प्रकाश मेहरा
नई दिल्ली: अगर आपको जम्मू-कश्मीर, हिमाचल अथवा पंजाब जाना है, तो सावधान हो जाएं। बीच का राजमार्ग अवरुद्ध और वांछित ट्रेन रद्द हो सकती है। वजह? देश के एक खास हिस्से के किसान फिर से उबल पड़े हैं। उनके जत्थे दिल्ली की ओर कूच कर गए हैं, लेकिन हरियाणा की सीमा पर उन्हें रोक दिया गया है। पंजाब और हरियाणा की सीमा पर सुरक्षा बलों की जबरदस्त किलेबंदी है।
वहां जमे किसान धरने के जरिये सरकार पर दबाव बनाना चाहते हैं। उनका आरोप है कि हमारे साथ वायदा खिलाफी की गई। इस गुस्से को देखते हुए सहज तौर पर सवाल उभरता है कि किसान तो पूरे देश में फैले हैं, फिर उनका यह आंदोलन देशव्यापी क्यों नहीं है? इस सवाल का जवाब मैं आगे देने की कोशिश करूंगा, पर उससे पहले यूरोप का हाल भी जान लीजिए।
सरकार के नीतियों के विरुद्ध हुंकार
पिछले दिनों यूरोप के अनेक देशों के किसान अपने- अपने ट्रैक्टर लेकर महानगरों में घुस गए। उन्होंने राजमार्ग बाधित कर दिए, बंदरगाहों का काम रोकने की कोशिश की। यह गुस्सा अगर फ्रांस और जर्मनी जैसे अमीर देशों में पनपा, तो बेल्जियम, बुल्गारिया, हंगरी, इटली, पोलैंड अथवा स्पेन जैसे आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत कमजोर देश भी समान लक्षणों वाले ज्वर से कंपकंपाने लगे। वहां के किसान अपनी-अपनी सरकार की नीतियों के विरुद्ध हुंकार रहे थे। उन्हें लगता है कि हमारे साथ नाइंसाफी हो रही ही है। फ्रांस और जर्मनी संसाधन- संपन्न मुल्क हैं, इसलिए उन्होंने किसानों की कुछ मांगों को तत्काल मान लिया। फ्रांस ने ईंधन रियायत में जो कटौती की थी, उसे वापस ले लिया और कीटनाशकों के प्रयोग में कमी के आदेश को भी रद्द कर दिया। जर्मनी ने भी समान कदम उठाने की घोषणा की है। यहां बताना जरूरी है कि उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग पर यूरोपीय संघ के तमाम ऐसे प्रस्ताव हैं, जिन्हें किसान अपने हित में नहीं मानते। उन पर भी पुनर्विचार का आश्वासन दिया गया, लेकिन किसानों की नाराजगी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है।
क्या पंजाब और हरियाणा के साथ यूरोप के किसानों की कोई तुलना की जा सकती है?
यकीनन, हालात अलग हैं, पर एक समानता भी है। समूची धरती के किसानों और किसानी को अलग नजरिए से देखने का वक्त आ गया है। कृषि को अब फौरी उपायों की नहीं, बल्कि नई दृष्टि और नई रणनीति की जरूरत है। संसार के सबसे पुराने इस उद्योग को अब बदले वक्त के अनुरूप ढालना ही होगा। कृषि को सिर्फ सियासत और अर्थशास्त्रियों के बीच का मामला नहीं मान लेना चाहिए। इसने सदी-दर-सदी हमारी सभ्यता और संस्कृति को गढ़ा है। यह धरती के मानवीय समाज और उसकी उस सनातन छटपटाहट से उपजा असंतोष है, जो वक्त के हर दौर में, हर बदलाव से पहले दर्ज किया गया है।
सड़कें और रेल-मार्ग अवरुद्ध करना जरूरी?
हमारे देश के बड़े हिस्से में पीढ़ी-दर-पीढ़ी घटती जोत, पानी की पनपती कमी और बरस-दर-बरस अनुत्पादक होती भूमि, उनके लिए चिंता का सबब बनती जा रही है। क्या सरकार ने उनकी ओर से आंख मूंद रखी है, जिसके लिए सड़कें और रेल-मार्ग अवरुद्ध करना जरूरी हैं? याद दिलाना चाहता हूं कि 2019 के अंतरिम बजट में केंद्र सरकार ने प्रति कृषक परिवार छह हजार रुपये सालाना राजकोष से देने का निर्णय किया था। इसी तरह, कोरोना काल में जरूरतमंदों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिमाह निःशुल्क खाद्यान्न एवं खाद्य तेल देना शुरू किया था। ये योजनाएं जस की तस लागू हैं।
सरकार की कल्याणकारी योजनाएं
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार के जिन गांवों से मेरा सीधा नाता है, वहां इसे बड़ी मदद के तौर पर देखा जाता है। यही मुल नहीं, किसानों व खेतिहरों के बच्चों तथा महिलाओं के लिए केंद्र और राज्य की सरकारें तमाम कल्याणकारी योजनाएं चलाती हैं। किसानों के खातों में ‘कैश ट्रांसफर’ की वजह से इसका सीधा और समूचा लाभ जरूरतमंदों को मिलता है। यही नहीं खेती के लिए तरह-तरह की अन्य रियायतें भी इस वर्ग को हासिल हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक असर देखने के लिए अब किसी दूरबीन की जरूरत नहीं पड़ती।
यही वजह है कि पंजाब-हरियाणा के किसानों का गम और गुस्सा देश के अन्य हिस्सों के किसानों का दिल नहीं छू पाता।
इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि भारत में जो किसान आक्रोश में हैं, उनमें से अधिकांश की जोत (खेती का रकबा ) बड़ी है। वे अपेक्षाकृत साधन-संपन्न भी हैं। भारतीय कृषि के बारे में यह दुष्प्रचार भी किया जाता है कि हमारे हालात पश्चिमी मुल्कों के मुकाबले बदतर हैं। आंकड़े गवाह हैं कि यूरोप और अमेरिका में कृषि व कृषि-उत्पादों की विकास दर साढ़े तीन से चार प्रतिशत के आसपास रही है। हमारे यहां की विकास दर भी लगभग इतनी ही है। बात चली है, तो यह बताने में हर्ज नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी 13 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और इस दौरान वहां कृषि की विकास दर 10 फीसदी सालाना से ऊपर रही।
यहां आप पूछ सकते हैं कि अगर ऐसा है, तो फिर किसानों में आत्महत्या की घटनाएं साल-दर-साल क्यों बढ़ रही हैं?
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2022 में कृषि कर्म से जुड़े 11,290 लोगों ने खुदकुशी कर ली। इनमें से 5,207 किसान और 6,083 खेतिहर मजदूर थे। पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष ऐसी मौतों की दर में 3.75 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। यह आंकड़ा यकीनन दुर्भाग्यजनक है, पर दुर्भाग्य के मारे सिर्फ कृषि से जुड़े लोग नहीं हैं। ब्यूरो ने इसी साल, यानी 2022 में कुलजमा 1,70,921 खुदकुशी के मामले दर्ज किए। इनमें 26 फीसदी दिहाड़ी मजदूर, 14.8 प्रतिशत गृहणियां, 11.4 प्रतिशत स्वरोजगारी, 9.6 फीसदी बेरोजगार, 9.2 प्रतिशत नौकरी-पेशा और 7.6 फीसदी छात्र थे। किसानी से जुड़े लोग सातवें नंबर पर आते हैं।
मैं मानता हूं कि खुदकुशी, खुदकुशी होती है। इसके लिए सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को दोषी ठहराया जा सकता है। इसे ठीक करने के लिए संसाधन, समय और संयम की आवश्यकता है।
जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी
यहां एक और मुद्दे पर चर्चा जरूरी है। अक्सर कहा जाता है कि सन् 1947 में आजादी के वक्त भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का योगदान पचास फीसदी से अधिक था। 2022-23 में यह 15 प्रतिशत ही रह बचा। इस आंकड़े को खेती-किसानी की दुर्दशा से जोड़कर पेश किया जाता है, जबकि तथ्य यह है कि तेजी से तरक्की करते मुल्कों में उद्योग, व्यापार और सेवा क्षेत्र तेजी से पनपते हैं। ऐसा न होता, तो संसार के सबसे अमीर देश अमेरिका में और यूरोप के सबसे धनी मुल्क जर्मनी की कुल जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी सिर्फ एक फीसदी के आसपास नहीं रहती।
क्या आंदोलनरत किसानों की मांग नाजायज है?
यकीनन, ऐसा नहीं है। उनके अपने दुख-दर्द हैं। उन पर नजर डालनी ही चाहिए, मगर जैसा कि ऊपर के आंकड़ों से स्पष्ट है कि अन्य वर्गों को भी सरकारी मदद की उतनी या उससे कुछ ज्यादा जरूरत है, इस तथ्य को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता।