प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली: हिन्दुस्तानी मतदाताओं पर यह आरोप आम है कि उनकी याददाश्त भोथरी है। वे चुनाव सामने देख पिछले मतदान की भूल-चूक विसरा देते हैं, पर क्या हमारे राजनेता भी ऐसे हैं? तथाकथित इंडिया ब्लॉक के साझीदारों के रुख रवैये से तो ऐसा ही एहसास होता है। आम चुनाव की घोषणा में अब महज कुछ हफ्तों का समय शेष है, पर उनकी खिचड़ी पकना तो दूर, उसके छोटे-मोटे कंकड़ भी साफ नहीं किए जा सके हैं। भारतीय जनता पार्टी ने जहां अबकी बार चार सौ पार के के महत्वाकांक्षी नारे के साथ चुनावी शंखनाद कर दिया है, वहीं इंडिया के कर्णधार शह और मात के तिलिस्म में उलझे हुए हैं।
गठबंधन का पीएम उम्मीदवार
आपको याद होगा, पिछली 19 दिसंबर को इंडिया ब्लॉक की बैठक में तृणमूल कांग्रेस मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रधानमंत्री का चेहरा बनाने ने का प्रस्ताव रख दिया था। तृणमूल कांग्रेस का मानना है कि नरेंद्र मोदी के सामने खड़े होने का सामर्थ्य ने सिर्फ खड़गे में है। वजह? वह देश की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष हैं। जाति से दलित हैं। उनका लंबा राजनीतिक- प्रशासनिक अनुभव है और बेईमानी का कोई दाग उनके ऊपर नहीं है। कांग्रेस को भी यह ‘नैरेटिव’ सूट करता है। जव मल्लिकार्जुन खड़गे को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था, तभी यह चर्चा उभरी थी कि यदि केंद्र में किसी वजह से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार चूकती है, तो वह देश के पहले दलित प्रधानमंत्री हो सकते हैं।
क्या नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए चूकने जा रही है? इस सवाल का जवाब आगे दूंगा। पहले इंडिया ब्लॉक के अंतर्विरोधों पर चर्चा।
खड़गे का नाम पीएम पर उलझना
खड़गे का इस तरह नाम उछलना जनता दल (यूनाइटेड) के सदस्यों को रास नहीं आया। उनका मानना है कि इस ब्लॉक को बनाने की शुरुआती कवायद हमारे नेता नीतीश कुमार ने की। पटना में ही इसकी पहली बैठक हुई। नीतीश जी न केवल संयोजक होने की काबिलियत रखते हैं, बल्कि उन्हें देश का अगला प्रधानमंत्री भी होना चाहिए। चंद महीनों के एक छोटे अंतराल को छोड़ दें, छोड़ दें, तो यह करीब 19 बरसों से मुख्यमंत्री हैं, उनकी अगुवाई में बिहार के पिछड़ों और महिलाओं ने काफी बढ़त हासिल की है। इस विचारधारा के लोगों का मानना है कि खड़गे साहब बहुत अच्छे हैं, पर वह कभी मुख्यमंत्री नहीं रहे और इस वजह से हमारे नेता का संयोजक पद के लिए बेहतर दावा बनता है।
जनता दल की सियासत में तूफ़ान
इसी बीच जनता दल (यू) की अंदरूनी राजनीति में बड़ा परिवर्तन हुआ। पार्टी अध्यक्ष ललन सिंह की जगह नीतीश कुमार ने जनता दल (यू) की अध्यक्षता संभाल ली। इसके साथ ही सियासत की प्याली में तरह-तरह के तूफान उठ खड़े हुए। किसी ने कहा कि वह अब एक बार फिर पाला बदलकर भाजपा का दामन थाम सकते हैं। ऐसे लोगों ने याद दिलाया कि पिछले आम चुनाव से पूर्व भी वह सोनिया गांधी से मिले थे और उनकी अभिलाषा थी कि कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषितः करे। कोई ठोस संकेत न मिलने पर उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ फिर से गठबंधन कर लिया था। यही वजह है कि ललन सिंह के हटते ही अभी तक सवालों-ख्यालों में पलने वाले इंडिया ब्लॉक में हलचल मच गई।
नीतीश कुमार यहीं नहीं रुके। उन्होंने अरुणाचल पश्चिम संसदीय क्षेत्र से रूही तांगुंग को लोकसभा का उम्मीदवार घोषित करवा दिया। इसके अलावा पार्टी ने विधानसभा चुनाव में भी उतरने की घोषणा कर दी। ये दोनों फैसले इंडिया ब्लॉक की मूल भावना से परे थे। सियासी शतरंज की इस चाल के बाद अगला फैसला कांग्रेस और अन्य दलों को लेना था। यही वह मुकाम है, जहां से उन्हें संयोजक बनाने की कोशिशें नेपथ्य में शुरू हो गईं। हो सकता है, आने वाले कुछ दिनों में उन्हें संयोजक घोषित भी कर दिया जाए। इसमें कोई दो राय नहीं कि इंडिया ब्लॉक की अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने न केवल पहल की, बल्कि बेहद ईमानदार कोशिश की। ऐसे में, संयोजक पद पर उनकी दावेदारी यकीनन बनती है।
रही बात दलित अथवा गैर-दलित प्रधानमंत्री की, तो अभी से इस तरह के सपने बुनना इंडिया ब्लॉक के सदस्यों को शोभा नहीं देता। चुनाव तो वे तब जीतेंगे, जब अपने मतदाताओं को एकजुट कर सकेंगे। अभी तक उन्होंने अपने प्रति सहानुभूति रखने वालों को निराश किया है।
मोदी की गारंटी दिखायेगा रंग?
इसके उलट, पिछले साढ़े नौ सालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय मतदाता के सामने राजनीति की नई अवधारणाएं प्रस्तुत की हैं। लोग मानते हैं कि वह एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो भारत को आगे ले जाने की क्षमता रखते हैं। उनकी पार्टी और सरकार पर पूरी पकड़ है। इंदिरा गांधी के बाद मोदी के अलावा ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं हुआ, जिसने पार्टी और प्रशासन पर अपनी समान पकड़ साबित की हो। मोदी इस तथ्य को समझते हैं और इसीलिए ‘मोदी की गारंटी’ जैसे आश्वासन भरे शब्द प्रायः हर भाषण में दोहराते हैं। यही नहीं, उनकी अगुवाई वाली प्रबंधन मशीनरी विपक्ष को सुरक्षात्मक रवैया अख्तियार करने पर रह-रहकर मजबूर करती रहती है। अगली 22 जनवरी को अयोध्या में आयोजित होने वाला रामलला का प्राण-प्रतिष्ठा समारोह इसकी ताजा-तरीन मिसाल है।
लोकसभा चुनाव में रामलहर का असर!
इस समारोह के आयोजकों ने सभी विपक्षी नेताओं को आमंत्रित करने के लिए संपर्क साधा है। विपक्षी नेताओं के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यदि वे इस समारोह में जाते हैं, तो उन्हें बीजेपी की लाइन पर चलने वाला प्रस्तुत किया जा सकेगा। अगर वे इनकार करते हैं, तो उन्हें हिंदू विरोधी साबित करने की कोशिश और जोर पकड़ेगी। उधर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने इस समारोह को एक नए अभियान की शक्ल देने का निश्चय किया है। 22 जनवरी को प्राण-प्रतिष्ठा होने के बाद 25 मार्च तक लगातार देश के विभिन्न हिस्सों से ‘राम भक्तों’ को लाने के लिए विशेष ट्रेनें चलाई जाएंगी। पांच-छह सौ किलोमीटर की भौगोलिक दूरी तय करने के लिए बसें भी बुक कराई जा रही हैं। इसी बीच या इसके तत्काल बाद आम चुनाव की तिथियां घोषित हो सकती हैं। पिछली बार, यानी 2019 में 10 मार्च को चुनावों की घोषणा की गई थी और 11 अप्रैल से 19 मई तक सात चरण में होने वाले मतदान की राह हमवार हो गई थी। अब तो आप समझ ही गए होंगे कि राम लहर उपजाने की कोशिशों का मकसद क्या है?
कांग्रेस की “भारत जोड़ो न्याय यात्रा”
इसी बीच 14 जनवरी से राहुल गांधी मणिपुर से महाराष्ट्र तक की यात्रा शुरू करेंगे। आप जानते हैं, पिछली भारत जोड़ो यात्रा के बाद उनकी छवि में खासा सुधार दर्ज किया गया था, लेकिन हिंदी राज्यों में कांग्रेस की हालिया हार ने उनके प्रति पनप रही सहानुभूति पर चोट पहुंचाई है। क्या यह यात्रा उनकी छवि में और सुधार करेगी? क्या इसका लाभ इंडिया ब्लॉक को भी मिलेगा ? पिछले विधानसभा चुनावों में ऐसा नहीं हो सका था।
अंत में एक और बात। इंडिया को अपना संयोजक चुनने के अलावा भाजपा की काट के लिए ‘काउंटर नैरेटिव’ पेश करना होगा। यदि वे ऐसा कर भी लेते हैं, तो क्या उनके पास इसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए समय बचा है?
“आम चुनाव की घोषणा में अब महज कुछ हफ्तों का समय शेष है, पर ‘इंडिया ब्लॉक’ की खिचड़ी पकना तो दूर, उसके छोटे-मोटे कंकड़ भी साफ नहीं किए जा सके हैं। भारतीय जनता पार्टी ने जहां अबकी बार, चार सौ पार के महत्वाकांक्षी नारे के साथ चुनावी शंखनाद कर दिया है, वहीं इंडिया के कर्णधार शह और मात के तिलिस्म में उलझे हुए हैं”- प्रकाश मेहरा