कौशल किशोर
सर्वोच्च न्यायालय तमिलनाडु सरकार में मंत्री और मुख्य मंत्री एम.के. स्टालिन के पुत्र उदयनिधि स्टालिन के खिलाफ सनातन के उन्मूलन की बात का संज्ञान लेकर नोटिस भेजती है। इस मामले में पिछले दिनों मुकदमे दर्ज किए गए हैं। इनकी एक साथ सुनवाई तय किया गया है। हालांकि नफरत की राजनीति के इस पैंतरे को अभी ‘हेट स्पीच’ की परिधि से बाहर रखा गया है। उच्च न्यायालयो में भी इस मामले में 40 मुकदमे दर्ज किए जा चुके हैं। सनातन की परिभाषा बिगाड़ने का यह षड्यंत्र चेन्नई में 2 सितंबर को आरंभ किया गया था। तभी से इस राजनीति के पक्ष विपक्ष में बयानबाजी चल रही है। यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। आगामी लोक सभा चुनाव से पहले पृष्ठभूमि रचने का यह गंभीर मामला है। दक्षिणी छोर पर शुरु किया गया ध्रुवीकरण का यह कुत्सित प्रयास आज चहुंओर असर दिखा रहा है।
तमिलनाडु के प्रगतिशील कलाकारो और लेखको ने इसके लिए चेन्नई के कामराजार एरिना में मंच तैयार किया था। उदयनिधि स्टालिन ने इसे संबोधित करते हुए कहा था कि “इस सम्मेलन का शीर्षक बहुत अच्छा है। यह ‘सनातन विरोधी सम्मेलन’ के बजाय ‘सनातन उन्मूलन सम्मेलन’ है। इसके लिए बधाई। हमें कुछ चीजों को खत्म कर देना चाहिए। हम उसका विरोध नहीं कर सकते। हमें मच्छर, डेंगू बुखार, मलेरिया, कोरोना वायरस इत्यादि का विरोध ही नहीं करना चाहिए। हमें इनका उन्मूलन करना होगा। सनातन धर्म भी ऐसा ही है।”
उच्चतम न्यायालय में मामले की सुनवाई आरंभ होने से पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी इसका प्रतिकार करते हैं। केंद्र की सत्ता में काबिज प्रायः सभी दलों के नेता इसकी आलोचना कर रहे हैं। भाजपा कार्यकर्ता सड़क पर उतर गए हैं। पर विपक्ष इस मुद्दे पर आज एकजुट नहीं है। कांग्रेस नेता कार्तिक चिदंबरम ने कहा कि उदयनिधि स्टालिन ने जो कहा है, उसमें कुछ भी गलत नहीं है। आम आदमी पार्टी की ओर राज्य सभा के सांसद राघव चड्डा स्वयं को सनातनी बता रहे हैं। विपक्षी गठबंधन से इसका ताल्लुक खारिज करते हैं। ‘इंडिया’ आज पक्ष विपक्ष में बंटता दिख रहा है। वहीं सत्तापक्ष इसके खिलाफ एकजुट है।
बंगलुरु में विपक्षी गठबंधन की गांठ बंधने के तत्काल बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी को एक पत्र लिखा था। द्रमुक सांसदों ने श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे के भारत आगमन पर कच्चतीवु द्वीप की वापसी का मुद्दा उठाया था। राजनीति के पंडितों ने इसकी व्याख्या में ‘क्विट इंडिया’ का जुमला उछाल दिया। कांग्रेस नीत गठबन्धन का दूसरा बड़ा दल इसके टूटने की आशंका को जन्म देता है। संभव है कि इस विकट संकट से निजात पाने के लिए उदयनिधि स्टालिन लगातार ऐसी बेतुकी बातें कर रहे हैं।
राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए तमिलनाडु की द्रमुक सरकार आधुनिकता के नाम पर अपने लोगों को भी जोड़ने के बदले तोड़ने का काम कर रही है। सामाजिक न्याय की आड़ में बीमारी को दूर करने के नाम पर वैमनस्य के बीज बोने में लगी है। समानता और न्याय की पैरवी के लिए सनातन का तिरस्कार किसी विकृत मानसिकता का ही द्योतक है। इस हथकंडे का इस्तेमाल कर द्रमुक नेताओं ने देश के बहुसंख्य समाज को आहत किया है। साथ ही अपनी समझ का ओछापन उजागर कर दिया है।
उन्होंने तमिलनाडु प्रगतिशील लेखक और कलाकार संघ के सामने ‘सनातन’ शब्द को संस्कृत भाषा का मान कर इसका अर्थ भी ‘शाश्वत’ के तौर पर किया था। इसकी व्याख्या करते हुए समाज की विकृतियों से जोड़ा था। सही मायनों में सनातन और धर्म एक दूसरे के पर्याय हैं। सार्वभौमिक सत्य को इंगित करने वाले नैसर्गिक धर्म के उन्मूलन की कल्पना करने वालों का ही नाश होता रहा है। सनातन अथवा धर्म अनादि काल से सतत बना रहा है। आगे भी रहेगा। इस पर हाय तौबा मचाने की कोई जरूरत भी नहीं है। उदयनिधि स्टालिन जैसे किसी तंगदिल नेता के कहने अथवा करने से इसका उन्मूलन नहीं होने वाला है। सही मायनों में यह करने की पश्चिमी सभ्यता की नाटकीयता को होने की जमीन पर लाकर खड़ा करती है। परस्परावलंबन की इस सभ्यता में एक सनातन सूत्र मिलता है, ‘यत पिंडे तत ब्रह्मांडे’ जो कुदरती एकता को व्यक्त करता है। निमित्त कारण और उपादान कारण को समझे बगैर इस पर टिपण्णी करना अनाधिकार चेष्टा ही साबित होती है।
मानवता इस सार्वकालिक और सार्वभौम धर्म का सत्य है। यह नित्य है। इसकी पैरवी करने वालों के बीच पनपी विसंगतियों से यह परिभाषित नहीं होती है। वस्तुतः धर्म और सनातन दोनों ही शब्द उन्मूलन से परे की स्थिति का वाचक है। गुरुत्व पृथ्वी का धर्म है। यह भी नित्य है। सनातन है। इसलिए सत्य है। ईसाइयत और इस्लाम की तरह सनातन और धर्म की व्याख्या पंथ के तौर पर करने से यह बदलने वाला भी नहीं है। दूसरी ओर ऐसे किसी पंथ की सफलता उसमें मौजूद सनातन तत्त्व की मौजूदगी पर ही निर्भर करता है। भारतीय समाज में आई कुरीतियों को दूर करने में लगे आर्य समाज के हिन्दू धर्म सुधार का विरोध करने वाले रूढ़िवादियों को सनातन का प्रवर्तक कहने वाले विद्वानों को इसे समझने की जरूरत है। रूढ़ि सनातन की पहचान नहीं, बल्कि यह समाज को लगा रोग है। अपने दोष को किसी और पर लादने से तमिल समाज निर्दोष नहीं हो जाता है।
तमिलनाडु में यह द्रविड़ राजनीति बीसवीं सदी में इरोड वेंकट रामासामी पेरियार से शुरू होती है। जातिवाद के खिलाफ दलितों के उत्थान की यह राजनीति गैर बराबरी का विरोध करती है। इन्हीं कुरीतियों को दूर करने का प्रयास उस दौर में आंबेडकर ने भी किया था। समाज सुधार के इन सभी कल्याणकारी कार्यों पर कड़वाहट और द्वेष के हावी होने से समुचित सफलता नहीं मिली थी। पतन और गुलामी के गर्त से भारतीय समाज के उत्थान का यह प्रयास सनातन और हिंदुत्व विरोध की राजनीति में सिमट गई। इस कड़वाहट और द्वेष को त्याग कर ही समाज सुधार का काम सही दिशा में आगे बढ़ सकेगा। इस रोग की पहचान किए बगैर इलाज संभव नहीं है।
निश्चय ही उदयनिधि स्टालिन और उनके समर्थक इसी कड़वाहट और द्वेष के बूते आज अपनी रोटी सेंक रहे हैं। सनातनी लोगों को आहत करने का लगातार जारी प्रयास क्या इसी का नतीजा नहीं है? द्रमुक नेता द्रविड़ समाज ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय समाज की कुरीतियों को दूर करने के अधिकारी हो सकते हैं। पतन के गर्त से समाज को बचाना तो मानवता की सेवा है। ऐसा करने के लिए किसी भी धर्म के अनुयायियों को आहत करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती है।
वैमनस्य की राजनीति सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने का सुगम साधन साबित हो रही है। आगामी लोकसभा का चुनाव भी इस जुमलेबाजी की जड़ में है। उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति कड़वाहट और द्वेष में सने वैमनस्य को ‘हेट स्पीच’ की श्रेणी में रखने से इंकार करते हैं। क्या कड़वाहट व द्वेष को दूर कर न्यायालय समाज सुधार के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगी? इस सवाल का जवाब तो काल के गर्भ में है। सम्प्रति न्याय की देवी हाथों में तराजू लिए सत्य और तथ्य को तौलने में लगी है। हालांकि ये दोनों एक ही नहीं है। न्याय के देवी की आंखों पर पट्टी भी बंधी है। नफरत के स्वर कानों में गूंज कर भी कोई असर पैदा नहीं कर पा रही है। देश और समाज के लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं है। लेकिन इसका अर्थ सनातन अथवा धर्म का उन्मूलन भी नहीं है।