प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली। राजनीति का मैदान आज भी महिलाओं के लिए उस कदर अनुकूल नहीं है, जैसा पुरुषों के लिए है। हालांकि, दावे-वादे बढ़-चढ़कर होते हैं। हमारे नेता भले ही मंचों से लैंगिक समानता की बात करते हों, लेकिन चुनाव के मध्य में देश के सुदूर दक्षिण कर्नाटक से लेकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के घटनाक्रम इस बात के सुबूत हैं कि राजनीति की दुनिया अब भी पुरुष प्रधान बनी हुई है। कुछेक बड़े नामों की राजनीति में सक्रियता से हम यह कैसे कह सकते हैं कि आम महिलाओं की भागीदारी वैसी ही है, जैसी पुरुषों की है? पंचायत सहित नगर निकायों में आरक्षण के बूते महिला जन-प्रतिनिधियों की तादाद अच्छी-खासी है।
यह आरक्षण इसलिए दिया गया था कि यही महिलाएं आगे चलकर बड़ी पंचायत में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करेंगी। मगर उनका मार्ग रुका पड़ा है तो इसलिए कि परिवार और समाज का माहौल उन्हें शुरुआत में ही खुलकर काम करने नहीं दे रहा है। फिर वे आगे बढ़ें कैसे ? नतीजतन, बड़ी पंचायत के लिए सरकार को आरक्षण का सहारा लेना पड़ा। मगर इसे तत्काल लागू करने की बात आई, तो हमारे कदम ठिठक गए। हम इसे 2029 तक टरकाकर ले गए। यद्यपि, हम उन कुछेक देशों में शुमार हैं, जिसने स्वतंत्र होते ही सार्वभौमिक मताधिकार को स्वीकार किया।
इससे अपने आप महिलाएं .पुरुष मतदाता के बराबर हो गईं। अब उनकी बढ़ती भागीदारी के कारण वे एक वर्ग के तौर पर उभर चुकी हैं, लेकिन उच्च स्तर, यानी जन-प्रतिनिधित्व के स्तर पर वैसी भागीदारी आज भी नहीं है, क्योंकि प्रत्याशी बनाने के मामले में हम आज भी अनुदार बने हुए हैं। अगर सभी पार्टियां उदार होतीं, तो आरक्षण की नौबत ही नहीं आती।
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