने का रास्ता मिल सके। यदि मानकों का सावधानीपूर्वक पालन किया जाए, तो सुरंग के निर्माण और उसके बाद संचालन में किसी तरह का खतरा नहीं रहता है।
उत्तराखंड मेट्रो रेल कारपोरेशन के डायरेक्टर प्रोजेक्ट एंड प्लानिंग बृजेश कुमार मिश्रा भी सुरक्षा प्रबंधन पर बेहद जोर देते हैं। मिश्रा बताते हैं कि सुरंग निर्माण के टेंडर या ठेके में सुरक्षा प्रबंधों का पूरा विवरण होता है। टेंडर लेने वाली कंपनी इससे बंधी होती है, इसे लागू कराने की जिम्मेदारी सेफ्टी ऑडिट की होती है, जो नियमित अंतराल पर होता है। ज्यादातर जगह पर सेफ्टी ऑडिट की टीम स्वतंत्र होकर काम करती है। बिना ऑडिट क्लीयरेंस मिले न काम आगे नहीं बढ़ता है। हादसों के लिए इस तय प्रक्रिया का पालन नहीं होना अहम कारण है। इसके लिए ऐसी निर्माण परियोजनाओं का नेतृत्व कर रहे अधिकारियों में दृढ़ता जरूरी है।
बढ़ रहा सुरंग का उपयोग
सुरंग विशेषज्ञ और कोंकण रेलवे के पूर्व एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर प्रोजेक्ट विनोद कुमार के मुताबिक, अब हाइड्रो टनल, रेल मेट्रो टनल, रोड टनल के अलावा भूमिगत बिजली घर, पेट्रोलियम पदार्थों- -रक्षा संसाधनों के भंडारण, परमाणु युद्ध से बचाव, सीवेज प्रबंधन और यहां तक की पार्किंग के लिए भी सुरंग का उपयोग हो रहा है। जमीन की कमी के कारण यह चलन अभी और बढ़ेगा, लेकिन सुरंग का उपयोग चाहे किसी भी परियोजना के लिए हो, खुदाई और इसके बाद सपोर्टिंग सिस्टम के सिद्धांत हर तरह की सुरंगों में एक जैसे ही होते हैं। सुरंगों का निर्माण ही पहाड़ जैसी बाधा को भेदने के के लिए किया जाता है, लेकिन भारत जैसे देश में पर्वतों की बनावट में भी व्यापक विविधता देखने को मिलती है। उत्तर में हिमालय, मध्य में विंध्याचल, दक्षिणी में पठार और नीलगिरी ती के पहाड़ एक दूसरे से खासे भिन्न है, पर सबसे चुनौतीपूर्ण हिमालय की पहाड़ियां हैं। विनोद कुमार के मुताबिक, देश में सुरंग निर्माण के कार्य ज्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों की निगरानी में स्वतंत्र रूप से किए जा रहे हैं, लेकिन कई बार निर्माण में लगे निजी संस्थान, पेशेवर तरीके न अपनाकर शार्टकट अपनाते हैं, जिस कारण यह संकट खड़ा हो जाता है।
सर्वाधिक सुरक्षित विकल्प सुरंग निर्माण
जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रॉक मैकेनिक्स के पूर्व निदेशक डॉक्टर पीसी नवानी कहते हैं कि सुरंग के मामले में यह बहुत बड़ा भ्रम है कि इससे पहाड़ कमजोर होंगे या भूकंप की स्थिति में टनल ढह जाएगी, जबकि पहाड़ में ऊपर चौड़ी सड़कों के मुकाबले सुरंगें सर्वाधिक सुरक्षित विकल्प हैं। वह बताते हैं कि भूकंप का भी सुरंग घर कोई असर नहीं होता है। एक बार निर्माण के बाद टनल की औसत आयु 100 साल होती है, यह अन्य विकल्पों के मुकाबले ज्यादा टिकाऊ भी है। डॉक्टर नवानी के मुताबिक, कमजोर जगह पर वैज्ञानिक एक हद तक कनवर्जन होने देते हैं। कई बार सुरंग के अंदर बड़ी मात्रा में भूस्खलन भी होता है। सिलक्यारा हादसे से नाकारात्मक नजरिया बनाने की जरूरत नहीं है, बल्कि तय सुरक्षा प्रोटोकॉल को और सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है।
तकनीकी ऑडिट जरूरी
सुरंग निर्माण विशेषज्ञ विनोद कुमार के मुताबिक, बढ़ती सुरंग परियोनाओं को देखते हुए देश में एक ऐसे संस्थान की जरूरत है, जो बिना भ्रष्टाचार में लिप्त हुए निर्माणाधीन परियोजनाओं का हर वर्ष तकनीकी ऑडिट करे, जैसा कि सरकारी संस्थानों में वित्तीय आडिट होता है। विनोद कुमार कहते हैं कि किसी भी सुरंग के धंसने या उत्तरकाशी जैसी स्थिति पैदा होने पर मलबा बाहर निकालने से संकट और बढ़ जाता है, जबकि इस तरह के हालात में बचाव एजेंसियां हड़बड़ाहट में यही आसान रास्ता अपनाती हैं। इस बारे में सरकार को दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए। उनके मुताबिक, निर्माणाधीन सुरंग के बीच में मलबा गिरने की वजह जो भी रही हो, यह जांच का विषय है, पर फंसे हुए कर्मचारियों के लिए इस मलबे को निकालना ही, इस बचाव कार्य के लिए बाघा बन गया। विनोद कुमार जोर देकर कहते हैं कि सुरंग निर्माण की सभी अत्याधुनिक तकनीकी भारत में मौजूद हैं। भारत के पास इसकी पर्याप्त विशेषज्ञता है। अन्य विकसित देशों के मुकाबले इस समय भारत में ही अधिक सुरंगों का निर्माण हो रहा है। साथ ही सुरक्षा के सभी अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन किया जाता है।
अपनी चूक के लिए भूगोल को दोष मत दीजिए
डॉक्टर नवानी के मुताबिक, टनल के कुल डायमीटर के ऊपर तीन गुना तक का हिस्सा ही संवेदनशील होता है। यदि कोई टनल 10 मीटर व्यास की है, तो उसके ऊपर 30 मीटर तक की पहाड़ी संरचना संवेदनशील होती है। जियोलॉजिकल इंजीनियर इस हिस्से को चिन्हित करते हुए जरूरत के अनुसार समाधान या सुधार करते हैं। इसके बाद कोई खतरा नहीं रहता है। विशेषज्ञ हर हिस्से की जीनिंग करते हुए, आगे बढ़ते हैं। जोंनिग के अनुसार अलग-अलग ट्रीटमेंट होता है। इसी प्रक्रिया के तहत प बनी हैं, जो पूरी तरह सुरक्षित हैं, लेकिन पहाड़ में बड़ी-बड़ी सुरंगें र जब भी इस प्रक्रिया की अनदेखी होती है, तो कोई ना कोई हादसा होता है. इसके अलावा टनल में भूस्खलन का और कोई कारण नहीं है। इसलिए इस चूक के लिए, भूगोल को दोष देना ठीक नहीं है।
अनुभवी विशेषज्ञ होने चाहिए
केंद्रीय खनन एवं ईंधन अनुसंधान रुड़को केंद्र के प्रमुख डॉक्टर जगदीश मोहनोत भी जोर देकर कहते हैं कि भारत में टनल दुर्घटना में नुकसान की दर यूरोपीय देशों के मुकाबले काफी कम है। डॉक्टर मोहनोत के अनुसार, सुरंग काम में खुदाई करते हुए कितने समय में क्या करना है, सबकुछ पहले से तय होता है। खुदाई के अधिकतम छह माह के भीतर फाइनल लाइनिग जरूरी है, लेकिन कई बार निर्माण एजेंसी ज्यादा काम दिखाने के दबाव में बिना फाइनल लाइपिंग किए आगे बढ़ती जाती है। इसलिए इस तरह के काम में निर्माण कार्यों को सबलेट किया जाना रोका जाना चाहिए। मतलब, जिम्मेदारी को टालना सही नहीं है, जिस विशेषज्ञ कंपनी को काम दिया जाए, सिर्फ वही परियोजना को पूरी करे। साथ ही, हर मोड़ पर अनुभवी विशेषज्ञों द्वारा देखरेख जरूरी है। देश में बढ़ते सुरंग प्रोजेक्ट को देखते हुए अब हमें डायरेक्टर जनरल ऑफ टनल सेफ्टी बना लेना चाहिए, जो सुरक्षा प्रावधानों का सख्ती से पालन करवाए।
बेशक,अब सिलक्यारा सुरंग हादसा हमेशा के लिए एक सबक बन गया है। रोशनी के पर्व दिवाली की सुबह हो इस सुरंग में फंसे 41 श्रमिक जिंदगी के सबसे घने अंधेरे से जूझने को मजबूर हुए। श्रमिकों के परिजन साथ ही पूरे देश को तनाव से गुजरना पड़ा। तमाम तरह के विशेषज्ञों को बचाव अभियान जोड़ा गया। विदेश से मदद ली गई। कुछ मशीनों को भी बाहर से मंगाया गया। हाथ से सुरंग खोदने वाले भी काम आए। विशेषज्ञों मानें, तो से कहीं अब भारत में सुरंग निर्माण पहले ज्यादा चाक-चौबंद हो जाएगा।
अपने देश में जगह-जगह बढ़ती सुरंग परियोनाओं को देखते हुए एक ऐसे संस्थान की जरूरत है, जो बिना भ्रष्टाचार में लिप्त हुए निर्माणाधीन परियोजनाओं का हर वर्ष तकनीकी ऑडिट करे, जैसा कि सरकारी संस्थानों में वित्तीय ऑडिट होता है। तब हम हादसों को रोक पाएंगे।
-विनोद कुमार, सुरंग निर्माण विशेषज्ञ