नई दिल्ली: इंडिया ब्लॉक में कांग्रेस और कई अन्य दलों ने अगले महीने पांच राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले एक राष्ट्रव्यापी जाति सर्वेक्षण की अपनी मांग तेज कर दी है। वे कह रहे हैं कि पूरे देश में जातीय आधार पर सर्वेक्षण अंततः आरक्षण की 50% सीमा को चुनौती देने का रास्ता मजबूत करेगा। राहुल गांधी ने तो नया नारा दे दिया- ‘जितनी आबादी, उतना हक।’ हालांकि, विपक्ष का जाति सर्वेक्षण के लिए समर्थन कम से कम तीन राज्यों- पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और केरल में कमजोर पड़ता दिख रहा है। तीनों राज्यों में सत्तारूढ़ दल मौजूदा जाति समीकरणों में बदलाव को लेकर आशंकित हैं।
कर्नाटक में कांग्रेस ही चुप
सीएम सिद्धारमैया ने खुद 2015 में अपने पिछले कार्यकाल के दौरान कर्नाटक में जाति समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक सर्वेक्षण कराया था। हालांकि रिपोर्ट 2018 में तैयार हो गई थी, लेकिन सरकारों ने आज तक इसे जारी नहीं किया। अब जब कांग्रेस वहां फिर सत्ता में आ गई है, तब भी इस पर चुप्पी कायम है? कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार राजनीतिक रूप से प्रभावशाली वोक्कालिगा और लिंगायत समूहों को नाराज करने की आशंका से कास्ट सर्वे की रिजल्ट जारी करने से डर रही है, जिन्होंने इस साल की शुरुआत में कर्नाटक में कांग्रेस की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
पश्चिम बंगाल में ममता ने कहा- ना
सीएम ममता बनर्जी ने सितंबर में इंडिया ब्लॉक के प्रस्ताव में जाति सर्वेक्षण को नीतिगत उद्देश्य के रूप में शामिल करने का विरोध किया। तृणमूल कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति हिंदी हर्टलैंड की तरह जाति-आधारित नहीं है और जाति सर्वेक्षण राज्य में भाजपा को लाभ दे सकता है। लेकिन राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार, ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल में जाति सर्वेक्षण टीएमसी के उच्च जाति के मतदाताओं को परेशान कर सकता है, क्योंकि ओबीसी आबादी मौजूदा अनुमानों से अधिक होने की संभावना है।
केरल में वाम दलों का डर
केरल में पिनराई विजयन के नेतृत्व वाली वामपंथी सरकार पहले से ही ब्राह्मणों और नायरों जैसी कथित उच्च जातियों को किनारे किए हुए है। सरकार में उनका प्रतिनिधित्व कम है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि केरल में जाति सर्वेक्षण से राजनीतिक विवाद उत्पन्न हो सकता है और उच्च जाति समूहों का सब्र टूट सकता है। ऐसा हुआ तो सरकार के सामने मुश्किल खड़ी हो सकती है क्योंकि वामपंथी दलों को मिलने वाले वोटों का एक बड़ा हिस्सा ओबीसी से आता है, खासकर एझावा समुदाय से।