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Home राष्ट्रीय

पहले कब हुआ वन नेशन वन इलेक्शन, क्या फायदा और क्या नुकसान?

पहल टाइम्स डेस्क by पहल टाइम्स डेस्क
September 2, 2023
in राष्ट्रीय, विशेष
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नई दिल्ली : देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो सकते हैं या नहीं, यह पता लगाने के लिए केंद्र ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया है. समिति भारत की चुनावी प्रक्रिया का अध्ययन करेगी. केंद्र सरकार ने आने वाले 18 से 22 सितंबर तक के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया है. विशेष सत्र को बुलाए जाने के केंद्र के फैसले के बाद वन नेशन वन इलेक्शन के लिए समिति बनाए जाने की सूचना सामने आई है.

वन नेशन वन इलेक्शन के बारे में करीब 40 वर्षों पहले (1983 में) पहली बार चुनाव आयोग ने सुझाव दिया था. अब 2023 में सरकार ने इस कदम की संभावनाएं और व्यहार्यता तलाशने के लिए एक कमेटी बनाई है.

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वन नेशन वन इलेक्शन पर समिति का गठन ऐसे समय किया गया है जब पांच राज्य आगामी नवंबर-दिसंबर में विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रहे हैं, जो कि अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले होंगे. अगले साल अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव होने की उम्मीद है. हाल के कदमों से संकेत मिलता है कि सरकार इनमें से कुछ चुनावों को लोकसभा चुनाव के साथ कराने पर विचार कर सकती है.

एक साथ चुनाव कराने से क्या होगा फायदा?

उम्मीद जताई जा रही है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने से जनता का पैसा बचेगा, प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर बोझ कम पड़ेगा, सरकारी नीतियों का समय पर कार्यान्वयन हो सकेगा और प्रशासनिक मशीनरी चुनावी कार्यक्रम के बजाय विकास कार्यों में ज्यादा समय दे पाएगी.

वन नेशन वन इलेक्शन पर PM मोदी का रुख

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने के प्रबल समर्थक माने जाते हैं. 2019 में पीएम मोदी ने लाल किले से अपने भाषण में कहा कि एक साथ चुनाव कराने को लेकर देशभर में बहस चल रही है. यह चर्चा लोकतांत्रिक तरीके से की जानी चाहिए. ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के अपने सपने को साकार करने के लिए हमें ऐसे अनेक नए विचार जोड़ने होंगे.

क्या पहले कभी वन नेशन वन इलेक्शन हुआ है?

1951 से 1967 के बीच लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे. 1951-52 में आम चुनाव और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे. इसके बाद 1957, 1962  और 1967 में लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे.

1959 में सीपीआई नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था और राष्ट्रपति शासन लगाया गया था. 1960 में केरल में विशेष राज्य चुनाव हुआ था, जिसके चलते 1962 में राज्य सरकार भंग नहीं हुई थी, जब आम चुनाव हुए थे. 1964 में केरल में दोबारा राष्ट्रपति शासन लगाया गया था. फिर 1965 में चुनाव हुए थे लेकिन राष्ट्रपति शासन जारी रहा और 1967 तक चला, जिसके चलते केरल विधानसभा का चुनाव एक बार फिर आम चुनाव के साथ हुआ.

एक साथ चुनाव की अड़चनें

1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने की वजह से पहली बार एक साथ चुनाव होने का चक्र बाधित हुआ था. वहीं, चौथी लोकसभा भी समय से पहले भंग कर दी गई थी, जिसकी वजह से 1971 में नए चुनाव हुए. बता दें कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं को सामान्य कार्यकाल से पहले भी भंग किया जा सकता है.

2019 के लोकसभा चुनाव के बाद अब तक कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो चुके हैं. अप्रैल-मई 2019 से शुरू होकर अब तक कई राज्यों के चुनाव हुए. वर्तमान में हर साल करीब 5-7 राज्यों के विधानसभा चुनाव होते हैं. बार-बार चुनाव होने की वजह से सार्वजनिक जीवन बाधित होता है.

2015 में कार्मिक, सार्वजनिक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति ने कहा था कि बार-बार चुनाव होने से सामान्य सार्वजनिक जीवन में व्यवधान होता है और जरूरी सेवाओं के कामकाज पर असर पड़ता है. राजनीतिक रैलियां करने से सड़क यातायात बाधित होता है और ध्वनि प्रदूषण भी होता है.

मौजूदी चुनावी चक्र में शामिल प्रमुख प्रतिकूल प्रभाव चुनाव आयोग की ओर से आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण विकास कार्यों और शासन पर असर डालते हैं. बार-बार चुनाव होने के कारण सरकार और अन्य हितधारकों को बड़े पैमाने पर खर्च करना पड़ता है. काफी लंबे समय तक सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ती है.

आलोचकों की नजर में वन नेशन वन इलेक्शन

आलोचकों की राय में एक साथ चुनाव कराने का विचार राजनीति से प्रेरित है. एक साथ चुनाव कराने से मतदाताओं का व्यवहार इस रूप में प्रभावित हो सकता है कि वे राज्य के चुनाव के लिए भी राष्ट्रीय मुद्दों पर मतदान करने लगेंगे. इससे संभावना है कि बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में जीत हासिल करें. इससे क्षेत्रीय पार्टियों के हाशिए पर चले जाने की आशंका है जो अक्सर स्थानीय हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं.

कुछ आलोचकों का मानना है कि प्रत्येक 5 साल में एक से ज्यादा बार मतदाताओं का सामना करने से नेताओं की जवाबदेही बढ़ती है और वे सतर्क रहते हैं. कुछ राजनीतिक दलों और 2015 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति ने एक बार में कराए जाने वाले चुनाव का समर्थन किया था.

एआईएडीएमके ने गहन विचार-विमर्श के साथ वन नेशन वन इलेक्शन का समर्थन किया था. असम गण परिषद का कहना था कि इससे छोटी पार्टियों पर वित्तीय बोझ कम होगा. आईयूएमएल के मुताबिक ऐसा करने से समय की बचत होगी. डीएमडीके ने लोकसभा और विधानसभाओं के निश्चित कार्यकाल वाले विचार का समर्थन किया. वहीं, शिरोमणि अकाली दल ने इस विचार का समर्थन किया लेकिन कहा कि त्रिशंकु विधानसभा होने पर स्पष्टता की जरूरत है.

एक साथ चुनाव के विरोध में ये पार्टियां

कुछ पार्टियों ने एक साथ चुनाव कराए जाने के विचार को खारिज किया. एआईएमआईएम ने एक साथ चुनाव कराए जाने का विरोध किया. तृणमूल कांग्रेस ने इस विचार को खारिज करते हुए कहा कि चुनाव स्थगित करना अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है. सीपीआई ने इस विचार को अव्यावहारिक बताकर खारिज किया. कांग्रेस ने भी इसे अव्यवहार्य बताकर खारिज किया. एनसीपी का भी कुछ ऐसा ही मत रहा.

लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल के संबंध में संवैधानिक प्रावधान क्या कहते हैं?

संविधान का अनुच्छेद 83 संसद के दोनों सदनों के कार्यकाल का प्रावधान करता है. अनुच्छेद 83(2) लोकसभा के लिए इसकी पहली बैठक की तारीख से पांच साल के कार्यकाल का प्रावधान करता है, जब तक कि इसे पहले भंग न किया जाए. अनुच्छेद 172 (1) राज्य विधानसभा के लिए उसकी पहली बैठक की तारीख से पांच साल के कार्यकाल का प्रावधान करता है.

क्या लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है? इसका जवाब है कि आपातकालीन स्थिति को छोड़कर किसी भी कीमत पर सदन का कार्यकाल बढ़ाया नहीं जा सकता है लेकिन इसे इसके कार्यकाल की समाप्ति से पहले भंग किया जा सकता है.

पहली बार चुनाव आयोग ने 1983 में दिया था सुझाव

एक साथ चुनाव पर चुनाव आयोग ने पहली बार 1983 में सुझाव दिया था. उस वर्ष प्रकाशित भारत के चुनाव आयोग की पहली वार्षिक रिपोर्ट में इसका विचार आया था. विधि आयोग की ओर से 1999 में इसका विचार आया था. 1999 में न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में भारतीय विधि आयोग ने चुनावी कानूनों के सुधार पर अपनी 170वीं रिपोर्ट पेश की थी. इसने चुनाव सुधारों के एक भाग के रूप में एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी.

2015 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 79वीं रिपोर्ट में दीर्घकालिक (लंबे समय तक) सुशासन के लिए एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया था और इसकी व्यवहार्यता की भी जांच की. 2017 में नीति आयोग ने भी एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर एक रिपोर्ट तैयार की थी. 30 अगस्त, 2018 को जस्टिस बीएस चौहान की अध्यक्षता में भारत के विधि आयोग ने एक साथ चुनाव पर अपनी मसौदा रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने से संबंधित कानूनी और संवैधानिक सवालों की जांच की गई.

मतदाताओं के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है एक साथ चुनाव

एक साथ चुनाव मतदाताओं के व्यवहार को कैसे प्रभावित कर सकता है, इस पर आईडीएफसी इंस्टीट्यूट के एक विश्लेषण से पता चलता है कि औसतन 77 फीसदी संभावना है कि जब चुनाव एक साथ होंगे तो मतदाता लोकसभा और विधानसभा दोनों के लिए एक ही पार्टी को वोट देंगे. दूसरी ओर बार-बार चुनाव चक्र जवाबदेही का एक उपाय प्रदान करते हैं क्योंकि विभिन्न स्थानीय और राज्य-स्तरीय मुद्दे समय-समय पर चुनावों को प्रभावित करते हैं.

एक साथ चुनाव कराने पर किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा?

विधानसभाओं और लोकसभा की शर्तों को पहली बार कैसे सिंक्रनाइज (समकालिक) किया जाएगा? क्या इसके लिए कुछ राज्य विधानसभाओं की मौजूदा शर्तों को बढ़ाना या कम करना संभव होगा? अगर चुनाव एक साथ होते हैं  तो उस स्थिति में क्या होगा जब सत्तारूढ़ दल या गठबंधन कार्यकाल के बीच लोकसभा या राज्य विधानसभाओं में बहुमत खो देता है? क्या लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल तय होना चाहिए?

क्या चुनाव आयोग के लिए लॉजिस्टिक्स, सिक्योरिटी और मैनपावर संसाधन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए इतने बड़े पैमाने पर चुनाव कराना व्यावहारिक रूप से संभव है? ऐसा सुझाव सामने आया कि देश में एक साथ चुनाव लागू करने के लिए राज्य विधानसभाओं की शर्तों को सिंक्रनाइज (समकालिक) किया जाए.

इसे कैसे सिंक्रनाइज किया जा सकता है?

संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 के प्रावधानों में संशोधन के बिना लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ नहीं कराए जा सकते हैं. एक साथ चुनाव कराने के लिए संघ और राज्य विधानसभाओं के लिए निश्चित कार्यकाल होना जरूरी है.

चुनाव कराने का अनुमानित खर्च

लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग-अलग कराने का अनुमानित खर्च 10,000 करोड़ रुपये बैठता है. 2018 के आसपास का अनुमान कहता है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव कराने की अनुमानित लागत 4500 करोड़ रुपये है.

कौन उठाता है चुनाव खर्च?

लोकसभा चुनाव के वास्तविक आयोजन पर होने वाला पूरा खर्च भारत सरकार की ओर से वहन किया जाता है. राज्य विधानमंडलों के चुनावों का संचालन संबंधित राज्य सरकारों की ओर से किया जाता है. अगर लोकसभा और राज्य विधानसभा के लिए एक साथ चुनाव होता है तो खर्च भारत सरकार और संबंधित राज्य सरकारों के बीच साझा किया जाता है. वहीं, भले ही चुनाव लोकसभा का हो, कानून और व्यवस्था बनाए रखने का खर्च संबंधित राज्य सरकारों की ओर से उठाया जाता है.

सुरक्षा और पुलिस बलों को लंबे समय तक इसी रहना पड़ता है तैनात

करीब 2-5 राज्यों की विधानसभाओं में हर 6 महीने में चुनाव होते हैं, इस वजह से केंद्रीय सुरक्षा बलों और राज्य पुलिस बलों को लंबे समय तक इसके लिए समर्पित रहना पड़ता है. ऐसी स्थिति साफ तौर पर अकारण समझी जाती है क्योंकि सशस्त्र पुलिस बल को अन्य आंतरिक सुरक्षा उद्देश्यों के लिए बेहतर ढंग से तैनात किया जा सकता है. उन बुनियादी जिम्मेदारियों के लिए उन्हें काम में लाया जा सकता है जिनके लिए इन बलों को विकसित किया गया.

दुनिया के देशों में एक साथ चुनाव

ब्राजील, कोलंबिया और फिलीपींस (राष्ट्रपति शासन प्रणाली) में राष्ट्रपति पद के लिए और विधायी स्तर पर चुनाव एक साथ होते हैं. दक्षिण अफ्रीका और स्वीडन में आम चुनाव और प्रांतीय दोनों चुनाव एक साथ होते हैं. दक्षिण अफ्रीका में आम चुनाव और प्रांतीय चुनाव एक साथ पांच साल के लिए होते हैं और नगर निगन चुनाव दो साल बाद होते हैं.

स्वीडन में राष्ट्रीय विधायिका और प्रांतीय विधायिका/काउंटी परिषद और स्थानीय निकायों/म्युनिसिपल असेंबली के चुनाव चार साल के लिए एक निश्चित तिथि यानी सितंबर के दूसरे रविवार को होते हैं.

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