कार्तिकेय शर्मा l दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का ताजा विज्ञापन बाबासाहेब अंबेडकर पर है. इस विज्ञापन अभियान का मकसद है बाबासाहेब अम्बेडकर के जीवन का उत्सव मनाना. 2014 के बाद बीजेपी के अलावा आम आदमी पार्टी ऐसी दूसरी पार्टी है जिसने अंबेडकर को हथिया लिया है और अंबेडकर के नाम पर आयोजित समारोहों को जोरदार तरीके से मनाया है. अम्बेडकर के नाम पर उत्सव इसलिए मनाया जाता है ताकि उस पार्टी की राजनीतिक महत्ता बढ़ सके.
उत्तर प्रदेश के गांवों में उनकी मूर्तियां दलित समुदाय द्वारा राजनीतिक वर्चस्व के रूप में स्थापित की गईं, लेकिन इसका जुड़ाव बसपा की राजनीति तक ही सीमित रहा. बीजेपी ने अम्बेडकर के इर्द-गिर्द बहस आयोजित करके और उन्हें लगातार ही आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में पेश कर बहुत हद तक अपने राजनीतिक विमर्श में अम्बेडकर को शामिल करने में कामयाब रही. ये अलग बात है कि हिंदू धर्म के दमनकारी पहलुओं पर उनके विचारों को बीजेपी ने नज़रअंदाज कर दिया. केजरीवाल एक ऐसे ही सफर पर हैं और लगातार ही सियासी गियर बदल रहे हैं ताकि दिल्ली से बाहर के लोगों के लिए आम आदमी पार्टी को और स्वीकार्य बना सकें. बीजेपी की राजनीति को टक्कर देने के लिए केजरीवाल अपने रोज के राजनीतिक संदेश में नरम हिंदुत्व को जगह देते हैं. उन्होंने दिल्ली में सत्ता में लौटने के बाद हनुमान जी को धन्यवाद कहा और दिल्ली चुनाव के दौरान NRC और CAA जैसे मुद्दों पर चुप रहे.
बीजेपी के पदचिन्हों पर आगे बढ़ रहे हैं केजरीवाल
केजरीवाल भी अंबेडकर को सियासी तौर पर हथियाना चाहते हैं. विडंबना यह है कि कोई भी राजनीतिक दल अम्बेडकर को उनके जीवनकाल में अपना नहीं सका. अंबेडकर अपने जीवनकाल में एक राजनेता के रूप में बुरी तरह विफल रहे. वे लोकसभा चुनाव हार गए और अपने जीवन के आखरी पड़ाव में अपनी नाराजगी की वजह से हिंदू धर्म का त्याग कर दिया. लेकिन आज की तारीख में उनकी सार्वजनिक आलोचना किसी को भी कानूनी पचड़े में डाल सकती है. ‘आप’ राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भी बीजेपी के ठीक पीछे रही है. केजरीवाल ने यह सुनिश्चित किया कि स्कूली पाठ्यक्रम में देशभक्ति पर विशेष ध्यान दिया जाए. देशभक्ति पर ‘आप’ की विश्वसनीयता को मजबूती से बढ़ाते हुए उन्होंने राष्ट्रवाद पर वामपंथियों की बहस का भी सफाया कर दिया.
उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि राज्य में राष्ट्रीय ध्वज ऊंचा लहराते रहे. अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के मुद्दे पर वे व्यापक राष्ट्रीय विमर्श के साथ रहे. इसी वजह से प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर अखिलेश यादव पर आसानी से हमला कर देते हैं लेकिन दिल्ली में केजरीवाल पर नहीं कर पाते. केवल पंजाब में, केजरीवाल ऐसे हमलों के शिकार हो जाते हैं क्योंकि उनके पुराने सहयोगी खालिस्तानी तत्वों से उनकी मुलाकात को लेकर उन पर हमला करते रहते हैं. बहरहाल, केजरीवाल की राजनीति ज्यादातर मुद्दों पर दक्षिणपंथी विमर्श के साथ तालमेल बैठाती है.
मोदी की तरह उन्होंने भी खुद को एक ऐसे बाहरी व्यक्ति के रूप में स्थापित किया है जो सार्वजनिक जीवन में सुधार लाना चाहता है. अपने बाहरी व्यक्ति की छवि को परिभाषित करने के लिए केजरीवाल चुनाव लड़ने से पहले विभिन्न मुद्दों पर अपनी सक्रियता का इस्तेमाल पुरजोर तरीके से करते हैं. मोदी अपनी बाहरी छवि को इस तरह परिभाषित करते हैं कि वे कभी भी दिल्ली दरबार का हिस्सा नहीं रहे. एक राजनेता के रूप में स्थापित होने के बावजूद, मोदी अपने साधारण पारिवारिक पृष्ठभूमि और गुजरात के अनुभव के आधार पर बाहरी व्यक्ति के रूप में खुद को बदलने में कामयाब रहे हैं.
आप और बीजेपी में अपने विरोधियों को ‘अन्य’ बना देने की समानता है
आप और बीजेपी में समानता है कि दोनों ने आज अपने राजनीतिक विरोधियों को ‘अन्य’ बना दिया है. बीजेपी वामपंथी विचारों को देश- विरोधी बताने में सफल रही है. प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा के अंदर ‘अर्बन नक्सल’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया. दूसरे सियासी दोलों को ‘अन्य’ बना देने के लिए केजरीवाल ने एक अलग रास्ता अपनाया. उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों को भ्रष्ट बताया और इसे अपने विरोधियों को तोड़ने के लिए बतौर एक हथियार इस्तेमाल किया. उन्होंने अपने प्रेस कॉन्फ्रेंस में तमाम भ्रष्ट लोगों को बेनकाब किया जिस पर जनता का ध्यान भी गया, लेकिन अधिकांश आरोप अदालती लड़ाई में समाप्त हो गए. यही वो जगह है जहां दोनों के बीच समानता समाप्त हो जाती है.
केजरीवाल और बीजेपी के बीच अंतर यह है कि उनका बौद्धिक तंत्र बिल्कुल अलग है. वाजपेयी के दिनों में मुसलमानों का राजनीतिक मान-मनौव्वल चलता रहता था, लेकिन 2014 के बाद यह समाप्त हो गया. 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में बीजेपी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा था. लेकिन केजरीवाल भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक को अलग-थलग नहीं करेंगे. वे उनको अपने पक्ष में करने के लिए कोशिश करते रहेंगे. केजरीवाल और बीजेपी की राजनीति के बीच दूसरा अंतर यह है कि समूचे भारत में केजरीवाल का कोई स्थिर राजनीतिक नेटवर्क नहीं है, जबकि बीजेपी को हमेशा आरएसएस का संरक्षण प्राप्त रहा है.
भारत कई दलों के जन्म का गवाह रहा है. लेकिन बीजेपी को छोड़कर उनमें से कोई भी राष्ट्रीय दर्जा हासिल नहीं कर सका. स्वतंत्र पार्टी, भाकपा, माकपा, जनसंघ और एनसीपी कभी भी पूरे देश में अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं कर पाए. 2013 में आप के पास सही मायनों में राष्ट्रीय पार्टी बनने की क्षमता थी, लेकिन उन्होंने मौका गंवा दिया. 1980 में बीजेपी के जन्म के बाद कोई भी राजनीतिक दल कांग्रेस के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में विकसित नहीं हो पाया है. हो सकता है आप का सफर फिर से शुरू हो जाए और वह भी बाबासाहेब के समारोह से जो दिल्ली में आयोजित हुआ.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)